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रोजगार आंकड़ों के पीछे छिपे अंधेरे की हो पड़ताल

बेरोजगारी का संकट

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सुरेश सेठ

आम लोग जिन मूल समस्याओं से दशकों से जूझ रहे हैं, उनके समाधान का संकल्प नेताओं द्वारा बार-बार लिया जाता है। बावजूद इसके, समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर लाने की बात केंद्र हो या राज्य सरकार, इसे अपनी प्राथमिकता बताता है। फिर भी, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के प्रयास विफल साबित हुए हैं।

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देश में भूख मिटाने के दावे किए जाते हैं, लेकिन दुनिया के हंगर इंडेक्स में हमारा दर्जा अभी भी निचले पायदान पर है। सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है। लेकिन रोजगार के नाम पर उनके सामने केवल अनुकंपों का ही बोझ लादा जाता है। लेकिन रोजगार की गारंटी उनके लिए अनुपलब्ध रहती है।

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आज छात्रों को जो शिक्षा शिक्षण संस्थानों से प्राप्त होती है, वह आज के डिजिटल और कृत्रिम मेधा के युग में पूरी तरह से असंबद्ध प्रतीत होती है। उनकी डिग्रियां नई तकनीक और डिजिटल श्रेणियों के सामने कोई मूल्य नहीं रखतीं। जहां कृत्रिम मेधा और इंटरनेट जैसी नई तकनीकों के कारण नौकरियां उत्पन्न हो रही हैं, वहां हमारे नौजवानों के पास उचित शिक्षण और प्रशिक्षण की कमी है।

इसके परिणामस्वरूप, छोटी नौकरियों के लिए भी हजारों पढ़े-लिखे युवा अपनी पुरानी डिग्रियों को बेकार पाते हैं। नौकरी के लिए भेजे गए उनके आवेदन पत्रों का कोई सार्थक उत्तर नहीं मिलता। दूसरी ओर, बदलती दुनिया में रोबोट तकनीक, इंटरनेट की नई उड़ान और कृत्रिम मेधा का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। लेकिन इन बदलावों के लिए हमारे नौजवान योग्य नहीं हैं, क्योंकि उन्हें इस नई तकनीकी दुनिया के अनुकूल शिक्षण और प्रशिक्षण नहीं दिया गया।

संसद के शीतकालीन सत्र की परिणति भी पूर्ववर्ती सत्रों जैसी ही प्रतीत होती है—विपक्ष के हंगामे और कोलाहल के बीच उनकी मांगों को नजरअंदाज कर काम न चलने देने के आरोप लग रहे हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच ऐसा द्वंद्व युद्ध, जिसमें कुछ भी सार्थक नहीं होता। हर सत्र में यह स्थिति दोहराई जाती है। कोई यह सवाल नहीं उठाता कि बेरोजगारी को समाप्त किया जाए, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जाए या लालफीताशाही और दफ्तरी जटिलताओं से आम आदमी को राहत दी जाए। आम आदमी वैश्विक खुशहाली के पायदान पर बहुत निचले दर्जे में दर्ज है। हालांकि, सरकारी आंकड़े इसका उल्टा बताते हैं। सरकारी दावे हैं कि बेरोजगारी की दर लगातार कम हो रही है। लेकिन ये आंकड़े वास्तविकता को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।

सरकारों द्वारा निर्धारित रोजगार के मानकों से वास्तविक बेरोजगारी के आंकड़े प्रभावित होते हैं। यही वजह है कि नौकरी की तलाश के लिए कई बार सरकारी रियायतें और अनुकंपा योजनाओं का सहारा लिया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि धीरे-धीरे देश में शॉर्टकट और मुफ्तखोरी की संस्कृति पनपने लगी है।

सरकार का दावा है कि रोजगार कार्यालयों की खिड़कियों पर नौकरी मांगने वालों की संख्या घट गई है, जिसका अर्थ यह है कि बेरोजगारी की समस्या किसी हद तक कम हुई है। नौकरी मांगने वालों की संख्या भले ही घट गई हो, लेकिन रियायत बांटने वाले केंद्रों पर उनकी संख्या बढ़ गई है। वहां इनकी कतारें लगातार लंबी होती जा रही हैं।

चुनावों के दौरान सत्तारूढ़ दल हो या विपक्ष, उनके घोषणापत्रों में सबसे बड़ा मुद्दा यह होता है कि कौन अधिक से अधिक अनुकंपा योजनाएं ला सकता है। बेरोजागरी के आंकड़ों के बीच पूरे देश में कई सरकारी पद खाली पड़े हैं। इन पदों को भर्ती परीक्षाओं के माध्यम से भरा जाता है। परंतु भर्ती परीक्षाओं की स्थिति भी चिंता का विषय है। पेपर लीक और परीक्षार्थियों की शिकायतें संकेत करती हैं कि योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। आंकड़े बताते हैं कि पिछले छह वर्षों में 18 राज्यों में 60 से अधिक भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक हुए।

अब देश में गिग अर्थव्यवस्था का भी सूत्रपात हो रहा है। इसमें किसी विशेष कार्य के लिए अस्थायी कर्मचारियों की भर्ती की जाती है, जिन्हें कुछ समय बाद नौकरी से निकाल दिया जाता है। वहीं वर्क फ्रॉम होम स्वरोजगार को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। हालांकि, यह भी सच है कि ऐसे स्वरोजगार करने वाले लोगों की संख्या सीमित है।

निजी क्षेत्र में नौकरी करने वाले कर्मचारी वेतन और अन्य सुविधाओं के मामले में बहुत दयनीय स्थिति में हैं। देश की आधी महिलाएं घरेलू कार्यों में लगी हुई हैं, और कई नौजवान पुश्तैनी खेती में ही अपना समय बिता रहे हैं। लेकिन उन्हें कोई अतिरिक्त वेतन नहीं मिलता। देश में करीब 58 प्रतिशत लोग स्वरोजगार या छुपे बेरोजगार हैं, जबकि नौकरीपेशा केवल 22 प्रतिशत हैं।

इस प्रकार, देश में बेरोजगारी की समस्या का सही समझना और समाधान करना बहुत कठिन है। आंकड़ों की बाजीगरी समस्या का समाधान नहीं होगा। आंकड़ों के पीछे छिपे अंधेरे की पड़ताल हो।

लेखक साहित्यकार हैं।

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