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अंकों की होड़ से कुंठित होती प्रतिभाएं

बोर्ड परीक्षाएं
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भारत में बोर्ड परीक्षाएं सिर्फ शैक्षणिक मूल्यांकन नहीं, बल्कि बच्चों, परिवारों और समाज के लिए एक भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक अनुभव है, जो उनके आत्मविश्वास, भविष्य और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती हैं।

डॉ. जगदीप सिंह

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भारत में बोर्ड परीक्षाएं, विशेष रूप से कक्षा 10 और 12 की, न केवल शैक्षिक उपलब्धियों का मापदंड मानी जाती हैं, बल्कि ये बच्चों, उनके परिवारों और समाज के लिए एक भावनात्मक और सामाजिक घटना भी हैं। इन परिणामों का प्रभाव बच्चों की मानसिक स्थिति, उनके आत्मविश्वास और भविष्य की दिशा पर गहरा असर डालता है। मई-जून के महीने में हिंदुस्तान के हर घर में दस्तक देती है एक जिज्ञासा एक उत्सुकता, एक भय। हर माता-पिता, हर बोर्ड के एग्जाम में बैठा बच्चा हर बीतते हुए दिन को एक ओबसेसन, एक डिप्रेशन एक इनसिक्योरिटी में काट रहा होता है ...कि क्या होगा? साथ ही, समाज में इन परिणामों को लेकर बनने वाली धारणाएं और अपेक्षाएं सामाजिक संरचना को भी प्रभावित करती हैं।

भारत में बोर्ड परीक्षा के परिणामों को अक्सर बच्चे की बुद्धिमत्ता और भविष्य की सफलता का पैमाना मान लिया जाता है। माता-पिता, शिक्षक और समाज की ओर से उच्च अंक प्राप्त करने का दबाव बच्चों में तनाव, चिंता और अवसाद को बढ़ा सकता है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 60 प्रतिशत से अधिक किशोर परीक्षा परिणामों से पहले और बाद में मानसिक तनाव का अनुभव करते हैं।

अच्छे परिणाम बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ाते हैं, लेकिन कम अंक या असफलता आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा सकती है। कई बच्चे समाज और परिवार की तुलनात्मक मानसिकता के कारण खुद को कमतर महसूस करते हैं, जिससे दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकते हैं। कक्षा 12 के परिणाम मनचाहे कॉलेज प्रवेश और करिअर विकल्पों को निर्धारित करते हैं। खराब परिणामों के कारण बच्चे भविष्य को लेकर अनिश्चितता और असुरक्षा का अनुभव करते हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य को और प्रभावित करता है।

कभी नहीं सुना गया कि अमेरिका में बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट आ रहे हैं या यूके में लड़कियों ने बाजी मार ली है या आस्ट्रेलिया में किसी छात्र के 99.5 प्रतिशत अंक आए हैं। माता-पिता इस तरह बच्चों को पाल रहे हैं कि कब उनकी अधूरी आकांक्षाएं पूरी होंगी। हमारे पूंजीवादी इनवेस्टर्स को कैसा कामगार चाहिए, इस हिसाब से शिक्षा और उसके उद्देश्य तय हो रहे हैं। एक परिवार सुख-चैन त्याग, दिन-रात खट के, संघर्षों, घोर परिश्रम में गुज़र जाता है। उस परिवार का पैसा और सहज जीवन इसलिये भेंट चढ़ जाता है क्योंकि आईटी को एक बेहतरीन सॉफ्टवेयर डेवेलपर चाहिए या किसी को बेस्ट ब्रेन चाहिए या कंपनी को बेहतरीन गेम डिजाइनर चाहिए।

हमारी शिक्षा व्यवस्था व उसके आदर्श कहां खड़े हैं? हमारे स्कूल देश के आदर्श नागरिक नहीं, देश के बेहतर कामगार बनाने में दिन-रात एक करके जुटे हुए हैं और माता-पिता बच्चों को इंसान नहीं, एक मेकैनिकल डिवाइस बनाने को प्रतिज्ञाबद्ध हैं। बच्चों को सहजता से जीने दो, दुनिया भागी नहीं जा रही। उन्हें बेस्ट एम्प्लॉय नहीं, बेस्ट सिटीजन बनाने की कोशिश कीजिए।

बच्चों की भी खुद से कुछ आकांक्षाएं होती हैं, अपने सपने होते हैं। उनका हमारे लिये कोई अर्थ नहीं, लेकिन बच्चों के लिये वे जन्नत से कम नहीं। हम उन्हें मनोरोगी न बनाएं। ये एक हताशा बढ़ाने वाला ही तो है—टॉपर्स की खबरें, उन्हें मिठाई खिलाते माता-पिता की फोटो। क्या ये एक सामान्य स्तर के छात्रों को मानसिक हीनता की अनुभूति नहीं देंगे? टॉपर तो सिर्फ दो-चार होंगे बाकी देश का बोझ तो 99 प्रतिशत इन्हीं फूल से कोमल सामान्य बच्चों ने ही उठाना है। उनकी मुस्कान बनी रहे। देश से उसकी सृजनात्मक शक्ति को विस्तार दें।भविष्य में वे कुछ भी बन जाएं, एमएनसी में सीईओ हो जाएं पर जो बचपन की रिक्तता हमने उन्हें दे दी है, वह उन्हें जीवनभर खलेगी और कुंठाओं के रूप में फलेगी। हम जो बेस्ट सीईओ मिलेंगे, जिनकी प्राथमिकता उनकी कंपनी होगी, देश नहीं।

माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों पर अनुचित दबाव डालने के बजाय उनकी रुचियों और क्षमताओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए। परिणामों को केवल एक मानक नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा मानना चाहिए। बोर्ड परीक्षाओं को केवल अंकों पर केंद्रित करने के बजाय, समग्र विकास पर ध्यान देना चाहिए। करिअर के विकल्पों को बढ़ावा देना और कौशल-आधारित शिक्षा को प्राथमिकता देना समाज और बच्चों के लिए लाभकारी होगा।

समाज को यह समझने की जरूरत है कि हर बच्चा अलग है और उसकी सफलता केवल अंकों से नहीं मापी जा सकती। मीडिया और सोशल मीडिया पर सकारात्मक कहानियों को प्रचारित करना चाहिए, जो असफलता से उबरने और वैकल्पिक रास्तों को अपनाने की प्रेरणा दें।

भारत में बोर्ड परीक्षा परिणाम न केवल एक शैक्षिक घटना है, बल्कि इनका बच्चों की मानसिक स्थिति और समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह जरूरी है कि हम परिणामों को एक अंत के रूप में देखने के बजाय, उन्हें एक शुरुआत के रूप में लें। बच्चों को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनकी कीमत केवल अंकों से नहीं, बल्कि उनकी मेहनत, रचनात्मकता और दृढ़ता से तय होती है। समाज, परिवार और शिक्षा प्रणाली को मिलकर एक ऐसी संस्कृति बनानी होगी, जो बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत और आत्मविश्वास से भरा बनाए।

लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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