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आत्मीय अहसासों से विहीन सामाजिकता के संकट

भारतीय परंपरा में, क्रोध, लोभ और सत्ता की लालसा को कम करने के लिए आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन, अपनी सीमाओं के प्रति जागरूकता और सत्य की निरंतर खोज के मार्ग पर ज़ोर दिया है। उन्हें खुद से असहमति रखने वालों की बातों...
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चित्रांकन : संदीप जोशी
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भारतीय परंपरा में, क्रोध, लोभ और सत्ता की लालसा को कम करने के लिए आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन, अपनी सीमाओं के प्रति जागरूकता और सत्य की निरंतर खोज के मार्ग पर ज़ोर दिया है। उन्हें खुद से असहमति रखने वालों की बातों को गंभीरता से लेने, उनसे राब्ता रखने और उन्हें मनाने के लिए प्रेरित करता है। क्या हम उस मार्ग पर फिर से चलने और इसकी क्षमता का पता लगाने के लिए तैयार हैं?

‘मेलजोल विहीन भाईचारा’ यह विशेषण हमारे समकालीन जीवन की दशा का वर्णन सबसे अच्छी तरह करता है, खासकर शहरी इलाकों में। आज हम जरूरत से ज्यादा भीड़-भाड़ भरे शहरों में, एक-दूसरे की बगल में खड़ी ऊंची-ऊंची इमारतों में, आपस में सटे अपार्टमेंट्स में रह रहे हैं, कहने को पास-पड़ोस से भरपूर, किंतु मेल-जोल विहीन। कई अमेरिकी उपनगरों के विपरीत, जहां पर ज़्यादातर घर एक-दूसरे से थोड़े फासले पर बने होते हैं, हमारे यहां उपनगरों और विस्तारित शहरी इलाकों में आवासीय समूह हैं, जिनमें रिहायश अनिवार्य रूप से सटी हुई होती है। यदि ऊपर आसमान में दूसरे ग्रह के प्राणी मंडरा रहे हों, तो अवश्य ही वे इन जगहों की असाधारण सामाजिकता देखकर दंग रह जाएंगे!

विडंबना यह है कि इस किस्म का सामाजिक अस्तित्व वास्तव में असामाजिक व्यवहार का चिन्ह है। हालांकि हम अक्सर यह मानकर चलते हैं कि एक जगह मिल-जुलकर रहने से चिंताएं साझा बनती हैं और दोस्ती, मिलनसारिता और आपसी देखभाल की भावना पैदा होती है, लेकिन हकीकत बिल्कुल विपरीत है। अधीरता, क्रोध, आक्रामक व्यवहार, हिंसक गाली-गलौज और कभी-कभी शारीरिक हमले तक, इस ‘सामाजिक जगत’ में बहुतायत में हैं। सड़क किनारे खाली जगह पर कार पार्क करने का मामला हो या पालतू जानवर सहित व्यक्ति को अगली लिफ्ट पकड़ने के लिए कहना या फिर गार्ड द्वारा गेट खोलने में थोड़ी-सी देरी हो जाने जैसे मामूली से मुद्दे भी बेहद आक्रामक प्रतिक्रियाएं पैदा कर देते हैं, जिसमें आगे दोस्त और परिवार के लोगों के शामिल होने से झगड़ा विकराल रूप ले लेता है। ऐसी घटनाएं स्थानीय समाचारों की आम खबर बनी रहती हैं।

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हम में से ज़्यादातर लोग, यहां तक कि वे लोग जो सक्रिय रूप से नौकरी या कारोबार नहीं कर रहे, वे भी कम अवधि के प्रवासों के अलावा, बसने के लिए दूर-दराज़, एकांत जगहों की तलाश नहीं करते; भले ही, दूसरे लोगों के साथ रहना एक तनाव साबित हो। जीन पॉल सात्रे के शब्द—‘दूसरे लोग नर्क हैं’, एक नई वास्तविकता को जन्म देते है, जहां पर एक मामूली-सा मतभेद तेज़ी से तूल पकड़ सकता है और इसे व्यक्तिगत अपमान के रूप में लिया जा सकता है। इसके बाद अक्सर होता है, अपनी श्रेष्ठता को पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से एक-दूसरे को पछाड़ने का खेल। यह हमारे वर्तमान अस्तित्व की परेशान कर देने वाली किंतु अपरिहार्य स्थिति बन गई है, और इससे बचने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा।

हिंसा का यह सामान्यीकरण आमतौर पर उस तनाव से जुड़ा होता है जो एक बेहद अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव वाली बाज़ार व्यवस्था में उच्च आकांक्षाओं को साकार करने के सपने के साथ संलग्न होकर आता है। निस्संदेह, हम में से अधिकांश लोग जिस वातावरण में काम करते और रहते हैं, वह तनावपूर्ण है, लेकिन यह तत्व वर्तमान वास्तविकता की व्याख्या को पर्याप्त रूप से या उसके सही अर्थ को नहीं पकड़ पाता।

