‘हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए…’ 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा के जरिये अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित भारत के संविधान की प्रस्तावना पहले इन्हीं शब्दों से शुरू होती थी।
26 जनवरी, 1950 को इसके लागू होने के कोई पच्चीस साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आंतरिक सुरक्षा को खतरे के नाम पर देश पर इमरजेंसी थोप दी और सारे नागरिक अधिकार छीनकर संवैधानिक मूल्यों व नैतिकताओं को पहला गम्भीर संकट पैदा किया तो संसद में 42वां संविधान संशोधन लाकर इस प्रस्तावना के ‘प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ वाले अंश को ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष गणराज्य’ से प्रतिस्थापित कर दिया।
तब से अब तक समय-समय पर संविधान में सौ से ज्यादा संशोधन किये जा चुके हैं लेकिन उसकी प्रस्तावना का यह रूप अपरिवर्तित चला आ रहा है। यह दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, जिसे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की स्थायी अध्यक्षता वाली संविधान सभा ने दो वर्ष ग्यारह महीने और 18 दिनों की लम्बी प्रक्रिया में बनाया। बंटवारे का दंश झेल रहे और कई ध्रुवों के बीच झूल रहे नव-स्वतंत्र देश की उन दिनों की परिस्थितियों में यह कितना कठिन कार्य था, इसे संविधान सभा में हुई तीखी बहसों से भी समझा जा सकता है और उसकी दशा व दिशा की विभिन्न मंचों पर की गई प्रशंसाओं व आलोचनाओं से भी।
बहरहाल, राजेन्द्र प्रसाद चाहते थे कि संविधान को अंग्रेजी की ही तरह हिन्दी में भी आधिकारिक रूप से प्रस्तुत किया जाये। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया और अंग्रेजी में लिखित आधिकारिक संविधान का बाद में हिन्दी समेत विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में अपने समापन भाषण में कहा था, ‘आखिरकार, एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों द्वारा होता है जो इस पर नियंत्रण करते हैं तथा इसे चलाते हैं। भारत को ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हों और देश के हित को सर्वोपरि रखें।’
उन्हीं की तरह बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी, जो प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, संविधान के अधिनियमित, आत्मार्पित व अंगीकृत होने से ऐन पहले, 25 नवम्बर, 1949 को उसे ‘अपने सपनों का’ अथवा ‘तीन लोक से न्यारा’ मानने से इनकार कर दिया था। विधि मंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि यह संविधान अच्छे लोगों के हाथ में रहेगा तो अच्छा सिद्ध होगा, लेकिन बुरे हाथों में चला गया तो इस हद तक नाउम्मीद कर देगा कि ‘किसी के लिए भी नहीं’ नजर आयेगा। उनके शब्द थे, ‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा।’
उन्होंने चेताया था कि ‘संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है। उन अंगों का संचालन लोगों पर तथा उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाये जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।’
फिर उन्होंने जैसे खुद से सवाल किया था कि आज की तारीख में, जब हमारा सामाजिक मानस अलोकतांत्रिक है और राज्य की प्रणाली लोकतांत्रिक, कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा राजनीतिक दलों का भविष्य का व्यवहार कैसा होगा?’
परस्पर विरोधी विचारधाराएं रखने वाले राजनीतिक दल जातियों व सम्प्रदायों के हमारे पुराने शत्रुओं के साथ मिलकर कोढ़ में खाज न पैदा कर सकें, इसके लिए उन्होंने सुझाया था कि सारे भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखें, न कि पंथ को देश से ऊपर। साथ ही चेतावनी भी दी थी कि ‘यदि राजनीतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़ जायेगी और संभवतया हमेशा के लिए खत्म हो जाये। हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए। हमें अपनी आजादी की खून के आखिरी कतरे के साथ रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए।’
उनके अनुसार संविधान लागू होने के साथ ही हम अंतर्विरोधों के नये युग में प्रवेश कर गये थे और उसका सबसे बड़ा अंतर्विरोध था कि वह एक ऐसे देश में लागू हो रहा था, जिसे उसकी मार्फत नागरिकों की राजनीतिक समता का उद्देश्य तो प्राप्त होने जा रहा था लेकिन आर्थिक व सामाजिक समता कहीं दूर तक भी दिखाई नहीं दे रही थी। उन्होंने नवनिर्मित संविधान को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के हाथों में दिया तो आग्रह किया था कि वे जितनी जल्दी संभव हो, नागरिकों के बीच आर्थिक व सामाजिक समता लाने के जतन करें, क्योंकि इस अंतर्विरोध की उम्र लम्बी होने पर उन्हें देश में उस लोकतंत्र के ही विफल हो जाने का अंदेशा सता रहा था, जिसके तहत ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की व्यवस्था को हरसंभव समानता तक ले जाया जाना था, ताकि संविधान के स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुता जैसे उदात्त मूल्यों को कभी कोई अंदेशा न पैदा हो।
वे मूल उद्योगों को सरकारी नियंत्रण में और निजी पूंजी को समता के बंधन में कैद रखना चाहते थे ताकि आर्थिक संसाधनों का ऐसा अहितकारी संकेन्द्रण कतई नहीं हो, जिससे नागरिकों का कोई समूह लगातार शक्तिशाली और कोई समूह लगातार निर्बल होता जाये।
आज संविधान दिवस के अवसर पर, जब कोई संविधान के मूल्यों की रक्षा को लेकर आशंकित हो रहा है, कोई उसकी समीक्षा पर जोर दे रहा और कोई उसके पुनर्लेखन की जरूरत जता रहा है, बेहतर होगा कि हम खुद को उस आईने के समक्ष खड़ा करें, जो दिखा सके कि हम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और बाबा साहब द्वारा अपने बनाये संविधान और उसके वारिसों के तौर पर हमसे की गई अपेक्षाओं पर कितने खरे उतरे हैं?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।