सर सैयद अहमद खान ने उनके बारे में कहा, ‘राजवंशीय सम्मान से कहीं ऊपर, भगवान ने उन्हें उनके व्यक्तित्व में बहुत कुछ दिया है। महान चरित्र, प्रेमपूर्ण स्वभाव, सभी के लिए सद्भावना और सभी समुदायों के लोगों के लिए सम्मान उनकी निजी उपलब्धियां थीं...।’
सरदार दयाल सिंह मजीठिया परिचय देने में विशेषण कम पड़ते नज़र आते हैं। वे एक प्रेरक राष्ट्रनायक, मानवता प्रेमी, संपादक, शिक्षाविद्, अर्थशास्त्री, दानवीर, कांग्रेस के प्रतिषि्ठत प्रतिनिधि, लेखक, ब्रह्मो समाजी, तर्कशील, ओजस्वी वक्ता, धर्मनिरपेक्षता की जीवंत मूर्ति थे। वह ‘राजा कर्ण’ तथा ‘भामाशाह’ की भांति आधुनिक युग के दानवीर थे। उत्तर भारत को अज्ञानता के अंधेरे से आधुनिकता के प्रकाश की ओर ले जाने की दिशा में उनका योगदान ब्रह्मो समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय जैसा था। मजीठिया जी का परिवार महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में पंजाब के प्रमुख कुलीन परिवारों में से एक था। दयाल सिंह के परदादा सरदार नोध सिंह, दादा देसा सिंह और पिता सरदार लहना सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेना के सर्वश्रेष्ठ जरनलों की श्रेणी में आते थे।
उनके पिता स. लहना सिंह एक सुयोग्य प्रशासक व उदारवादी व्यक्ति थे। लहना सिंह को कांगड़ा और पहाड़ी क्षेत्र तथा छोटी रियासतों का नाज़िम (गवर्नर) बनाया गया। विषम परिस्थितियों के कारण वे 14 जनवरी, 1848 को पंजाब छोड़ बनारस में जा बसे।
दयाल सिंह का जन्म सन् 1848 में बनारस में हुआ था। उनका पैतृक गांव मजीठा था इसलिए उन्होंने अपने नाम के साथ ‘मजीठिया’ उपनाम जोड़ा। जब वे 6 साल के थे, तब उन्होंने माता-पिता को खो दिया। उन्हें राजा तेजा सिंह के संरक्षण में रखा गया तथा उनकी संपत्ति का प्रबंध ‘कोर्ट ऑफ़ वार्ड्ज़’ द्वारा किया गया। मजीठिया परिवार ने बनारस छोड़ दिया और अपने पैतृक गांव मजीठा में आकर रहने लगे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशन स्कूल, अमृतसर में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे सन् 1874 में इंग्लैण्ड गए।
दयाल सिंह अंग्रेजी व उर्दू भाषा के माहिर थे। उनके चिंतन के मौलिक स्रोत उनके द्वारा ‘द ट्रिब्यून’ में लिखे गए लेख व पुस्तकें हैं। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विचारधारा की झलक उनके द्वारा ‘द ट्रिब्यून’ में प्रकाशित लेखों, संपादकीय अग्रलेखों के अतिरिक्त सन 1895 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वे अच्छे कवि भी थे तथा कविताएं ‘मशरीक’ छद्म नाम से लिखते थे। ‘द लास्ट विल और टेस्टामेंट का सरदार दयाल सिंह मजीठिया, 15 जून, 1895’ जिसमें ट्रस्टों की स्थापना की गई है, उनके चिंतन का स्रोत माना जा सकता है।
19वीं शताब्दी में भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियाें और सामाजिक विसंगतियों का मजीठिया जी ने विरोध किया। उन पर सर्वाधिक प्रभाव राजा राममोहन राय के चिंतन का पड़ा। मजीठिया जी कालांतर में ब्रह्मो समाजी हो, समाज सुधार में जुट गए। जब सन् 1880 में दयाल सिंह कोलकाता पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया। उन्होंने साधारण ब्रह्मो समाज मंदिर कोलकाता के निर्माण हेतु काफी मात्रा में धन दिया। इंग्लैंड के उदार राजनीतिक माहौल और उदार शिक्षा का दयाल सिंह जी की सोच पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने सन् 1888 में इलाहाबाद कांग्रेस में भाग लिया। ओजस्वी वक्ता और प्रभावशाली नेतृत्व व विचारों के कारण ही उनको लाहौर कांग्रेस (सन् 1893) की स्वागत समिति