रोजाना जीवन में इस कदर निरंतरता से उभरने वाले घर्षण और संत्रास एक ऐसे स्वः के उद्भव को इंगित करते हैं जो एक साथ चिंता और आत्म-विश्वास से भरा है। वह जिसे, पुष्टि और मान्यता पाने की प्रबल इच्छा रहती है (जो अनिवार्य रूप से इसे दूसरों से मिलनी चाहिए), लेकिन उसका यकीन कहता है कि सत्य केवल उसके पास है। जहां पहली प्रवृत्ति उसको सामाजिकता की ओर लेकर जाती है, वहीं दूसरी वाली उसे अन्यों को, खासकर वे जो असहमत हों, त्याज्य बना देती है। इस रिश्ते में, केवल आत्म(स्वः) यानी मैं और मेरे साथ खड़े लोग ही मूल्यवान और विचार करने लायक हैं। दूसरों को स्पष्टीकरण देने की न तो कोई आवश्यकता है या न ही औचित्य।

इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि ऐसा व्यक्ति (स्वः) समूह बनाने और यहां तक कि उसकी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने में न केवल इच्छुक, बल्कि उत्साही भी होता है। यहां किसी के मन में विचार उठ सकता है कि एक असामाजिक स्वः, जिसके लिए दूसरे लोग बोझ हैं, वह तो अकेला खड़ा होना ज्यादा पसंद करेगा और सामूहिकता को असहनीय पाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है, और यह व्यवहार फिर से पुष्टि करता है कि मेलजोल विहीन भाईचारा किसी अलग-थलग व्यक्ति की अभिव्यक्ति नहीं है, वह जो समुदाय और अन्य पहचान-आधारित समारोहों में सांत्वना की तलाश करता फिरे। यदि जुड़ाव की इच्छा प्राथमिक प्रेरणा होती, तो समुदाय की सदस्यता एक सुखदायक मरहम का काम करती और यह आक्रामकता और हिंसक व्यवहार को कम कर देती। फिर से, ऐसा नहीं है। बल्कि, व्यक्ति और समूह, दोनों ही, समान प्रवृत्तियां दर्शा रहे हैं और उल्लेखनीय रूप से दोनों के व्यवहार के तरीकों में समानता है। दोनों को दूसरों की उपस्थिति अखरती रही है, यदि उससे समस्या न भी हो।

कष्टप्रद वास्तविकता यह है कि मेलजोल विहीन भाईचारा हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है, सार्वजनिक स्थानों पर रोजाना के सामाजिक संपर्क से लेकर सामुदायिक जीवन तक। सोशल मीडिया द्वारा प्रदान किया पटल भी इससे जुदा नहीं है। यहां भी व्यक्ति दूसरों की तलाश करता है; अक्सर अनजान लोगों से ज़्यादा से ज्यादा 'लाइक' पाने की होड़ में रहता है; ज़्यादा पहचान पाने की इस बेचैनी में जीता है, आत्मविश्वास से तो लबरेज़ रहता है किंतु आत्म-संदेह के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता। यह कहने को एक सामाजिकता बनाता है, लेकिन संवाद अक्सर असामाजिक रूप ले लेते हैं।

क्या इस किस्म की विरोधाभासी प्रवृत्तियां आधुनिक दुनिया में सिज़ोफ्रेनिया (मतिभ्रम) का एक और प्रकटीकरण है, जिससे बचा नहीं जा सकता– कुछ-कुछ वैसा, जिसका ज़िक्र फ्रांसीसी दार्शनिक गाइल्स डेल्यूज़े और पियरे-फ़ेलिक्स गुआट्टरी ने एक अलग संदर्भ में किया है? क्या वैश्वीकरण और नव-उदारवाद के युग में हम इसके साथ जीने को अभिशप्त हैं?

आधुनिक जीवन के उतार-चढ़ावों - इसका मतलब आधारित नैतिकता, सत्ता, नियंत्रण और प्रभुत्व बनाने की अंतहीन लालसा, दूसरों से आगे रहने का अनंत संघर्ष - का सामना करते हुए, कई प्राचीन सभ्यताओं, जिनमें प्राचीन भारतीय सभ्यता भी शामिल है, का रुख किया ताकि इनमें निहित वैकल्पिक, गैर-मतलब आधारित नैतिकता से प्रेरणा प्राप्त कर उबरा जा सके। क्या हमें भी उस सभ्यतागत मूल की ओर मुड़ना चाहिए? क्या आशा वहीं है?

शायद हमारे लिए ज़्यादा प्रासंगिक सवाल यह है - क्या हम स्वः को नया रूप देने के लिए तैयार हैं? क्या हम शक्ति, प्रभुत्व, बेमानी होड़ की भाषा को त्यागने को तैयार हैं- वह तत्व जो कि समकालिक आधुनिक स्वः की पहचान हैं। भारतीय परंपरा में, क्रोध, लोभ और सत्ता की लालसा को कम करने के लिए आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन, अपनी सीमाओं के प्रति जागरूकता और सत्य की निरंतर खोज के मार्ग पर ज़ोर दिया है। उन्हें खुद से असहमति रखने वालों की बातों को गंभीरता से लेने, उनसे राब्ता रखने और उन्हें मनाने के लिए प्रेरित करता है। क्या हम उस मार्ग पर फिर से चलने और इसकी क्षमता का पता लगाने के लिए तैयार हैं?

स्वःज्ञान का विकास पूर्वजों के लिए केंद्रीय था : यह हमारी सभ्यता का मूल था। इसके अभाव में, मेलजोल विहीन भाईचारे वाली दुनिया में हमारे फंसे रहने की संभावना अधिक है।

लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर रही हैं।

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