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पर्यावरण की परवाह न करने का नतीजा है संकट

गुरबचन जगत भारी बारिश और उफनती नदियों की खबरों के बीच पंजाब के माझा और दोआबा अंचल में धुस्सी बांधों (मिट्टी से बने तटबंध) में दरारें पड़ने की घटनाएं घटी। मेरी यादें 1971-73 में ले गईं, जब मैं कपूरथला में...
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गुरबचन जगत

भारी बारिश और उफनती नदियों की खबरों के बीच पंजाब के माझा और दोआबा अंचल में धुस्सी बांधों (मिट्टी से बने तटबंध) में दरारें पड़ने की घटनाएं घटी। मेरी यादें 1971-73 में ले गईं, जब मैं कपूरथला में बतौर पुलिस अधीक्षक तैनात था। प्रताप सिंह कैरों के मुख्यमंत्रित्व काल में धुस्सी बांध बनने से पहले यह इलाका भारी बाढ़ें झेलता आया था। इनका निर्माण कार्य उनकी कोशिशें व बलवंत सिंह (जो बाद में पंजाब के वित्त मंत्री बने) की कड़ी मेहनत का नतीजा था, जिससे तटबंध बनाने का काम सफलतापूर्वक पूरा हो पाया। उस समय मानसून आने से पहले, उपायुक्त इनकी मरम्मत और देखरेख से संबंधित विभागों के अधिकारियों की बैठक लिया करते थे। इसके बाद, उपायुक्त के नेतृत्व में हम सब स्वयं मौका मुआयना करके कमजोर बिंदुओं की शिनाख्त करते, गांव वालों से मिलते और उनकी समस्याओं पर चर्चा किया करते। इस पर अमल होता। तत्पश्चात, वित्तायुक्त (कराधान) का दौरा होता, जिसमें हमें साथ लेकर वे पूरे तटबंध का मुआयना करते और आपदा प्रबंधों की समीक्षा होती। यहां तक कि वे उपकरणों और किश्तियों की हालत का जायजा लेते। लिहाजा बरसातें आती तो हम सब चुनौतियों के लिए पहले से तैयार होते।

बाढ़ की स्थिति और संबंधित विषयों की निगरानी के लिए जिला और राज्य स्तरीय नियंत्रण कक्ष बनाए जाते। यही वजह है कि बर्बादी की खबरें मुझे विचलित कर रही हैं, क्योंकि साफ है प्रशासनिक ढांचा सोते पकड़ा गया, तभी तो तटबंध जगह-जगह टूट गए। मौजूदा व्यवस्था में किसी की जिम्मेवारी या जवाबदेही तय नहीं है। बेशक प्रशासनिक तंत्र में उच्च स्तर पर भारी संख्या में नौकरशाह, फंड, मंत्री इत्यादि हैं- लेकिन क्या किसी ने मानसून पूर्व अभ्यास-कार्य किया? क्या वित्तायुक्त ने मौका-मुआयना दौरे किए? आज तो पंजाब में कई वित्तायुक्त हैं, जबकि 1971 में एक ही हुआ करता था। उपरोक्त वर्णन पिछले समय में प्रशासनिक तंत्र के कामकाज का एक उदाहरण है। हालांकि उस वक्त उनके सामने प्राकृतिक आपदा जनित चुनौतियां थीं जबकि वर्तमान में पर्यावरणीय बदलावों से आसन्न आफतें भी हैं। किंतु प्रशासनिक तंत्र की कोताही सब ओर एक-समान है और उसके परिणाम सभी सूबों में देखने को मिल रहे हैं। यह एक सालाना असफलता बन गई है और कारण है सार्वजनिक सुविधाओं के सभी क्षेत्रों को सुचारु रखने को बनाई सुस्पष्ट संहिता पर अमल की अनदेखी।

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दुनिया की खबरों पर सरासर नज़र दौड़ाने पर चरम मौसम दशाएं और उसके परिणाम की चिंताजनक सूचनाएं पाते हैं। यूरोप और उत्तरी अमेरिका के कुछ हिस्से अनवरत भीषण ग्रीष्म लहर से त्रस्त हैं, तिस पर जंगलों में लगी आग ने स्थिति और बिगाड़ रखी है– न्यूयॉर्क का संतरी आसमान देखकर दिल्ली से गए आगंतुक की आंखे भर आएंगी। उधर दक्षिण एशिया भारी बारिश झेल रहा है। जून के महीने में बारिश बहुत कम हुई और जुलाई में जल-थल एक करने वाली बरसात ने किसानों को और मुसीबतजदा कर डाला है, फसलें तबाह हो गई हैं और खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं– टमाटर, ब्रोकॉली, शिमला मिर्च और अदरक के बीच मानों दामों की दौड़ लगी हो। इसे यूं समझना हो तो, मैकडॉनल्ड ने टमाटर डालना बंद कर दिया है– बिना टमाटर बिग मैक बर्गर का क्या स्वाद? हैरानी यह कि ठीक वैसा हो रहा है,जैसा कि समय-समय पर अनेकानेक पत्रिकाओं में ज्ञानियों ने चेताया था, लेकिन हम ‘होमोसेपियन्स’ अपनी रोजमर्रा जिंदगी में मस्त हो चलते रहे (इसे कोई ‘जलने को आतुर’ भी कह सकता है)। मशहूर विज्ञानी जेम्स लवलॉक ने वर्ष 2005 में पेरिस में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी में ‘न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ शीर्षक वाले संबोधन में कहा था ‘हमें अकेले केवल मनुष्यों की जरूरतों और हकों के बारे में सोचना बंद करना होगा। साहसी बनें और देखें कि असल खतरा जीवन पाल रही पृथ्वी मां से आएगा, जिसे हमने चोट पहुंचाई है और अब वह हमें सबक सिखाने को उद्यत है।’

