देश हो या विदेश, राजनीति इन दिनों विशुद्ध शक्ति प्रयोग करने की तैयारियां कर रही है, साम-दाम-दंड-भेद की नीति के अनुसार। जिसका उल्लेख बेशक आप नेता ने किया व पार्टी ने स्वीकारा लेकिन भाजपा की राजनीति में भी अपने नेताओं के लिए तय अनौपचारिक ‘कट-ऑफ तारीख’ को ठंडे बस्ते में डालना इस रणनीति पर अमल है। विदेशी मोर्चें पर, भारत के प्रति ट्रंप की खुन्नस व अमेरिकी टैरिफ भी शक्ति प्रदर्शन है।
यह मौसम साम, दाम, दंड, भेद का है- यह सूक्ति महान रणनीतिकार चाणक्य की दी हुई बताई जाती है, जिनके लिए कहा जाता है कि ईसा से तीन शताब्दी पूर्व, राजा नंद को हटाना और चंद्रगुप्त मौर्य को सत्ता में स्थापित करना, दोनों की रणनीति उन्होंने बनाई थी। मौर्य वंश का राज 135 वर्ष चला, और इसके राजाओं ने जिस कूटनीति पर अमल करके शासन चलाया, उसका अर्थ निकलता है ः ‘वार्ता, रिश्वत, दंड और कमज़ोरी खोजना’।
अवश्य ही यह श्रेय आम आदमी पार्टी नेता मनीष सिसोदिया को दिया जाए, जिन्होंने अगस्त की शुरुआत में इस मुहावरे को फिर से उभारा। इससे कुछ ही दिन पहले पंजाब की ‘आप’ सरकार ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना -लैंड पूलिंग नीति-जिसका मंतव्य राज्य में शहरीकरण को बढ़ावा देना था-वापस ले ली थी। हाईकोर्ट ने इस नीति पर सत्तारूढ़ दल को कड़ी फटकार लगाई थी। बदतर यह कि गुस्साए ग्रामीणों ने आप विधायकों को काले झंडे दिखाने शुरू कर दिए थे- वैसे ही जैसे पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान नाराज़ ग्रामीणों ने भाजपा उम्मीदवारों के साथ किया था। पार्टी में इससे घबराहट की लहर दौड़ गई।
तभी तो, अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जब सिसोदिया ने कहा ः ‘2027 का विधानसभा चुनाव जीतने के लिए, साम, दाम, दंड, भेद, सच, झूठ, सवाल, जवाब, लड़ाई, झगड़ा, जो भी करना पड़ेगा, करेंगे। बोलो तैयार हैं? जोश से बोलो!’ यानि 2027 चुनाव जीतने को जो भी हथकंडा अपनाना पड़े, उससे परहेज़ नहीं।
इससे राजनीतिक रूप से सख्त मिज़ाज परिदृश्य वाले इस इलाके में सिहरन सी दौड़ गई। इससे पहले किसने खुलेआम ऐसा कहा? भाजपा के सुनील जाखड़ ने चुनाव आयोग से चाणक्य के मंत्र को लेकर शिकायत की, लेकिन ‘आप’ प्रदेशाध्यक्ष अमन अरोड़ा ने इस तंज का जवाब देते हुए पूछा ः ‘क्या हर राजनीतिक दल अंदरखाते वही सब नहीं करता, जिसको ‘आप’ सरेआम करना कबूल कर रही है?’
अरोड़ा सही हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी को छोड़कर, जिनकी राजनीति आमतौर पर उन लोगों पर केंद्रित है जिनके मुद्दों से वे सर्वाधिक जुड़ाव महसूस कर रहे हैं - अत्यंत गरीब, सबसे पिछड़े और अति वंचित वर्ग, जैसे बिहार के कटिहार क्षेत्र के मखाना किसान, जहां से होकर उनकी ‘मतदान का अधिकार’ रैली हाल में गुज़री- देश हो या विदेश - राजनीति इन दिनों विशुद्ध सत्ता प्रयोग के लिए तैयारियां कर रही है।
मोहन भागवत और डोनाल्ड ट्रंप, दोनों का मामला यहां प्रासंगिक हैं। अगले माह 75 साल के होने जा रहे आरएसएस मुखिया ने बीते गुरुवार एक असामान्य प्रेस कॉन्फ्रेंस में कई दिलचस्प बिंदुओं पर बातें की - इसमें सबसे रोचक थी भाजपा की राजनीति में अनौपचारिक ‘कट-ऑफ तारीख’ (वानप्रस्थ तिथि) को लेकर, 75 वर्ष का होने पर नेता को ‘मार्गदर्शक मंडल’ नामक वृद्धाश्रम में भेज दिया जाता है- जैसे लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और नजमा हेपतुल्लाह के साथ हुआ था -लेकिन अब इस अघोषित नियम को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
इसका मतलब है, भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दोनों यथावत रहेंगे - मोदी भी सितंबर में 75 साल के हो जाएंगे। एक प्यारी सी लघुकथा आरएसएस नेता मोरोपंत पिंगले के बारे में है, जिन्हें अपने 75वें जन्मदिन पर शॉल भेंट कर ‘वानप्रस्थ’ भेज दिया गया था, उस हिसाब से अब वही होना चाहिए- लेकिन वह नियम अब आरएसएस अभिलेखागार में प्यारी सी लघुकथा बन दफन हो जाएगा।
मोहन भागवत जानते हैं कि आरएसएस का प्रभाव बढ़ाने के लिए, खासकर उसकी स्थापना के 100वें वर्ष में, मोदी से ज़्यादा काम किसी ने नहीं किया। यदि भाजपा अध्यक्ष के नाम पर उनके साथ कोई मतभेद रहा भी होगा, जिसपर नियुक्ति एक साल से ज़्यादा से लंबित है, उसे जल्द सुलझा लिया जाएगा- आरएसएस प्रमुख ने इतना तो स्वीकार किया - वह भी मोदी के पक्ष में होगा।
