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स्वास्थ्य सेवाओं में लापरवाही का संकट

रक्त संक्रमण का मामला

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चिकित्सा क्षेत्र में लापरवाही और व्यवस्थाओं की असफलता ने गंभीर संकट उत्पन्न कर दिया है। हाल की घटनाओं, जैसे संक्रमित रक्त चढ़ाने की त्रासदी, ने स्वास्थ्य सेवाओं की कमजोरियों को उजागर किया है, जिससे हजारों जानें खतरे में पड़ सकती हैं।

नियम-मानकों की अनदेखी देश में एक गंभीर समस्या बन चुकी है। भारतीय चिकित्सा क्षेत्र तक लापरवाही से अछूता नहीं। हमारे उपचार केंद्र नागरिक-स्वास्थ्य के प्रति कितने संजीदा हैं, इसका ताज़ा उदाहरण झारखंड के पश्चिम सिंहभूम ज़िले में चाईबासा के सदर अस्पताल में देखने को मिला। कथित तौर पर यहां थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों को एचआइवी संक्रमित रक्त चढ़ा दिया गया।

मंझारी प्रखंड के रहने वाले पीड़ित बच्चे के परिजनों द्वारा शिकायत दर्ज़ कराने पर ही मामला प्रकाश में आया। परिजनों के आरोपानुसार, दीर्घकाल से थैलेसीमिया ग्रस्त सात वर्षीय बच्चा रक्त चढ़ाने के क्रम में एचआइवी से संक्रमित हुआ। झारखंड हाईकोर्ट द्वारा विषय का संज्ञान लेने के उपरांत राज्य सरकार हरक़त में आई। रांची से आई विशेष मेडिकल टीम की जांच में चार और बच्चे एचआईवी पॉज़िटिव पाए गए। संख्या संभवतः बढ़ सकती है।

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रक्त दान, ‘महादान’ माना गया है चूंकि इसकी समयानुकूल उपलब्धता किसी को जीवनदान देने का सामर्थ्य रखती है। रक्त आधान प्रक्रिया रक्त हानि की भरपाई करने, रक्त कोशिकाओं के उत्पादन संबंधी समस्या ठीक करने अथवा दुर्घटना, सर्जरी आदि कुछ चिकित्सीय स्थितियों का इलाज करने हेतु प्रयुक्त की जाती है। सामान्य तौर पर, रक्त उत्पादों का सावधानीपूर्वक चयन तथा रखरखाव ज़ोख़िम को कम करता है जबकि इस संदर्भ में तनिक सी कोताही घातक सिद्ध हो सकती है।

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गलत खून चढ़ाने की घटनाएं गंभीर चिकित्सा लापरवाही (मेडिकल नेगलिजेंस) के मामले मानी जाती हैं, जिनके परिणामस्वरूप रोगी की शारीरिक क्षति या मृत्यु तक हो सकती है। इस संदर्भ में दिशानिर्देश बराबर सुनिश्चित करते हैं कि दान किया गया रक्त प्राप्तकर्ता के लिए उपयुक्त हो। विशेषज्ञों के अनुसार, प्राप्तकर्ता के शरीर में किसी गलत रक्त समूह का खून चढ़ाना बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है। रक्त चढ़ाने के 24 घंटे के भीतर या आधान के समय उसे तीव्र हेमोलिसिस हो सकता है। संक्रमित खून चढ़ाने से एलर्जी हो सकती है, जिसका प्रभाव आमतौर पर प्लाज़्मा युक्त रक्त घटकों के आधान के दौरान या उसके तुरंत बाद देखा जा सकता है। रोगी का शरीर दान किए गए प्लाज़्मा में मौजूद प्रोटीन के प्रति प्रतिक्रिया कर सकता है, जिसके लक्षण खुजली तथा पित्ती हो सकते हैं। अन्य लक्षणों में घरघराहट तथा सांस लेने में परेशानी हो सकती है।

