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खुफिया तंत्र की मजबूती से थमेंगे आतंकी हमले

कारगिल युद्ध के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने दिवंगत के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल समीक्षा समिति (केआरसी) का गठन किया था। खुफिया विभाग की कारगुजारी से संबंधित इन निष्कर्षों को याद करना जरूरी है। केआरसी रिपोर्ट में कहा गया...
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कारगिल युद्ध के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने दिवंगत के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल समीक्षा समिति (केआरसी) का गठन किया था। खुफिया विभाग की कारगुजारी से संबंधित इन निष्कर्षों को याद करना जरूरी है। केआरसी रिपोर्ट में कहा गया है, ‘विभिन्न स्तरों पर एजेंसियों और उनकी दी जानकारी इस्तेमाल करने वालों के बीच समन्वय या उद्देश्य-उन्मुख संपर्क के लिए कोई संस्थागत तंत्र नहीं है।

सी. उदय भास्कर

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एक दुर्लभ और स्वागत योग्य घटनाक्रम में, केंद्र सरकार ने पहलगाम आतंकी हमले के दो दिन बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में बंद कमरे में सर्वदलीय बैठक बुलाई । मीडिया रिपोर्टों में विचार-विमर्श के मुख्य पहलुओं पर प्रकाश डाला गया। पहली बात, सभी राजनीतिक दल इस बात पर सहमत थे कि भारत को आतंकवाद से एकजुट होकर लड़ना चाहिए। मीडिया को जानकारी देते हुए केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा, ‘सभी दलों के नेताओं ने एक स्वर में कहा है कि सरकार जो भी कदम उठाएगी, हम उसका समर्थन करेंगे।’

इस आम सहमति का सावधानी से स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि कई नेताओं ने अपनी सार्वजनिक टिप्पणियों में राष्ट्रीय एकता पर ध्यान केंद्रित किए रखा और हमले के बाद अपने एतराज जताने से बचने की कोशिश की है। वे सांप्रादायिक व धार्मिक उन्माद को भड़काने से काफी हद तक दूर रहे, जो पिछले एक दशक से घरेलू राजनीतिक विमर्श पर हावी है। इस प्रवृत्ति ने भारत के सामाजिक सौहार्द को कमजोर किया है, जिसका आंतरिक सुरक्षा पर क्षयकारी प्रभाव पड़ता है।

इस तथ्य के मद्देनज़र कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक में शामिल न होकर बिहार में चुनावी रैली में भाग लेना चुना, इसको लेकर विपक्षी दलों ने आलोचना की, उनकी अनुपस्थिति ने बैठक के महत्व को कम कर दिया। सवाल उठता है अगर पहलगाम हमले की वजह ने प्रधानमंत्री को सऊदी अरब की अपनी यात्रा बीच में ही स्थगित करने को प्रेरित किया, तो क्या ऐसे में एक सूबे की चुनावी रैली को अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी?

सर्वदलीय बैठक में सरकार द्वारा पहलगाम मामले में हुई चूक की एक दुर्लभ स्वीकारोक्ति भी देखी गई, जिसकी वजह से यह त्रासदी घटित हुई। एक नेता, जो कि 'सत्तारूढ़ गठबंधन' का बताया जा रहा है, उसने कथित तौर पर वाकपटुता बरतते हुए कहा, ‘अगर कुछ भी गलत नहीं हुआ होता, तो हम यहां क्यों बैठे होते? कहीं न कहीं चूक हुई है, जिसका हमें पता लगाना होगा।’ यह जून, 2020 में गलवान संघर्ष के बाद जो हुआ, उससे थोड़ा-सा अलग लेकिन सकारात्मक बदलाव है। चूकें, कहने को, खुद-ब-खुद समीक्षा करने योग्य हैं।

विपक्षी दलों के सवालों का जवाब देते हुए सरकार ने कहा कि स्थानीय अधिकारियों ने बैसरन घास मैदान को सैलानियों के लिए खोलने से पहले सुरक्षा एजेंसियों को सूचित नहीं किया, जिस तक पहुंच आमतौर पर जून में अमरनाथ यात्रा तक प्रतिबंधित रहती है। देखा जाए तो, यह एक अजीबोगरीब दावा है, जबकि 2019 में संयुक्त जम्मू-कश्मीर का विभाजन करने के बाद कश्मीर में पर्यटन को बढ़ावा देने में भारी निवेश किया गया है। बैठक में यह भी खुलासा हुआ कि जिस जगह पर आतंकवादियों ने हमला किया था, वहां तक पहुंचने के लिए ‘45 मिनट की चढ़ाई करनी पड़ती है और इस प्रकार की आपात स्थितियों को तेज़ी से निपटने के वास्ते कोई मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) पहले से मौजूद नहीं थी’।

