संसदीय सीटों के परिसीमन के यक्ष प्रश्न
दक्षिणी राजनेताओं का तर्क है कि परिसीमन से राष्ट्रीय मंच पर उनकी आवाज़ और उपस्थिति कम होगी। उन्हें आर्थिक और सामाजिक-विकास का पुरस्कार मिलने के बजाय सज़ा मिलेगी। निस्संदेह, देश के विकास में क्षेत्रीय-असंतुलन के ऐतिहासिक-कारणों को समझते हुए भविष्य...
दक्षिणी राजनेताओं का तर्क है कि परिसीमन से राष्ट्रीय मंच पर उनकी आवाज़ और उपस्थिति कम होगी। उन्हें आर्थिक और सामाजिक-विकास का पुरस्कार मिलने के बजाय सज़ा मिलेगी। निस्संदेह, देश के विकास में क्षेत्रीय-असंतुलन के ऐतिहासिक-कारणों को समझते हुए भविष्य की संभावनाओं को भी देखना होगा।
प्रमोद जोशी
केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से देश के राजनेताओं और विश्लेषकों के एक तबके ने दो-तीन बातों पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है। वे कहते हैं कि भारत में संविधान खतरे में है, लोकतंत्र विफल हो रहा है और यह भी कि लोकतंत्र का मतलब चुनाव जीतना भर नहीं होता। लोकतंत्र ही नहीं, संघवाद को भी खतरे में बताया जा रहा है। बीजेपी के हिंदू-राष्ट्रवाद की अतिशय केंद्रीय-सत्ता को लेकर भी उनकी आपत्तियां हैं।
इधर तमिलनाडु से हिंदी-साम्राज्यवाद को लेकर बहस फिर से शुरू हुई है, जिसमें संसदीय-सीटों के परिसीमन को लेकर आपत्तियां भी शामिल हैं। दक्षिण के नेताओं का तर्क है कि यदि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होगा, तब दक्षिण के राज्य नुकसान में रहेंगे, जबकि जनसंख्या-नियंत्रण में उनका योगदान उत्तर के राज्यों से बेहतर रहा है। उनका सुझाव है कि संसदीय परिसीमन में संघवाद के मूल्यों का अनुपालन होना चाहिए।
परिसीमन से जुड़े इन्हीं सवालों को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 5 मार्च को चेन्नई में सर्वदलीय बैठक बुलाई है। उन्होंने कहा- तमिलनाडु अपने अधिकारों के लिए बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर है। परिसीमन का खतरा दक्षिणी राज्यों पर डैमोक्लीज़ की तलवार की तरह मंडरा रहा है। मानव विकास सूचकांक में अग्रणी तमिलनाडु के सामने गंभीर खतरा खड़ा है।
उनका यह भी कहना है कि अभी तमिलनाडु में 39 लोकसभा सीटें हैं। परिसीमन की प्रक्रिया से इनकी संख्या घटकर 31 रह जाने की संभावना है। बात सिर्फ़ संख्या में कमी की नहीं है, यह हमारे अधिकारों का मामला है। स्टालिन के इस बयान के फौरन बाद गृहमंत्री अमित शाह ने कहा परिसीमन के बाद दक्षिणी राज्यों को ‘एक भी सीट’ नहीं गंवानी पड़ेगी। उन्होंने तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों की लंबे समय से चली आ रही इस आशंका को दूर करने का प्रयास किया कि यदि नवीनतम जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर परिसीमन किया गया तो संसद में उनका प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा।
हालांकि इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए परिसीमन आयोग का गठन करना होगा, पर आज जो बातें हो रही हैं, वे कयासों और अटकलों पर आधारित हैं। संविधान के अनुच्छेद 82 और 170 में प्रावधान है कि प्रत्येक जनगणना के बाद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों की संख्या और प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में इसके विभाजन को फिर से समायोजित किया जाएगा। यह ‘परिसीमन प्रक्रिया’ संसद के एक अधिनियम के तहत गठित ‘परिसीमन आयोग’ द्वारा की जाती है।
इस तरह की कवायद 1951, 1961 और 1971 की जनगणना के बाद की गई थी। इसमें इन सदनों में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित सीटों का निर्धारण भी शामिल है। वर्ष 1951, 1961 और 1971 की जनगणना के आधार पर लोकसभा में सीटों की संख्या 494, 522 और 543 तय की गई थी, जब जनसंख्या क्रमशः 36.1, 43.9 और 54.8 करोड़ थी। इसका मोटे तौर पर मतलब है कि प्रत्येक सीट पर औसतन क्रमशः 7.3, 8.4 और 10.1 लाख आबादी थी।