लाखों जीव प्रजातियों के वजूद पर जो खतरा 75-100 साल बाद बनता, वह आज बहुत नजदीक दिखाई दे रहा है। राष्ट्र और उनके नागरिक अचानक और बिना पूर्व तैयारी के घिर गए हैं क्योंकि किसी को विश्वास नहीं था कि यह हमारे जीवनकाल में होगा। हम अपने कृत्यों से भावी पीढ़ियों के लिए संकट-दर-संकट इकट्ठा करते चले गए। न तो पर्यावरणीय खतरे को लेकर हुए अध्ययनों की कमी है और न ही संयुक्त राष्ट्र या किन्हीं अन्य मंचों पर आयोजित बैठकों की। व्यक्तिगत तौर पर भी, मसलन, पूर्व अमेरिकी उप-राष्ट्रपति अल गोर ने दुनियाभर में घूम-घूमकर इस विषय पर भाषण दिए हैं। जिसमें उन्होंने मौसम में बदलावों से उत्पन्न आसन्न मुसीबतों के बारे में बताया, लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। यहां मुझे वाल्टर डी ला मेयर की कविता ‘द लिस्नर इन ए डिफरेंट कॉन्टेक्स्ट’ की पंक्तियां याद आ रही है : ‘उसने कहा, अंदर कोई है... पथिक को जवाब कहां मिलता... सुना जो केवल भूतों ने... जिनका अब वहां बसेरा था... जो चांद की खामोश रोशनी की तरह... चुपचाप सुन रहे आवाज़ दुनियावी बंदे की।’

यह शायद आने वाले वक्त की गूंज है– विज्ञान को हमने अपने मुसीबतों की एवज पर अनदेखा जो किया है। इसके बावजूद हम पाते हैं पश्चिमी देश रूस से युद्ध में उलझे हैं। एक बार फिर से, क्षुद्र राजनीतिक होड़ में, एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने को आतुर सेनाओं के लिए गोला-बारूद, कुमुक पहुंचाने और भंग हुई आपूर्ति शृंखला के साथ जीवाश्म ईंधन का उपयोग जमकर हो रहा है और इस सब में अच्छाई और विज्ञान पीछे कहीं छूट गया। उत्तरोतर बढ़ता राष्ट्रवाद खुलकर हावी होने लगा है और दुनियाभर में यही चलन है। अल्प-कालिक राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक सोच का पर्यावरणीय बदलावों पर बहुत असर पड़ रहा है। जिसका निदान वैश्विक नेतृत्व के लिए मरीचिका है और इस बीच पृथ्वी गर्माती जा रही है। हालांकि मैं नहीं कहता कि सब कुछ खो चुका है, पर्यावरण पर चिंता को लेकर राजनीतिक और वैज्ञानिक आंदोलन मुखर हो रहे हैं। कुछ देशों ने सतत स्वच्छ ऊर्जा, बिजली चालित परिवहन, वन क्षेत्र बढ़ाने और कार्बन फुटप्रिंट घटाने के लिए बेहतर फैसले लिए हैं। जीवाश्म ईंधन छोड़कर हरित विकल्प बनाने का विचार अब जोर पकड़ने लगा है– हालांकि इसकी रफ्तार हमारे हाथ न होकर वैश्विक रूप से ज्यादा तय होगी।

मेरा डर और आशंका घरेलू स्थिति पर अधिक केंद्रित है। इकोनॉमिक टाइम्स की खबर के अनुसार, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी मात्र 3.7 प्रतिशत है, जो कि हमारे आकार और जनसंख्या के लिहाज से कोई अतिशयी नहीं, फिर भी हमें मौसम में बदलावों का दंश भुगतना पड़ सकता है। अल नीनो जैसे मौसम-कारक के साथ मानसून की चाल-मात्रा में आए बदलावों से हमारी कृषि और खाद्यान्न सुरक्षा प्रभावित हुई है। 140 करोड़ लोगों वाले देश के लिए, जहां अधिकांश जनसंख्या निम्न आय वर्ग में है और कृषि मुख्यतः बारिश पर निर्भर है, उसके लिए परिणाम अत्यंत भयावह हो सकते हैं। फिर भी हमारी संसद और विधानसभाओं में राजनेता अपनी ऊर्जा मिथकीय सांस्कृतिक विषयों में उलझने में लगा रहे या अर्थपूर्ण मुद्दे नहीं उठाते, उनकी रुचि विवादित राजनीतिक मुद्दों पर बहस करने में ज्यादा है। मौसमी बाढ़ों ने उत्तर भारत के बड़े हिस्से को डुबा रखा है, अव्वल तो बारिश हुई देर से, जब आई तो पूरी तरह बिफरकर, जिससे बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। जिंदगियां लील ली, संरचनात्मक व संपत्ति का नुकसान हुआ और इस सब के बीच सरकारी सहायता नगण्य। सवाल है : ‘बतौर राष्ट्र व सूबा सरकारें व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से हम अपने जीवनकाल में आई इस बहुत बड़ी विपत्ति से लड़ने के लिए एकजुट होंगे या नहीं ताकि हम बच्चों, भावी पीढ़ियों के लिए एक बेहतर पृथ्वी छोड़कर जाएं या फिर कम-से-कम उतनी सुंदर, जैसी हमें मिली थी?’

लेखक मणिपुर के राज्यपाल रहे हैं।

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