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लोकतंत्र को राजनीति के ‘पारिवारिक व्यवसाय’ की चुनौती

विश्वनाथ सचदेव इस बार स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दिये गये अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति में भाई-भतीजावाद के वर्चस्व को नकारने का आह्वान किया था। उन्होंने कहा था कि वह देश के एक...

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विश्वनाथ सचदेव

इस बार स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दिये गये अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति में भाई-भतीजावाद के वर्चस्व को नकारने का आह्वान किया था। उन्होंने कहा था कि वह देश के एक लाख ऐसे युवाओं को राजनीति में सक्रिय करना चाहते हैं जिनका राजनीतिक परिवारों से कोई रिश्ता न हो। प्रधानमंत्री ने अपनी इस बात को अब फिर दुहराया है। अपने चुनाव-क्षेत्र बनारस में एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘देश को परिवारवाद से बहुत बड़ा खतरा है। देश के युवाओं को सबसे ज़्यादा नुकसान इसी परिवारवाद से हुआ है।’ प्रधानमंत्री की बात का कुल मिलाकर देश में अनुमोदन ही हुआ है।

यह पहली बार नहीं है जब देश की राजनीति में परिवारवाद के खतरों से परिचित कराने की कोशिश हुई है। सच तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी राजनीति जिन आधारों पर चला रही है, उनमें कांग्रेस के परिवारवाद का स्थान काफी ऊंचा है। लेकिन सवाल जो उठ रहा है वह यही है कि राजनीति में परिवारवाद की इस आलोचना में ईमानदारी कितनी है?

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जिस समाचार पत्र में मैंने बनारस के प्रधानमंत्री के भाषण वाला समाचार पढ़ा था, उसमें उसी पन्ने पर एक समाचार यह भी था कि महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवारों की पहली सूची में ऐसे कई नाम हैं जिनका सीधा रिश्ता राजनीतिक परिवारों से है। समाचार में इस संदर्भ में कुछ नाम भी गिनाये गये थे। इन नामों में से एक पूर्व मुख्यमंत्री की बेटी और दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे का नाम भी था। राज्यसभा के एक सदस्य के छोटे भाई को भी भाजपा ने टिकट दिया है। एक और पूर्व मुख्यमंत्री के पोते को भी भाजपा का टिकट मिला है। राज्य में भाजपा के अध्यक्ष के साथ-साथ उनके भाई को भी पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया है... यह सूची यहीं खत्म नहीं होती। सच तो यह है कि इस तरह की सूची भाजपा तक ही सीमित नहीं है। बाकी राजनीतिक दल भी राजनीति में भाई-भतीजावाद की बीमारी के शिकार हैं। उनकी सूचियां खंगाली जायेंगी तो वहां भी यही सब देखने को मिलेगा। भाजपाई उम्मीदवारों के ये कुछ नाम तो बस इसलिए गिनाये गये हैं कि भाई-भतीजावाद के संदर्भ में प्रधानमंत्री जो कहते हैं उनकी पार्टी का आचरण उसके बिल्कुल विपरीत दिख रहा है। और यह बात भी कोई रहस्य नहीं है कि भाजपा में प्रधानमंत्री की बात ही अंतिम सच है। बजाय यह कहने के कि ‘मैं यह चाहता हूं कि राजनीति में भाई-भतीजावाद का खात्मा हो’, प्रधानमंत्री यह कहते हैं कि ‘देखिए हमने चुनाव में किसी को इसलिए उम्मीदवार नहीं बनाया कि वे किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ा है’ तो उनकी बात का महत्व और असर कहीं अधिक बढ़ जाता।

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इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाई-भतीजावाद की इस संस्कृति ने हमारी राजनीति को एक पारिवारिक व्यवसाय बनाकर रख दिया है। कांग्रेस पर इसे बढ़ावा देने का आरोप कोई भी ग़लत नहीं ठहरा सकता। कांग्रेस की राजनीति मोतीलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक परिवारवाद से ग्रसित रही है। पर यह सच सिर्फ कांग्रेस पार्टी का नहीं है। हमारे देश की लगभग सभी पार्टियां इस बीमारी की शिकार हैं। हां, कम्युनिस्ट पार्टी वाले अवश्य इसका शिकार होने से बचे हुए दिखते हैं। बाकी सारे राजनीतिक दल, चाहे वे राष्ट्रीय स्तर के हों या फिर क्षेत्रीय दल हों, भाई-भतीजावाद के दलदल में डूबे दिखाई देते हैं।

जहां तक क्षेत्रीय दलों का सवाल है उनमें से कई तो हैं ही परिवारों की पार्टियां। बिहार में आर.जे.डी. को लालू-परिवार से, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को यादव परिवार से, जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार से और तमिलनाडु में द्रमुक को स्टालिन-परिवार से अलग करके कैसे देखा जा सकता है। यदि इसे ‘पारिवारिक व्यवसाय’ की संज्ञा दी जाती है तो क्या ग़लत है?

