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शोध-अनुसंधान से ही आत्मनिर्भर बनेगा देश

बृजेश कुमार तिवारी हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नेशनल रिसर्च फाउंडेशन विधेयक 2023 का अनुमोदन करते हुए राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) बनाने की राह प्रशस्त की है, जल्दी ही इसे संसद में पेश किया जाएगा। वहीं एनआरएफ के रणनीतिक...
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बृजेश कुमार तिवारी

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नेशनल रिसर्च फाउंडेशन विधेयक 2023 का अनुमोदन करते हुए राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) बनाने की राह प्रशस्त की है, जल्दी ही इसे संसद में पेश किया जाएगा। वहीं एनआरएफ के रणनीतिक मार्गदर्शन हेतु 15-20 नामचीन अनुसंधान एवं विकास पेशेवरों की एक संचालन समिति स्थापित की जाएगी। एनआरएफ के लिए 2023-24 से लेकर 2027-28 के बीच पांच सालों में 50 बिलियन रुपये उपलब्ध करवाए जाएंगे। इसमें सरकार की हिस्सेदारी 14 बिलियन रुपये होगी वहीं बाकी धन उद्योगों, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों व कल्याण-चंदा इत्यादि से आएगा।

प्रस्तावित नेशनल रिसर्च फाउंडेशन भारत की 1,074 यूनिवर्सिटियों और 161 अनुसंधान संस्थानों को खोज एवं विकास कार्य में मदद देगा। इन संस्थानों में आईआईटी, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, एम्स और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एजूकेशन एंड रिसर्च इत्यादि हैं।

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दरअसल, अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) पर हमने अन्य देशों जितना ध्यान नहीं दिया। भारत में आर एंड डी मद में प्रावधान सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.7 प्रतिशत है, जो कि वैश्विक औसत (1.8 फीसदी) से कहीं कम है और विकसित राष्ट्रों से तो बहुत नीचे है। जबकि इस मद में अमेरिका 2.9 प्रतिशत, चीन 2.2 फीसदी और इस्राइल 4.9 प्रतिशत खर्च करते हैं। नीति आयोग और इंस्टिट्यूट ऑफ कम्पीटीटिवनेस द्वारा करवाए अध्ययन के मुताबिक, विकास एवं अनुसंधान मद में भारत का निवेश दुनियाभर में न्यूनतम है। यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रति दस लाख व्यक्तियों के पीछे 366 अनुसंधानकर्ता का औसत है, जबकि ब्राजील का 1,366 चीन का 2,366 व जर्मनी का 6,995 है और सबसे ज्यादा औसत आईसलैंड (10,073) का है। यूनेस्को इंस्टिट्यूट ऑफ स्टैटिस्टिक्स की रिपोर्ट कहती है कि भारत में प्रति दस लाख व्यक्तियों के पीछे केवल 253 वैज्ञानिक हैं जो कि जनसंख्या के हिसाब से किसी अन्य विकसित राष्ट्र की तुलना में कहीं कम है।

विकसित मुल्कों में अनुसंधान एवं विकास मद में निजी क्षेत्र का योगदान 70 फीसदी होने के मुकाबले भारत में यह 40 प्रतिशत से भी कम है। अनुसंधान एवं विकास के लिए खर्च के मामले में विश्व की चोटी की 2500 कंपनियों की सूची में भारत से केवल 26 नाम हैं। ऐसी 301 कंपनियों के साथ चीन सबसे ऊपर है।

जैसे कोई पानी वाला जहाज नए समुद्री रास्तों की थाह लेने की बजाय गोल-गोल घूमने लगे, वैसे ही यदि कोई मुल्क अनुसंधान एवं विकास मद में निवेश करने में असफल रहता है तो उसे आर्थिक अस्थिरता सहनी पड़ती है। इस्राइल ने यह कर दिखाया है कि एक छोटा देश चाहे तो अनुसंधान एवं विकास में निवेश करके टिकाऊ विकास प्राप्त कर सकता है। इस्राइली सरकार ने नए शोध कार्यों की, विशेषकर लघु एवं मध्यम उद्यमों में, वित्तीय मदद कर उल्लेखनीय भूमिका निभाई है, साथ ही वहां पर अनुसंधान के लिए सुचालित तंत्र है, जिसके अवयवों में वेंचर कैपिटल, इन्क्युबेटर, विज्ञान व उद्योग जगत के बीच ठोस समन्वय और उच्च-गुणवत्तापूर्ण यूनिवर्सिटी शिक्षा है।