जनसंख्या-नियंत्रण को बढ़ावा देने के लिए 1971 की जनगणना के बाद से इसे स्थिर रखा गया है ताकि अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों में सीटों की संख्या अधिक न हो। यह कार्य 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से पहले वर्ष 2000 तक के लिए किया गया था। फिर 84वें संशोधन अधिनियम द्वारा 2026 तक बढ़ा दिया गया था। अभी जिस जनसंख्या के आधार पर सीटों की संख्या तय है, वह 1971 की जनगणना के अनुसार है। 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर इस संख्या को फिर से समायोजित किया जाएगा। अभी लगता नहीं कि 2026 के पहले वह जनगणना हो भी पाएगी या नहीं, जिसे 2021 में होना था। यह देखते हुए कि विधायिका में महिलाओं का आरक्षण भी जनगणना और परिसीमन से जुड़ा हुआ है, इसमें देरी दिक्कत पैदा करेगी।
राज्यों में भी जनसंख्या वृद्धि में समतुल्यता के लिए सीटों की संख्या को 1971 की जनगणना के अनुरूप फ़्रीज़ कर दिया गया है। 84वें संविधान संशोधन ने प्रावधान किया था कि परिसीमन की कवायद साल 2026 के बाद पहली जनगणना पर आधारित होगी। बहरहाल, पहले इस बात पर विचार करना होगा कि परिसीमन की नई प्रक्रिया में केवल राज्य की जनसंख्या का आनुपातिक प्रतिनिधित्व होगा या नहीं। आनुपातिक संख्या पर नज़र डालें, तो तमिलनाडु की यह चिंता जायज़ है। थोड़ी देर के लिए तमिलनाडु और अविभाजित बिहार की जनसंख्या की वृद्धि दरों (1971-2024) में अंतर देखा जा सकता है।
मतदाताओं की संख्या के जो नवीनतम अनुमानित आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके अनुसार अविभाजित बिहार में 233 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि तमिलनाडु में 171 फीसदी। 1971 की जनगणना के आधार पर 1977 की लोकसभा में भारत के प्रत्येक सांसद ने औसतन 10.11 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व किया। इसी औसत को आज की अनुमानित जनसंख्या के आधार पर रखेंगे, तो लोकसभा सदस्यों की संख्या करीब 1,400 हो जाएगी। ऐसी स्थिति में यूपी (उत्तराखंड सहित) की सीटें करीब तिगुनी हो जाएंगी, अर्थात 250 तक और बिहार (झारखंड सहित) में 169 हो जाएगी। तमिलनाडु की वर्तमान 39 से बढ़कर 76 और केरल में 20 से बढ़कर 36 होंगी। पर यह औसत अब काम नहीं करेगा। नए संसद भवन में लोकसभा की 888 सीटें हैं, इसलिए यह फॉर्मूला भी बदलेगा। यह औसत 15 लाख होगा या 20 लाख या कुछ और।
दक्षिणी राजनीति का तर्क है कि परिसीमन से राष्ट्रीय मंच पर उनकी आवाज़ और उपस्थिति कम होगी। उन्हें आर्थिक और सामाजिक-विकास का पुरस्कार मिलने के बजाय सज़ा मिलेगी। यह तर्क गलत नहीं है, पर देश के विकास में क्षेत्रीय असंतुलन के ऐतिहासिक कारणों को भी समझना होगा और भविष्य की संभावनाओं को भी देखना होगा। दक्षिण के राज्यों की लाभकारी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए वहां पूंजी-निवेश बेहतर हुआ है। यह सारी पूंजी उसी इलाके में संचित नहीं थी, बाहर से भी आई है। आज भी इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े बंदरगाहों और राजमार्गों की परियोजनाओं पर पूंजी निवेश वहां की स्थिति के आधार पर हो रहा है। इन परियोजनाओं और उद्योगों में काम करने के लिए श्रम-शक्ति भी बाहर से आई। क्षेत्रीय सम्पन्नता ने इस इलाके में शिक्षा, सार्वजनिक-स्वास्थ्य और सामाजिक-जागरूकता को बढ़ाने में सहयोग किया है।
मोटा अनुमान है कि देश में करीब 14 करोड़ प्रवासी मजदूर काम करते हैं। कोविड-19 के दौरान हमने इन मजदूरों के परिवहन से जुड़ी समस्याओं को देखा था। इनमें सब लोग उत्तर से दक्षिण या पश्चिम में ही नहीं जाते हैं। दक्षिण से उत्तर आने वाले लोग भी हैं, जो अपनी योग्यता और कौशल के आधार पर बेहतर जीवन-यापन के लिए घर से बाहर निकलते हैं। आधुनिक औद्योगिक-तकनीकी विकास का एक महत्वपूर्ण कारक प्रवासन भी है। बेशक दक्षिण के राज्यों की राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंताओं को भी संबोधित किया जाना चाहिए, पर ऐसे समाधान तभी संभव है, जब हम तुच्छ राजनीति को अलग रखेंगे। यह राष्ट्रीय प्रश्न है, जिसका समाधान भी राष्ट्रीय ही होगा।
लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।