Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

सीमांत गांवों के विकास से टूटेंगे चीन के मंसूबे

ले. जनरल प्रदीप बाली (अ.प्रा.) इतिहास को मनमाफिक गढ़ना और भौगोलिक हकीकतों से छेड़छाड़ चीन की प्रवृत्ति रही है। यह उसकी आधिपत्यवादी प्रवृत्ति और मंसूबों को सुहाता है। इसके लिए, उसे वास्तविकता से परे के तथ्यों को गढ़ने की जरूरत...
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement
ले. जनरल प्रदीप बाली (अ.प्रा.)

इतिहास को मनमाफिक गढ़ना और भौगोलिक हकीकतों से छेड़छाड़ चीन की प्रवृत्ति रही है। यह उसकी आधिपत्यवादी प्रवृत्ति और मंसूबों को सुहाता है। इसके लिए, उसे वास्तविकता से परे के तथ्यों को गढ़ने की जरूरत पड़ती है। चीन अक्सर भारतीय भूमि के कई हिस्सों पर अपना दावा ठोकता आया है, पिछले कई सालों से अक्सर अरुणाचल प्रदेश में बस्तियों और भूभाग का नाम बदलने में उसे खुशी महसूस होती है। चीनी नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने 2017 में गढ़े नामों की पहली सूची जारी की थी, जिसमें छह जगहों का जिक्र था। फिर 15 नये नामों वाली दूसरी सूची 2021 में आई, 2023 की सूची में 11 जगहों का नाम बदला हुआ था। भौगोलिक नाम बदलने के इस खेल में चौथी और नवीनतम सूची 1 अप्रैल, 2024 को जारी की गई है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश की 30 और जगहें शामिल की गई हैं। खुद अरुणाचल प्रदेश का नाम चीनियों ने ‘ज़गनान’ रखा हुआ है। उम्मीद के मुताबिक भारत ने कड़े प्रतिरोध के साथ इस नौटंकी को खारिज किया है।

इस कृत्य के समांतर वास्तविक नियंत्रण रेखा के उत्तर में सीमांत इलाकों को विकसित करने की आड़ में चीन शियाओकांग नामक रिहायशी बस्तियां समूची सीमा रेखा के ठीक बगल में स्थापित कर रहा है। पिछले सालों में लगभग 600 ऐसे गांव बसाए जा चुके हैं और ‘विकास कार्यक्रम’ के तहत और 175 बस्तियां बनाने की योजना है। बिना शक यह सारी प्रक्रिया चीन के इलाकाई दावों को पुष्ट करने और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का अतिरिक्त सहायता तंत्र बनाने के मकसद से है। यहां चीन ‘कानूनी रणनीति’ का कपटी खेल भी खेल रहा है। भारत के साथ ‘सीमा रक्षा सहयोग संधि-2005’ के मुताबिक जब कभी वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा की निशानदेही होगी तो पूर्व-स्थापित आबादियों को नहीं छेड़ा जाएगा।

Advertisement

चीनी रणनीति का यह रंग-ढंग अन्य मुल्कों से सीमा विवादों में भी झलकता है। जापान प्रशासित सेन्काकु द्वीप को दियाओऊ नाम देकर, चीन उसे अपना हिस्सा बताने का दावा करता आया है। सर्वविदित है कि चीन की तथाकथित ‘नौ-बिंदु सीमारेखा’ समस्त दक्षिणी चीन सागर में उसके इलाकाई दावों को मजबूत बनाने का एक पैंतरा है। यह अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है, खासकर ‘संयुक्त राष्ट्र सागरीय कानून अधिवेशन’ के प्रावधानों का। दावेदारी की यह रेखा ब्रुनेई के विशेष निर्यात क्षेत्र, इंडोनेशिया, फिलीपींस, ताईवान और वियतनाम के इलाकों का अतिक्रमण करती है। चीन समुद्र में कंक्रीट डालकर छोटे द्वीपों और उभरी चट्टानों को बड़े टापुओं में तब्दील कर रहा है। इन मानव-निर्मित भौगोलिक द्वीपों का निर्माण करने के पीछे उद्देश्य है सैन्य लाभ सुदृढ़ करना और अपने पड़ोसियों को जताना कि भिड़ने पर भविष्य में क्या हो सकता है।

भौगोलिक और ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की छूट लेने की उसकी यह प्रवृत्ति भूटान में 2017 में स्पष्ट जाहिर हुई, जब चीन की पीएलए ने डोकलाम पठार को झम्पेरी रिज तक कब्जाने का यत्न किया। इसने भारत को क्रोधित किया क्योंकि यह अतिक्रमण हमारी रक्षा संबंधी चिंताओं को बढ़ाता है। तभी भारतीय सेना को यह कब्जा आमने-सामने के टकराव से िफल करना पड़ा।

