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कई आदिवासी समुदायों के अस्तित्व पर संकट

शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं से दूर

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पंकज चतुर्वेदी

झारखंड के विधानसभा चुनाव में संथाल क्षेत्र में आदिवासी आबादी कम होना बड़ा मुद्दा है। वास्तव में पूरे देश में ही प्रत्येक आदिवासी समुदाय की संख्या घट रही है। झारखंड की 70 फीसदी आबादी 33 आदिवासी समुदायों की है। यहां पिछले कई वर्षों से 10 ऐसी जनजातियां हैं, जिनकी आबादी बढ़ नहीं रही है। ये आदिवासी आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से कमजोर तो हैं ही, साथ ही इनके विलुप्त होने का खतरा भी है। ऐसा ही संकट बस्तर इलाके में भी है।

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देश भर की दो-तिहाई आदिवासी जनजाति मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, गुजरात और राजस्थान में रहती है, जिनकी आबादी लगातार कम होने के आंकड़े हैं। याद करना होगा कि अंडमान निकोबार और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में बीते चार दशकों में कई जनजातियां लुप्त हो गईं। एक जनजाति के साथ उसकी भाषा-बोली, मिथक, मान्यताएं, संस्कार, भोजन, आदिम ज्ञान सब कुछ लुप्त हो जाता है।

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झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या वर्ष 2011 में घटकर दो लाख 92 हजार रह गई। ये जनजातियां हैं— कंवर, बंजारा, बथुडी, बिझिया, कोल, गौरेत, कॉड, किसान, गोंड और कोरा। इसके अलावा माल्तो-पहाड़िया, बिरहोर, असुर, बैगा भी ऐसी जनजातियां हैं, जिनकी आबादी में लगातार गिरावट आ रही है। राज्य सरकार ने इन्हें पीवीजीटी श्रेणी में रखा है। एक बात आश्चर्यजनक है कि मुंडा, उरांव, संताल जैसे आदिवासी समुदाय जो कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर आगे आ गए, जिनका अपना मध्य वर्ग उभर कर आया, उनकी जनगणना में आंकड़े देश के जनगणना विस्तार के अनुरूप ही हैं। बस्तर में गौंड, दोरले, धुरबे आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा पिछड़ रहे हैं। कोरिया, सरगूजा, कांकेर, जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सभी जिलों में आदिवासी आबादी तेजी से घटी है।

आम आदिवासी की जितनी भी पुरानी कथाएं हैं, उनमें उनके सुदूर क्षेत्रों से पलायन और एकांतवास का मूल कारण है कि वे शांतिप्रिय तथा किसी से युद्ध नहीं चाहते थे। आज भी वे नक्सलवादी हिंसा और प्रतिहिंसा से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में पलायन करते रहे हैं। बस्तर के बासागुड़ को ही लें, एक शानदार बस्ती थी, तीन हजार की आबादी वाला। इधर सलवा जुड़ुम ने जोर मारा और उधर नक्सलियों ने हिंसा की तो आधी से ज्यादा आबादी भागकर तेलंगाना के चेरला के जंगलों में चली गई। अकेले सुकमा जिले से पुराने हिंसा दौर में पलायन किए 15 हजार परिवारों में से आधे भी नहीं लौटे। एक और भयावह बात है कि परिवार कल्याण के आंकड़े पूरे करने के लिए कई बार इन मजबूर लोगों को कुछ पैसे का लालच देकर नसबंदी कर दी जाती है।

मध्य प्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं, जिनकी आबादी डेढ़ करोड़ के आसपास है। यहां भी बड़े समूह तो प्रगति कर रहे हैं लेकिन कई आदिवासी समूह विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा (59.939 लाख) है। इसके बाद गोंड समुदाय की जनसंख्या 50.931 लाख, कोल आदिवासियों की जनसंख्या 11.676 लाख, कोरकू आदिवासियों की जनसंख्या 7.308 लाख और सहरिया आदिवासियों की आबादी 6.149 लाख है। इनकी जनसंख्या वृद्धि दर, बाल मृत्यु दर में कमी आदि में खासा सुधार है, लेकिन दूसरी तरफ बिरहुल या बिरहोर आदिवासी समुदाय की जनसंख्या केवल 52 है। कोंध समूह (मुख्यतः ओडिशा में रहने वाले) की जनसंख्या 109, परजा की जनसंख्या 137 और सौंता समूह की जनसंख्या 190 है। असल में इनका समुदाय बहुत छोटा है और इनके विवाह संबंध बहुत छोटे समूह में ही होते रहते हैं। अतः जैनेटिक कारणों से भी वंश-वृद्धि न होने की एक संभावना है।

देश की करीब 55 प्रतिशत आदिवासी आबादी अपने पारंपरिक आवास से बाहर निकलकर निवास कर रही है। किसानी या जंगल उत्पादों पर अपना जीवनयापन करने वाली जनजातियों के प्राकृतिक संसाधन कम हो गए, इसके चलते उनका पलायन हुआ। यह बात स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट ‘ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया’ में उजागर होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में आदिवासियों की कुल दस करोड़ चालीस लाख लगभग आबादी में से आधी से अधिक 809 आदिवासी बहुल क्षेत्रों से बाहर रहती है। रिपोर्ट में इस तथ्य के समर्थन में 2011 की जनगणना का हवाला दिया गया है। 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई।

वैज्ञानिक शोध पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी जनजाति के लोगों का औसतन जीवनकाल 63.9 वर्ष होता है, जो कि गैर-आदिवासी लोगों से तीन वर्ष कम होता है। इसका बड़ा कारण आदिवासियों के बीच बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। प्रत्येक आदिवासी समुदाय की अपनी ज्ञान-शृंखला है। एक समुदाय के विलुप्त होने के साथ ही उनका आयुर्वेद, पशु-स्वास्थ्य, मौसम, खेती आदि का सदियों नहीं हजारों साल पुराना ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। दुखद है कि हमारी सरकारी योजनाएं इन आदिवासियों की परंपराओं और उन्हें आदि-रूप में संरक्षित करने के बजाय उनका आधुनिकीकरण करने पर ज्यादा जोर देती हैं।

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