त्रिमोहिनी संगम की आभा
आज का यह लेखन कोसी और गंगा नदी के संगम स्थल की यात्रा की कहानी है। हाल ही में शोध कार्य के सिलसिले में सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत साधु झा सर पूर्णिया आए थे। हमने उनके संग ही उस जगह की यात्रा की, जहां गंगा से मिलती है कोसी नदी। खुद पर गुस्सा भी आया कि अब तक ‘त्रिमोहिनी संगम’ क्यों नहीं गया। बिहार के कटिहार जिला स्थित कुर्सेला के पास गंगा के साथ कोसी नदी संगम करती है, जो ‘त्रिमोहिनी संगम’ के नाम से जानी जाती है। कोसी नदी और गंगा नदी जहां संगम करती हैं, वहां की धारा देखने लायक है। वहां जब हम पहुंचने की जुगत में थे और बालू वाले इलाके में फंस गए थे, तो उसी दौरान तीन लड़के दूर के किसी गांव से इसी संगम में डुबकी लगाने आ रहे थे और इस तरह 11वीं में पढ़ने वाले ये तीन किशोर हमारे गाइड बन गए, फिर क्या था, इस अंचल की समसामयिक कहानियों का पिटारा ही खुल गया।
करीब तीन किलोमीटर पैदल-पैदल धूल उड़ाते जब हम ‘त्रिमोहिनी संगम’ पहुंचे तो वहां की हवा ने हमारी सारी थकान को मानो हर लिया। दोनों नदियों का पानी अपने रंग की वजह से पहचाना जा सकता है, नील वर्ण में गंगा तो मटमैली कोसी। हम जब भी कोसी-गंगा की बात करते हैं तो बाढ़ पर अपनी बात रोक देते हैं लेकिन नदियों के जीवन पर और नदियों के आसपास के जीवन पर बातें बहुत कम होती हैं।
उम्मीद है आने वाले समय पर सदन सर इस पर बातें करें। अपने लिए सदन सर उन गिने-चुने इतिहासकारों में से हैं, जो अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में भी गंभीर शोधपूर्ण लेखन करते रहे हैं। उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की आंचलिक आधुनिकता का विश्लेषण करते हुए सदन सर रेणु के अनोखे लहजे, कोसी अंचल की सांस्कृतिक स्मृति और कहन के अनूठेपन को व्याख्यायित करते हैं।
कोसी गंगा संगम पहुंच कर मुझे अहसास हुआ कि यही रास्ता हमें कोसी अंचल की कथा सुना सकता है। रेणु कहते थे कि ‘घाट न सूझे बाट न सूझे, सूझे न अपन हाथ’ कुर्सेला पुल से जब हम संगम की तरफ भागे जा रहे थे तो उनकी यही पंक्ति अपने कानों में गूंज रही थी। यहां एकतरफ़ मक्का, गेहूं उपज रहा है तो एकतरफ तरबूज। दरअसल, नदी के व्यवहार को नदी के साथ रहकर ही समझा जा सकता है, नदी ही लोक है, नदी ही कथा है। इसके लिए नदी के आसपास प्रवास करना होगा। एक दिन की यात्रा से यह संभव नहीं है, कोसी के पास जाना होगा कई बार...
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