रक्त आधान के माध्यम से संचारित होने में सक्षम वायरल एजेंटों में मानव इम्यूनोडेफिशिएंशी वायरस (एचआईवी), हेपेटाइटिस वायरस, वेस्ट नाइल वायरस (डब्ल्यूएनवी) शामिल हैं, हालांकि रक्त दाताओं और रक्त जांच संबंधी दिशानिर्देशों के मुताबिक़, रक्त आधान से होने वाले एचआईवी और हेपेटाइटिस जैसे वायरल संक्रमण अत्यंत दुर्लभ हैं।

अपने प्रकार की यह पहली घटना नहीं, इससे पूर्व भी ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जहां गलत खून चढ़ाने के गंभीर परिणाम देखने में आए। जबलपुर सरकारी अस्पताल में थैलेसीमिया पीडि़त 16 बच्चों में से कुछ को गलत रक्त चढ़ाने के कारण तीन बच्चों की मृत्यु हो गई थी एवं चार गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे। जोधपुर एम्स में एक 50 वर्षीय मरीज़ को अनुपयुक्त समूह का रक्त चढ़ाना उसकी मौत का सबब बना। कानपुर में गलत खून चढ़ा देने से एक महिला की किडनी फेल हो गई थी।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, गलत खून चढ़ाना ‘पेशेवर निर्णय की त्रुटि’ न होकर, चिकित्सा लापरवाही का एक निश्चित उदाहरण है। चिकित्सा लापरवाही के मामलों में पीड़ित या उनके परिवार के पास दोषी के विरुद्ध आपराधिक या दीवानी शिकायत दर्ज़ करवाने जैसे कानूनी उपाय चुनने का विकल्प उपलब्ध है। आपराधिक मामलों में, भारतीय दंड संहिता की धारा 304ए के तहत ‘लापरवाही से मृत्यु’ के लिए दंड का प्रावधान है, जबकि दीवानी मामलों में उपभोक्ता फ़ोरम या अदालतों के माध्यम से मुआवज़े की मांग की जा सकती है। उल्लेखनीय है, उपरोक्त तीनों मामलों में, अस्पताल तथा संबंधित कर्मचारियों को जवाबदेह ठहराया गया और उन्हें कानूनी कार्रवाई तथा मुआवज़े का सामना करना पड़ा लेकिन फिर भी घटनाओं का दोहराव न रुकना चिंता बढ़ाता है।

कुछ अधिकारियों को निलंबित करने मात्र से समस्या नहीं सुलझ सकती, समूल निराकरण हेतु हमें इसकी जड़ों तक पहुंचना होगा। पूरे सिस्टम में आमूल-चूल परिवर्तन करने के दावे केवल काग़ज़ी आश्वासन तक सीमित रहना ही घटनाओं की पुनरावृत्ति में प्रमुख कारण बनता है। हर बार जांच के दौरान प्रबन्धन संबंधी त्रुटियां सामने आने के बावजूद उनके सुधार के प्रति ईमानदार प्रयास करने की ज़हमत ही नहीं उठाई जाती। वक्त की गर्द में पूर्व की घटनाएं धूमिल पड़ती जाती हैं, हालात यथावत रहते हैं।

मीडिया जानकारी अनुसार, राष्ट्रीय ब्लड नीति के पैमानों पर चाईबासा सदर अस्पताल ब्लड बैंक का ख़रा न उतर पाना व्यवस्थाओं, अधिकारियों एवं नीति नियंताओं, सभी को बराबर कटघरे में खड़ा करता है। न परस्पर दोषारोपण से बात बनेगी, न ही दो लाख का मुआवज़ा पीडि़तों की पीड़ा हर सकता है। समस्या तभी सुलझेगी जब नियम-मानकों तथा प्रबन्धन के मध्य स्थित व्यापक अंतर को हर स्तर पर पाटा जाए। चिकित्सा पेशेवरों द्वारा ‘देखभाल के मानक’ का अक्षरशः पालन किए बिना भी घटनाएं रुकने की उम्मीद कैसे रख सकते हैं?

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