इस सच्चाई के बरक्स दूसरी सच्चाई है कांग्रेस पार्टी की जो भाजपा के निशाने पर है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने तो अपने पुत्र संजय को लेकर उठे सवालों के संदर्भ में स्पष्ट कहा कि यदि व्यवसायी की संतान व्यवसायी बन सकती है, वकील की संतान वकील तो राजनेता की संतान राजनीति में आकर क्या ग़लत करती है? कुछ ऐसा ही तर्क यह भी है कि राजनेता यदि अपने परिवार के सदस्यों को चुनाव का टिकट देकर आगे लाते हैं तो इसमें ग़लत क्या है? उन्हें चुनाव में जिताती तो जनता है– उन्हें हर कदम पर स्वयं को प्रमाणित करना होता है। इन दोनों प्रकार के तर्कों में कुछ सच्चाई हो सकती है, पर बड़ी सच्चाई यह है कि इस पारिवारिक राजनीति के पीछे जो ताकत है वह उसी राजशाही की है जिसे हटाकर हमने अपने को जनतांत्रिक देश घोषित किया है। इस जनतंत्र की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि यहां हर एक को आगे बढ़ने का अवसर और अधिकार मिलता है। परिवारवादी राजनीति इसे नकारती है। इस अवसर और अधिकार का तकाज़ा है कि जनतंत्र में राजनीति को किसी की पारिवारिक संपत्ति न बनने दिया जाये। हमारे राजनेता यह समझते भले ही हों पर स्वीकारना नहीं चाहते। इसी का परिणाम है कि आज हमारे देश में न जाने कितने बड़े नेताओं की संतानें संसद या विधानसभाओं में बैठी दिख रही हैं। यह सब राजनीति में इसलिए नहीं है कि उनमें राजनीति की समझ या योग्यता-क्षमता है। उनके इस स्थिति में होने का आधार ही यही है कि वह राजनीतिक परिवार के सदस्य हैं।

लगभग चार साल पहले एक अध्ययन में यह पाया गया था कि हमारी तत्कालीन लोकसभा में 30 वर्ष से कम आयु के सभी सांसद राजनीतिक परिवारों की राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले थे! 40 साल से अधिक उम्र वाले दो-तिहाई सांसद ऐसे ही परिवार वाले थे। अध्ययन का निष्कर्ष यह था कि यदि यही गति रही तो संभव है हमारी संसद राजनीतिक परिवारों का अड्डा बन कर रह जाये—यानी फिर वही वंशवादी राजनीति जिससे छुटकारा पाने के लिए हमने जनतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकारा था। इस व्यवस्था में वंश-परंपरा नहीं, नागरिक की योग्यता-क्षमता का स्वीकार ही किसी के राजनीति में आने का आधार है। परिवारवादी राजनीति जनतांत्रिक मूल्यों को नकारती है।

ऐसा नहीं है कि राजनीतिक परिवार का होने के कारण कोई व्यक्ति राजनीति में आने लायक न समझा जाये, पर उसके राजनीति में स्थान पाने का कारण उसका परिवार नहीं होना चाहिए। माता या पिता का राजनीतिक वर्चस्व संतान को राजनीति में योग्यता का प्रमाणपत्र नहीं देता। व्यक्ति को अपनी क्षमता प्रमाणित करने का अवसर मिलना ग़लत नहीं है, पर इसका आधार किसी राजनीतिक परिवार का होना नहीं हो सकता। आज यदि प्रधानमंत्री गैर-राजनीतिक परिवारों के युवाओं को आगे लाने की बात करते हैं तो उन्हें अपनी करनी से भी यह दिखाना होगा कि वे सिर्फ जुमलेबाजी नहीं कर रहे। पर भाजपा तथा अन्य राजनीतिक दलों में जो हो रहा है वह इस संदर्भ में निराश ही करता है। यह स्थिति कब और कैसे बदलेगी, यह सोचना होगा हमें—यानी हर नागरिक को।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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