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कलिकाल में वर्षा ऋतु वर्णन के बदलते मायने

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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डॉ. महेन्द्र अग्रवाल

पुराने समय में लोग आदर्शवादी नैतिकतावादी होते थे, इसलिए कवि शायर भी वैसी ही बातें करते थे। अब समय तेजी से बदल रहा है। पिछले मानदंड ध्वस्त हो रहे हैं। नए-नए कीर्तिमान बन रहे हैं। साहित्य में भी अज्ञेय के प्रयोगवाद से नए उपमान नए प्रतीक नए बिम्ब सामने आ रहे हैं। रामचरित मानस में भी महाकवि तुलसीदास जी ने वर्षा ऋतु का वर्णन किया है। कलिकाल है अतः ऋतु वर्णन में भी युगानुरूप नवीनता होनी चाहिये। है कि नहीं?

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हम रविवार को संध्याकाल में घर की छत पर ऋतुफल के साथ वर्षा ऋतु का उचित विधि से आनंद उठा रहे थे। मैंने अपने साथी को वास्तविक मित्र मानते हुए कहा, देखो आकाश में काले बादल ऐसे घिर आये हैं जैसे चुनावों के समय बड़े राजनीतिक दलों के कार्यालयों पर दूरदराज के नेताओं की भीड़। इन्हें देखकर लगता है किसी नेता के मंत्री पद की शपथ लेते ही उसके समर्थकों बंधु-बांधवों ने उसे घेर लिया हो। इन काले बादलों को देखकर मोर नृत्य कर रहे हैं मानो सरकारी दफ्तर में सप्लायर के आते ही सभी लिपिक लेखापाल के साथ झूमने लगे हों। ये बादल घुमड़-घुमड़कर गर्जना कर रहे हैं, मानो सत्तारूढ़ नेता अपने कार्यकाल में प्रजा की खुशहाली की घोषणा कर रहा हो। बिजली क्षण भर कौंधकर लुप्त हो जाती है मानो वोटर की उम्मीद हो। देखो कैसी मूसलाधार बारिश हो रही है जैसे पुल निर्माण के समय लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन मंत्री के यहां स्वर्ण मुद्रायें गिरती हैं।

गौर से देखो मित्र! नदी-नाले किनारों की मर्यादा भंग कर बह रहे हैं लगता है नवधनाढ्य अपने शहर की गलियों में इतरा कर चल रहा है। वर्षा का जल सभी ओर से आकर जलाशयों में एकत्र हो रहा है जैसे हमारे यहां कालाबाजारियों और बड़े उद्योगपतियों के यहां धन इकट्ठा होता है। चारों ओर की धरती हरी हो गई है जैसे किसी नेत्र चिकित्सक ने जांच कक्ष में चहुं ओर हरे परदे लगा लिये हों। सभी दिशाओं में मेढकों की ध्वनि गूंज रही है जैसे चुनाव की घोषणा होते ही विपक्षी नेताओं के स्वर गूंजने लगते हैं। आसपास के सभी वृक्ष नए पत्तों के आने से हरे-भरे हो गये हैं जैसे किसी कामाभिलाषी के आने से सरकारी कर्मचारी की पिचकी हुई जेब फूल जाती है।

हां, कभी-कभी वायु के वेग से बादल छितराकर गायब हो जाते हैं जैसे नेता पुत्र के कदाचरण से उसके कुल और दल की कीर्ति। जो भी हो मित्र अब धूल का नामो निशान नहीं है जैसे हमारे स्वस्थ लोकतंत्र में सत्ता के विरोधियों का। बताओ मित्र आनंद के इस मौसम में और क्या चाहते हो?

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