यह देखते हुए कि कश्मीर में उच्च घनत्व वाली सुरक्षा और खुफिया ग्रिड काम करती है ये चूकें साफ तौर पर असंगत हैं। यहां तक कि ऐसे मैदान में, जो भारी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता हो, वहां अचानक पैदा होने वाली किसी चिकित्सा संबंधी आपात स्थिति बनने की सूरत में, एक बुनियादी पर्यटक आपातकालीन निकासी प्रोटोकॉल पहले से तैयार रखना राजकीय तैयारियों का हिस्सा होना चाहिए था। क्या यह चूकें, जो निर्दोष पर्यटकों के संहार का कारण बनीं, उनकी निष्पक्ष और त्वरित तरीके से पहचान की जाएगी? लगता तो नहीं और मुझे खुशी होगी अगर मैं गलत साबित होऊं। पिछला रिकॉर्ड उत्साहजनक नहीं है। भारत विगत में भी कमजोर या अपर्याप्त खुफिया सूचनाओं के कारण गंभीर सुरक्षा झटके झेलता आया है, जिन्हें कार्रवाई योग्य न मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता रहा।

अक्तूबर, 1947 के बाद से, जब कश्मीर के लिए पहला युद्ध लड़ा गया था, से लेकर अक्तूबर, 1962 तक (जब चीन ने भारत को 'हैरान' किया) और 1999 की गर्मियों में कारगिल की पहाड़ियां कब्जाने तक खुफिया चूक भारतीय सुरक्षा गाथा की एक बारम्बार दोहराई गई ‘खासियत’ रही है। कारगिल युद्ध के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने दिवंगत के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल समीक्षा समिति (केआरसी) का गठन किया था। खुफिया विभाग की कारगुजारी से संबंधित इन निष्कर्षों को याद करना जरूरी है। केआरसी रिपोर्ट में कहा गया है, ‘विभिन्न स्तरों पर एजेंसियों और उनकी दी जानकारी इस्तेमाल करने वालों के बीच समन्वय या उद्देश्य-उन्मुख संपर्क के लिए कोई संस्थागत तंत्र नहीं है। इसी प्रकार, एजेंसियों को काम सौंपने, उनके प्रदर्शन की निगरानी करने और उनकी गुणवत्ता का मूल्यांकन करने में उनके रिकॉर्ड की समीक्षा करने के वास्ते कोई तंत्र नहीं है। न ही एजेंसियों के समग्र कामकाज की कोई निगरानी है।’ नीतियों में सुधार के लिए इस किस्म का स्पष्ट आकलन आने के एक-चौथाई सदी बाद भी, जिसे अपारदर्शी खुफिया पारिस्थितिकी तंत्र में लागू किया जाना था, इस बात के बहुत कम ठोस सबूत हैं कि समुचित कदम उठाए गए होंगे।

हां, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूरक के तौर पर राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (एनटीआरओ) जैसी अधिक एजेंसियां बनाई गई हैं, लेकिन चूकें फिर भी जारी रहीं। संसद पर हमला (दिसंबर, 2001), मुंबई आतंकवादी हमला (नवंबर, 2008), पुलवामा आत्मघाती बम विस्फोट (फरवरी, 2019) और अब पहलगाम संहार, इस सूची का हिस्सा हैं।

भारतीय पुलिस सेवा द्वारा संचालित राष्ट्रीय खुफिया तंत्र की एक ‘ब्लू-रिबन पैनल’ द्वारा गहन समीक्षा करवाए जाने की आवश्यकता है, जो केआरसी द्वारा अवलोकनों/सिफारिशों को लागू करे और बहु-विभागीय सुधार कर इसको नया स्वरूप दे, जैसा कि विश्वभर में किया जाता है। सरकार के पास अनेक मूल्यवान रिपोर्टें और सिफारिशें पहले से मौजूद हैं, इन पर फिर से विचार करने की जरूरत है।

खुफिया एजेंसियों में काम कर चुके विशेषज्ञों ने सुधार और सुधारों पर अमल करने लिए मूल तौर-तरीकों की पहचान कर रखी है। इसके लिए योग्यता आधारित खुली भर्ती और बेहतर प्रशिक्षण, तथा तकनीकी खुफिया (टेकइंट) और मानव खुफिया (ह्यूमिंट) क्षमताओं के मौजूदा स्तरों को ऊपर उठाने के लिए जरूरी निरंतर धन मुहैया करवाए जाने के अलावा मौजूदा खुफिया इनपुट का बेहतर समन्वय और विश्लेषण करना होगा।

पुलिस को माफिक बैठती यथास्थिति और राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा इसको मौन स्वीकृति वाली मौजूदा स्थिति को बदलने की जरूरत है। उम्मीद है कि पहलगाम हमला एक उत्प्रेरक साबित होगा।

लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं।

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