का अध्यक्ष बनाया गया। लाहौर अधिवेशन में दिया गया उनका संबोधन उदारवादी चिंतन की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति और उनकी सर्वोत्तम कृति मानी जाती है। उन्होंने समाज में फैले अज्ञानता रूपी अंधेरे को दूर करने के लिए तीन ट्रस्टों— ट्रिब्यून ट्रस्ट, कॉलेज ट्रस्ट एवं लाइब्रेरी ट्रस्ट की स्थापना की। उनके अथक प्रयासों के कारण पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर की स्थापना सन् 1882 में हुई। मजीठिया जी की वसीयत के अनुच्छेद 8 के निर्देश अनुसार वर्ष 1910 में दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर की स्थापना की गई।
भारत विभाजन के बाद दयाल सिंह कॉलेज ट्रस्ट सोसायटी की अधिकांश संपत्ति लाहौर में रह गई थी। इसके बावजूद उनकी विरासत, वसीयत और विचारधारा को निष्ठापूर्ण तरीके से आगे बढ़ाते हुए 16 सितंबर, 1949 को दयाल सिंह कॉलेज, करनाल की स्थापना की गई। इसके अतिरिक्त चार सीनियर सेकेंडरी स्कूलों की स्थापना करनाल, पानीपत और जगाधरी में की गई है। ट्रस्ट द्वारा दयाल सिंह पुस्तकालय की स्थापना सन् 1954-55 में की गई। पब्लिक लाइब्रेरी विद्यार्थियों, शोधार्थियों व अध्येताओं के लिए देहली की सर्वोत्तम लाइब्रेरी मानी जाती है। सन् 1958 में दिल्ली में दयाल सिंह इवनिंग कॉलेज की स्थापना की गई।
उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप विशुद्ध भारतीय पूंजी के आधार पर भारतवर्ष के प्रथम स्वदेशी बैंक–पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना 23 मई, 1894 को हुई। उन्हें बैंक का पहला कार्यकारी अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त है।
19वीं शताब्दी में जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाने तथा जनता को जागरूक करने के लिए मजीठिया जी ने ‘द ट्रिब्यून’ (साप्ताहिक समाचारपत्र) की स्थापना की। ‘द ट्रिब्यून’ का प्रथम संस्करण बुधवार के दिन 2 फरवरी, 1881 को लाहौर से प्रकाशित किया गया। प्रथम संपादकीय में ‘द ट्रिब्यून’ के मुख्य उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए दयाल सिंह ने लिखा कि ट्रिब्यून के ‘योजनाकार तथा संचालक तो मात्र जनहित के लिए कार्य करते हैं और इस ओर सजग हैं कि कटु प्रहार या कट्टर लफ्फाजी की बजाय उदारता और संयम द्वारा कल्याण को अधिक प्रोत्साहन किया जा सकता है।’ उन्होंने आगे लिखा कि ‘द ट्रिब्यून’ का उद्देश्य ‘देशी जनमत का प्रतिनिधित्व’ करना है ताकि यह ‘जनता के मुखपत्र’ के रूप में कार्य करे। तदुपरांत समाचारपत्र दैनिक के रूप में प्रकाशित होने लगा। फिर विभाजन के उपरांत लाहौर से निकलकर शिमला, अम्बाला होते हुए चंडीगढ़ से प्रकाशित होने लगा।
सर सैयद अहमद खान ने उनके बारे में कहा, ‘राजवंशीय सम्मान से कहीं ऊपर, भगवान ने उन्हें उनके व्यक्तित्व में बहुत कुछ दिया है। महान चरित्र, प्रेमपूर्ण स्वभाव, सभी के लिए सद्भावना और सभी समुदायों के लोगों के लिए सम्मान उनकी निजी उपलब्धियां थीं...।’ मजीठिया जी अनेक क्षेत्रों में थका देने वाला योगदान देते थे। 9 सितंबर, 1898 को 2 बजकर 50 मिनट पर घातक हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु पर लाल हरकिशन लाल ने लिखा, ‘सरदार उसी प्रकार शांत था जैसा कि जीवन में था और ऐसा प्रतीत होता है वह बिना किसी पश्चाताप अथवा दु:ख के अलविदा कह गए हों।’ एक महान धर्मनिरपेक्ष विचारक, राष्ट्रवादी नेता, विराट व्यक्तित्व के रूप में मजीठिया का चिंतन आज भी भारतीय समाज के लिए प्रकाशदीप का कार्य कर रहा है।
लेखक पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल हैं।