अनुसंधान एवं विकास बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे हमारी जिंदगी में सुधार लाते हैं। भारत अब एक श्रम-आधारित अर्थव्यवस्था से कौशल-आधारित आर्थिकी में रूपांतरित हो रहा है। कौशल विकास एवं उद्यम मंत्रालय की स्थापना इस क्षेत्र को गति देने के मकसद से हुई थी। उम्मीद है डिजिटल यूनिवर्सिटी और गतिशक्ति यूनिवर्सिटी ज्ञान-युक्त अर्थव्यवस्था बनाने में मददगार होंगी। भारत सरकार ने स्टार्टअप्स, शिक्षा संस्थान और छोटे व्यवसायों को पेटेंट फीस में 80 फीसदी छूट देने का घोषणा की है। ऑनलाइन पेटेंट फाइलिंग फीस में 10 फीसदी छूट रखी गई है।

‘विपो ग्लोबल इंडेक्स-2022’ ने 132 देशों में भारत को 40वां स्थान दिया है। स्थिति में 2015 की तुलना में काफी सुधार हुआ है, पहले हम 81वें पायदान पर थे। ‘अंकटैड टेक्नोलॉजी एंड इनोवेशन रिपोर्ट 2023’ के अनुसार 158 देशों में भारत 46वें स्थान पर है।

किसी मुल्क की अर्थव्यवस्था सही मायने में जबरदस्त बनाने के पीछे शक्ति का स्रोत दीर्घकालिक और ठोस ज्ञान आधारित तंत्र होता है। जितनी अधिक बौद्धिक संपदा होगी उतना ज्यादा रोजगार सृजन होगा। भारत में निजी कंपनियां अधिकांशतः अपना पैसा आरएंडडी मद की बजाय बिक्री और बेचने की युक्तियों पर लगाती हैं। यह एक वजह है कि क्यों भारतीय कंपनियां नूतन खोज नहीं कर पा रहीं और भारतीय उत्पादक विश्वस्तरीय चीजें नहीं बना पाते। यह समय है मेक-इन-इंडिया नीति पर पुनर्विचार का।

भारत के पास वैश्विक स्तर पर नूतन खोज अग्रणी बनने के तमाम जरूरी अवयव हैं, मसलन, एक जबरदस्त उपभोक्ता बाजार, विलक्षण प्रतिभाओं का अम्बार और रिवायती रूप से जुगाड़ बनाने में माहिर दिमाग। सिर्फ जरूरत है तो अनघड़ प्रतिभा को समुचित दिशा देकर तराशने की। डॉक्टरल रिसर्च के लिए प्रधानमंत्री फेलोशिप स्कीम एक अच्छी शुरुआत है लेकिन इसको विस्तार देने की दरकार है। सरकार को उन स्टार्टअप्स और व्यवसायों की मदद करनी चाहिए जो बेशक स्थानीय तौर पर काम-धंधे की सोचते हैं लेकिन वैश्विक प्रभाव की संभावना रखते हैं। दुनिया को माहिर मानव संसाधन प्रदाता बड़े मुल्कों में भारत भी एक है।

किंतु नवीनतम तकनीक, ज्ञान-आधारित समाज के बिना कोई भी मुल्क 21वीं सदी में सफल नहीं हो सकता। इसके लिए विज्ञान और नूतन खोज में काफी निवेश की जरूरत है। तथापि, बहुत से विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम आज भी रट्टा लगाकर उत्तीर्ण होने और नौकरी पाने वाले ढर्रे पर टिका है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में स्वचालित यांत्रिक उत्पादन व्यवस्था बनने पर सब प्रकार की नौकरियों में से 69 फीसदी खतरे में होंगी।

भारत के पास जी-20 की अध्यक्षता होने से वैश्विक एजेंडा बनाने का मौका है। भारत अपनी 0.65 प्रतिशत आरआई (रिसर्च इन्टेंसिटी यानी जीडीपी के सापेक्ष आरएंडडी मद में निवेश) के साथ दक्षिण कोरिया (4.43) जापान (3.21), चीन (2.14) और यूरोपियन यूनियन के 2.0 प्रतिशत से काफी पीछे है।

केंद्रीय एवं राज्य सरकारों को चाहिए कि शिक्षा और अनुसंधान के लिए ज्यादा धन मुहैया कराएं। एनआरएफ की स्थापना होने के बावजूद भारत के लिए डगर बहुत लंबी है। आज भारत को तकनीकी विकास और प्रतिभा की जरूरत रक्षा, कृषि और उत्पादन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में है वहीं उस नवीन खोज की भी आवश्यकता है जो जल, जमीन और वायु को सुरक्षित बनाए। वहीं भारत के आर्थिक-व्यवस्थात्मक माहौल को विज्ञान, तकनीक और नूतन खोज में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए नीति निर्माताओं को विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र, स्टार्टअप्स और यूनिवर्सिटियों को साझे मंच पर लाना आवश्यक है।

लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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