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सरकार के दो पहियों का बिगड़ता संतुलन

राज्यनामा : मध्यप्रदेश
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हर सरकार दो पहियों पर चलती है। एक पहिया होता है जनप्रतिनिधियों का, जिन्हें जनता चुनकर भेजती है और दूसरा पहिया है अफसरों का जो सरकार के निर्देशों के अनुरूप कार्य करते हैं। जब भी ये सामंजस्य बिगड़ता है, सरकार की गति धीमी पड़ती है। मध्यप्रदेश में इन दिनों कुछ इसी तरह का माहौल बन रहा है।

राजनीति में ऐसा कम ही देखा गया कि अफसरशाही का मिजाज मंत्रियों और नेताओं पर हावी हो जाए। सामान्यतः ऐसा होता भी नहीं है। क्योंकि, जो राजनीतिक पार्टी सरकार में होती है, उसके नेताओं की बातों को अफसर भी गंभीरता से लेते हैं। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था भी कुछ ऐसी है, जिसमें सामंजस्य का खास ख्याल रखा जाता है। सरकार के मंत्री यदि अफसरों को कोई सुझाव देते हैं या जनहित के किसी काम के निर्देश देते हैं, तो अफसर उसे गंभीरता से लेते हैं और यही स्वाभाविक परंपरा भी है। अब तक यही होता भी आया है। पर, मध्यप्रदेश में पिछले कुछ दिनों से यह तालमेल गड़बड़ा रहा है। कई मंत्रियों और विधायकों को शिकायत है कि उनकी बातों की अनसुनी हो रही है। यदि ऐसी चंद घटनाएं होती, तो उनकाे अनदेखा किया जा सकता था। लेकिन, जब ऐसा लगातार होने लगा तो यह विरोध रिस कर बाहर आने लगता।

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सामान्यतः मध्य प्रदेश में ऐसी राजनीतिक स्थिति नहीं होती। कभी इक्का-दुक्का घटना होती भी है, तो वह जन चर्चा का विषय नहीं बनती। किंतु, पिछले कुछ महीनों में कई मंत्रियों की अफसरों के खिलाफ भृकुटी तनी दिखाई देने लगी। अभी डॉ मोहन यादव की सरकार को दो साल ही हुए हैं। ऐसे में सत्ता और प्रशासन में बढ़ती खींचतान सरकार की गति को प्रभावित कर सकती है। जबकि, पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के 18 साल के कार्यकाल में ऐसा माहौल नहीं दिखाई दिया। सवाल उठता है कि अब दृश्य बदला क्यों! अफसरों के मंत्रियों के फोन न उठाने, बैठकों में न आने और काम की बातों को अनसुनी करने की शिकायत लगातार सामने आने लगी। सबसे ज्यादा अव्यवस्था हाल ही में किसानों को खाद वितरण के मामले में देखी गई। क्योंकि, इस काम में कई जगह अव्यवस्था हुई और यहां तक कि किसानों पर लाठियां भी बरसाई गई।

इस मुद्दे पर अधिकांश जगह मंत्रियों और विधायकों का अफसरों से टकराव हुआ। शिकायतें मुख्यमंत्री तक पहुंचीं और विपक्ष ने भी अफसरों की मनमानी पर निशाना साधा। खाद वितरण का सही इंतजाम न होने और किसानों की नाराजगी सामने आने के बाद भिंड कलेक्टर और वहां के विधायक के बीच सार्वजनिक रूप से कहासुनी हुई। मामला इतना बिगड़ गया कि सोशल मीडिया पर इसके वीडियो वायरल हुए। निश्चित रूप से यह स्थिति न तो सरकार के लिए उचित है न अफसरों के लिए। दोनों के बीच मामला शांत करने के लिए सुरक्षाकर्मियों को उतरना पड़ा था। बाद में दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ थाने में भी शिकायत लिखवाई। उसके बाद जो हुआ, वो अलग बात है, पर इससे निश्चित रूप से सरकार की छवि भी प्रभावित हुई और अफसरों ने भी इस मुद्दे को गंभीरता से लिया।

इन हालात के लिए दोनों पक्षों की तरफ से अलग-अलग तरह की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। सत्ता के पक्षधरों का कहना है कि प्रदेश में अफसरशाही बेलगाम होने लगी, वे मंत्रियों की बात नहीं सुनते और विधायकों को तो बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते। जबकि, अफसरशाही को सही मानने वालों का तर्क है कि अब नेता ज्यादा उच्छृंखल होने लगे। वे अपनी हर बात मनवाने की जिद करते हैं, फिर भी तार्किक रूप से सही हो या नहीं। अफसरों का यह भी कहना है कि मंत्रियों की हर जिद को स्वीकार करना संभव नहीं होता। देखा जाए तो दोनों अपनी जगह सही भी हैं और नहीं भी! क्योंकि, मंत्रियों को अपने समर्थकों को खुश करने के लिए कई बार उनकी ऐसी बातों को भी तवज्जो देना पड़ती है, जो प्रशासनिक रूप से सही नहीं होती। जब कोई अफसर ऐसे में मंत्री या विधायक की उन बातों पर नकारात्मक टिप्पणी करते हैं, तो वो विवाद खड़ा होता है। हाल ही में ज्यादातर ऐसी ही घटनाएं तनातनी का कारण भी बनीं।

बीते दो सालों में मध्य प्रदेश की मोहन यादव सरकार को किसी बड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन, जिस तरह प्रदेश में सरकार के दो घटकों में रस्साकशी की बात होने लगी, सरकार की कमजोरी नजर आई है। सरकार के कई मंत्री अफसरों के बेलगाम होने और काम नहीं सुनने की शिकायत सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं। जबकि, सरकार और संगठन में विधायकों की नाराजगी और सामंजस्य के लिए इंतजाम हैं। अधिकांश जिलों में प्रभारी मंत्री हैं और समन्वय के लिए सत्ता व संगठन के बीच व्यवस्था है। इसके बाद भी अफसरों की विधायकों और मंत्रियों से भिड़ंत अपने आपमें नई बात है। ग्वालियर से जुड़े एक मंत्री ने भी मुख्यमंत्री से अपने इलाके के अफसरों की मुख्यमंत्री से शिकायत की है। उनकी शिकायत भी फोन नहीं उठाने, बैठकों की जानकारी नहीं देने जैसी बातें हैं। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि शायद मुख्यमंत्री की सदाशयता को अफसरों ने अलग नजरिए से लिया है।

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