अनूप भटनागर
इस बार महिला दिवस की थीम थी ‘स्थाई कल के लिए लैंगिक समानता’। लेकिन भारत में समानता की भागीदारी अभी भी दिवास्वप्न लगता है। इसकी वजह, संसदीय व्यवस्था में महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी के लिए 12 साल पहले राज्य सभा में पारित संविधान संशोधन विधेयक का आज तक लोकसभा में पेश नहीं किया जाना है। नि:संदेह लैंगिक समानता के मामले में विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। हमारे सैन्य बलों में भी अधिकारियों के पदों पर यह नजर आता है, लेकिन यह भी सिर्फ न्यायपालिका के हस्तक्षेप से संभव हो रहा है।
यह भी दिलचस्प है कि महिलाओं के हितों की रक्षा को लगातार अनेक महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं प्रतिपादित करने वाली न्यायपालिका लैंगिक समानता के मामले में पीछे है। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण चाहते हैं कि न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी 50 फीसदी होनी चाहिए। इस समय न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी करीब 15 फीसदी है।
सवाल है कि जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने के लिए 2010 में राज्यसभा से 108वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने के बावजूद इसे लोकसभा से पारित नहीं कराया जा सका तो वहां न्यायपालिका में महिलाओं की 50 फीसदी भागीदारी कैसे सुनिश्चित हो। न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि के लिए समय-समय पर आरक्षण की मांग उठती रहती है लेकिन संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका, विशेषकर उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में महिलाओं की भागीदारी एक सम्मानित स्तर तक ले जाने में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उनके नामों का चयन और सिफारिश करने वाली शीर्ष अदालत की कॉलेजियम अहम भूमिका निभा सकती है। महिलाओं के लिए संसद और विधान मंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण के सवाल पर विभिन्न दलों में मतभेद रहा है। लैंगिक समानता का सवाल उठते ही विभिन्न दलों के नेता चाहते हैं कि महिला आरक्षण के भीतर भी जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था हो।
प्रधान न्यायाधीश चाहते हैं कि यह स्थित बदले। लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति होना भी आवश्यक है। आज भी राजनीतिक दल चुनाव में 33 प्रतिशत महिलाओं को प्रत्याशी नहीं बनाते हैं। अगर हम वास्तव में लैंगिक समानता चाहते हैं तो हमें हर तरह के भेदभाव के विचार से ऊपर उठकर महिलाओं के लिए आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन विधेयक संसद से मंजूर करने की दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए। लड़कियों के विवाह की आयु लड़कों के विवाह की उम्र के बराबर करना या फिर मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक की कुप्रथा समाप्त करने के लिए कानून बनाने जैसे कदम भले ही सराहनीय हों लेकिन ये पर्याप्त नहीं हैं।
नि:संदेह पिछले कुछ दशकों में समाज और परिवारों में महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव हुआ। समाज के लगभग सभी क्षेत्रों में निरंतर महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई है लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ करने की जरूरत है।
महिलाओं को तरह-तरह के शोषण से संरक्षण प्रदान करने के लिए देश में अनेक कानून हैं लेकिन इसके बावजूद उनके उत्पीड़न से संबंधित घटनाओं की खबरें लगातार सुर्खियों में रहती हैं। इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए महिलाओं के प्रति समाज को अपना नजरिया बदलना होगा और इसके लिए जरूरी है कि महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त होने के बारे में ग्रामीण स्तर से लेकर शहरी स्तर तक व्यापक रूप से जागरूकता पैदा की जाये। ऐसा नहीं है कि संसद में महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व के लिए प्रयास नहीं हुए। इस दिशा में 1996 में देवगौड़ा सरकार ने पहल की थी और उसने लोकसभा में एक विधेयक भी पेश किया था। लेकिन यह प्रयास विफल हो गया। इसके बाद, अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने भी 1998 में लोकसभा में इस बारे में संविधान संशोधन विधेयक पारित करने का प्रयास किया। वर्ष 2002 और 2003 में भी ऐसे प्रयास हुए थे।
अंतत: मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने साल 2008 में राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया। राज्यसभा ने मई, 2010 में इसे पारित भी किया लेकिन सरकार ने घटक दलों के रवैये की वजह से इसे लोकसभा में पेश नहीं किया।
इस संशोधन विधेयक को आज भी लोकसभा में बहस का इंतजार है। लोकसभा में पूर्ण बहुमत वाली नरेन्द्र मोदी सरकार को राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने वाले इस संविधान संशोधन विधेयक को सदन से मंजूरी दिलाने का काम करना चाहिए। ताकि राज्य और केंद्रीय स्तर पर नीतिगत निर्णय लेने वाली संस्था में वे सक्रिय भूमिका निभा सकें।