डोनाल्ड ट्रंप भी कुछ अलग नहीं । महज पांच साल पहले तक प्रधानमंत्री के सबसे अच्छे दोस्त रहे ट्रंप और उनके सलाहकारों ने अब मोदी और भारत पर हमला करने का बीड़ा उठा लिया। जैसा कि फ्रांस में राजदूत रहे जावेद अशरफ ने भी इस अखबार के टिप्पणी पृष्ठ पर छपे अपने लेख में समझाया था, भारत के प्रति ट्रंप की खुन्नस दरअसल उनका विशुद्ध शक्ति प्रदर्शन है। ट्रंप चाहते हैं कि दुनिया को तीन बड़े देश चलाएं- अमेरिका, चीन और रूस। उन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आ रही कि भारत जैसा देश उनके आगे झुकने से क्यों और कैसे इनकार कर सकता है। इसलिए वे भारत को झुकने से इन्कार करने की सज़ा दे रहे हैं।
ट्रंप एवं मंडली को भारत की मानसिकता की समझ कम ही है। यूक्रेन युद्ध का दोष मोदी पर मढ़कर (इसे ‘मोदी का युद्ध’ बताकर), जो एक वाहियात आरोप है, वे देश को मोदी के पीछे एकजुट करने में कामयाब रहे हैं, जो प्रधानमंत्री के रूप में उनके 11 वर्षों में पहले कभी नहीं हुआ। बदलाव के तौर पर,’विदेशी शक्ति का हाथ सिद्धांत’, जिसका अनुमोदन इंदिरा गांधी से मोदी तक, कई प्रधानमंत्रियों ने किया, सच निकला– सिवाय इसके कि यह ‘विदेशी हाथ’ बेहुदा है।
मई में हुए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में भारत-पाक युद्धविराम की मध्यस्थता का श्रेय लेने के अमेरिकी दावे पर मुहर लगाने से मोदी का इनकार - वही है जो एक राष्ट्र अपनी प्रतिष्ठा बचाने को करेगा। संयम, ही आपका सबसे बड़ा हथियार होगा। कभी महात्मा गांधी ने इसका इस्तेमाल दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के खिलाफ किया था, अब मोदी इसका उपयोग सबसे दुर्जेय शक्ति के खिलाफ कर रहे हैं।
यही कारण है कि नये समझौते की आस रखे बिना मोदी तिआनजिन में ड्रैगन (चीन) की मांद में गयेे हैं। चीनी और भारतीय सैनिक और उनकी बख्तरबंद टुकड़ियां पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार आमने-सामने तैनात हैं - लेकिन मोदी पहले ही जीत चुके हैं। उन्होंने अमेरिकियों के सामने झुकने से इनकार कर दिया, जबकि उनके अधिकारी वाशिंगटन में अपने समकक्षों से विनम्रतापूर्वक समझौते का प्रस्ताव रख रहे हैं। मोदी के सहयोगियों ने व्लादिमीर पुतिन से भी मुलाकात की, जोकि आपसी संबंधों की पुनः पुष्टि है। यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार संधि पर नए सिरे से ध्यान दिया जा रहा है। साम, दाम, दंड, भेद!
मोदी के स्वदेश लौटने के बाद, कड़ी मेहनत शुरू होगी -एक तरफ भारत-अमेरिका संबंधों को कैसे सुधारा जाए तो दूसरी तरफ चीन-भारत संबंधों में कैसे सुधार लाया जाए। अमेरिकी इतने शक्तिशाली हैं कि आप उन्हें एक हद से आगे नाराज़ नहीं कर सकते - भारत यह जानता है। डोनाल्ड ट्रंप को शांत करने के लिए भारतीयों को हरेक चतुराई और अनुकूल दिखने की ज़रूरत होगी, जिसमें वे माहिर हैं।
जहां तक मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी की बात है, भाजपा खुश होगी कि अपनी राजनीति को नए सिरे से गढ़ने की प्रक्रिया में वे एक लंबा खेल खेल रहे हैं - जिसमें मखाने के खेतों से बेदखल लाभार्थी भी शामिल हैं। लगातार तीन आम चुनाव और कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हारने के बाद, राहुल की अग्निपरीक्षा सामने है। अगर बिहार में कांग्रेस-राजद गठबंधन नाकाम रहता है, तो नाखुश कांग्रेसी दबी जुबान पूछेंगे कि एक जीत पाने से पहले पार्टी को कितने चुनाव हारने पड़ेंगे? पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) खुद को दूध का धुला दिखाने का प्रपंच नहीं कर रही। इसीलिए, लैंड पूलिंग नीति वापस लिए जाने के बाद, अपनी सत्ता वाले एकमात्र राज्य में, वह बाढ़ प्रभावितों की मदद के हर संभव प्रयास कर रही है। वे जानते हैं कि केंद्र के विभिन्न फरमान - बेहद कम दाम पर गेहूं पाने वाले 1.53 करोड़ लाभार्थियों को बाहर करना और प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि और आयुष्मान भारत जैसी केंद्रीय योजनाओं को बढ़ावा देना- राज्य में भाजपा के प्रभाव को बढ़ाने का बहाना और ढंग है। कुल मिलाकर, इन योजनाओं को बढ़ावा देने वाले खेमे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।
साम, दाम, दंड, भेद- स्पष्ट रूप से चाणक्य के अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत इन दिनों मशहूर है, ऐसा अवश्य पठनीय उपन्यास, जिसके समक्ष मैक्यावली के बताए तरीके बच्चों का खेल लगते हैं।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।