किसी इलाके का अतिक्रमण कर उसका ‘बधियाकरण’ करने का एक उदाहरण तिब्बत है, जिसे चीन ने 1951 ने कब्जाया था और 1959 में पूर्ण नियंत्रण बना लिया। चीनी शासकों ने दिखावे को ‘तिब्बत सार्वभौमिक क्षेत्र’ की स्थापना की है, जिसे आमतौर पर ‘राजनीतिक तिब्बत’ कहा जाता है और इसका क्षेत्रफल शेष तिब्बत से कहीं छोटा है। ऐतिहासिक रूप से, जनजातीय तिब्बत में तीन मुख्य इलाके हैं- यूत्सांग, खाम और अम्दो। वर्ष 1955 में अम्दो का विलय किंगहाई प्रांत में कर दिया और 1957 में खाम कोगांज़े सार्वभौमिक प्रदेश के साथ मिला दिया गया। इसी प्रकार तिब्बत के बाकी जनजातीय इलाकों का विलय गनसू और युनान प्रांतों में कर डाला। वास्तव में, मूल तिब्बत राज्य में अब सिर्फ यू-त्सांग क्षेत्र ही ‘राजनीतिक तिब्बत’ है। वर्ष 1911 और 1951 के बीच, तिब्बत चीनी गणतंत्र के मंसूबों से कमोबेश मुक्त रहा। अम्दो में 14वें दलाईलामा का जन्म हुआ और उनके अंगरक्षक खाम इलाके से हैं, जिन्हें तिब्बतियों की लड़ाकू जाति के तौर पर जाना जाता है।

चीन ने साथ लगते और बहुत ज्यादा जनसंख्या के बोझ तले दबे हान प्रांत से चीनी मूल के लोगों को तिब्बत के विभिन्न हिस्सों में बसाकर अंदरूनी जनसंख्या स्थानांतरण करवाया है। अधिकांश सीमांत गांव समूची वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा के ठीक साथ सटाकर बनाए गए हैं, जिनमें लगभग सभी ‘हान’ हैं। इन चीनी प्रवासियों को वहां बसने-रहने की एवज़ में काफी आर्थिक लाभ दिए जाते हैं–और तिब्बत का जातीय स्वरूप बदलने में यह मुख्य अवयव है।

चीन की धूर्त रणनीति के जवाब में भारत की प्रतिक्रिया बेपरवाही से लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने तक ही रही है। नाम बदलने के नवीनतम खेल पर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की प्रतिक्रिया बेहद सधी रही। 9 अप्रैल को पूरबी अरुणाचल प्रदेश में एक जनसभा में उन्होंने कहा : ‘मैं अपने पड़ोसी को बताना चाहता हूं कि नाम बदलने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। कल को यदि हम चीन के राज्यों का नाम बदल दें तो क्या वह उन्हें हमें सौंप देगा?’ चीन से हमारे सीमा संबंधी मुद्दे द्विपक्षीय चिंताओं वाले रहे हैं। तथापि, पिछले कुछ समय से, अमेरिका भारत की पीठ पर हाथ रख रहा है। भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने हाल ही में बयान दिया : ‘भारत के इलाकों का नाम बदलना चीन का काम नहीं है और वे भारतीय भूभाग का हिस्सा हैं’, यह स्वागतयोग्य कदम है। पूरब में देखें तो शंघाई सहयोग संगठन में चीन के विकृत दावों ने तीखी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया पैदा की है। चाहे यह क्वाड संघ हो (जिसमें भारत सहित अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान हैं) या ऑस्ट्रेलिया, यूके एवं अमेरिका से बना ऑकस संघ या फिर अमेरिका, जापान, फिलीपींस का त्रिकोणीय गुट, इन सबका ध्यान शंघाई सहयोग संगठन की बैठकों में चीनी मंसूबों का विरोध कर वैधानिक विश्व-व्यवस्था बनाने पर केंद्रित है।

भारत को चीन द्वारा ऐतिहासिक-भौगोलिक तथ्यों से छेड़छाड़ के प्रयासों का प्रत्युत्तर शिद्दत और निरंतरता से देने की जरूरत है। हमें इन मुद्दों को मजबूती से उठाना होगा और चीनी दावों के विरोध में लिखित प्रतिरोध करना होगा। वर्ना उन्हें तथ्य के तौर पर स्वीकार कर लिया जाएगा। सीमावर्ती इलाके में हमारी तरफ की भौगोलिकता अत्यधिक दुरूह है और भूभाग अधिकांशतः तीखा पर्वतीय या घना जंगल है। यह हाल ठीक वास्तविक नियंत्रण रेखा तक है। अपने इलाके में हमें बुनियादी ढांचा विकसित करने का काम निरंतर जारी रखना होगा। सीमा सड़क संगठन इस चुनौती से पार पाने में प्रयासरत है। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में सेला सुरंग का उद्घाटन भारत की वास्तविक नियंत्रण सीमा रेखा को लेकर तैयारियों को बल देगा। हालांकि यह काम बहुत विशाल स्तर का है और हमें तीखी ऊंचाइयों पर काम करने की सामर्थ्य बढ़ानी होगी।

लोगों का सीमांत इलाके से पलायन रोकने को हमें सीमा पर गांव बसाने को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। इसके लिए आर्थिक लाभ की पेशकश और तेज गति की संचार व्यवस्था बनाना पहला कदम है। जहां सेना इन कामों में मददगार हो सकती है, वहीं इस सबके लिए नीतियां बनाना राजनीतिक नेतृत्व का कार्यक्षेत्र है। सबसे ऊपर, जो भारतीय नागरिक सीमावर्ती इलाके में बसे हैं उनकी संवेदनशीलता को सदा ज़हन में रखना आवश्यक है।

लेखक सैन्य मामलों के स्तंभकार हैं।

Advertisement
×