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बड़ी चुनौती है जलवायु परिवर्तन से निपटना

ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन
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ज्ञानेन्द्र रावत

जलवायु परिवर्तन अब समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। इसके लिए प्रकृति प्रदत्त मानव संसाधनों का बेतहाशा उपयोग और जंगलों का निर्ममता से किया गया अत्यधिक कटान तो जिम्मेदार है ही, इसमें भौतिक संसाधनों के सुख की मानवीय चाहत और विभिन्न क्षेत्रों के प्रदूषण के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता। बढ़ता वैश्विक तापमान और उसके चलते मौसम में आये अप्रत्याशित बदलाव का दुष्प्रभाव जीवन के हर पक्ष पर पड़ रहा है। इससे हमारा पर्यावरण, जीवन, रहन-सहन, भोजन, पानी, और स्वास्थ्य पर प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

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तात्पर्य यह कि जीवन का कोई भी पक्ष इसके दुष्प्रभाव से अछूता नहीं है। असलियत में जलवायु परिवर्तन से बदलता मौसम भोजन, स्वास्थ्य और प्रकृति को जो नुकसान पहुंचा रहा है, उसकी भरपाई फिलहाल तो आसान नहीं दिखाई देती। हां, इसके चलते प्राकृतिक असंतुलन के कारण जन्मी आपदाएंं भयावह रूप जरूर अख्तियार करती जा रही हैं जो तबाही का सबब बन रही हैं। धरती के लिए यह चेतावनी भी है कि अब भी समय है, संभल जाओ, यदि अब भी नहीं संभले, तो यह संकट लगातार गहराता चला जायेगा। तब इसका मुकाबला कर पाना बहुत मुश्किल होगा।

आजादी के बाद के 70 सालों में जलवायु परिवर्तन से भारत में ही आपदाओं में आठ गुणा से भी ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज हुई है। इसका खुलासा पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में कार्यरत संगठन ‘आई फारेस्ट’ की रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद के शुरुआती सालों में जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदा यानी बाढ़, चक्रवात, हीटवेव आदि की तादाद कुल मिलाकर 27 ही थी, लेकिन उसके बाद के बरसों में इनकी तादाद बढ़कर आठ गुणा का आंकड़ा पार कर गयी। इसमें 1998 में गुजरात में व 1999 में ओडिशा में आये भीषण चक्रवात से हुई तबाही, 2013 में उत्तराखंड में आई जल प्रलय और 2014 में आये हुदहुद और अम्फान नामक आये भीषण चक्रवात से हुई तबाही व 2019 में जून से सितम्बर के बीच मानसून मौसम में 110 फीसदी से अधिक हुई बारिश से देश के 14 राज्य बाढ़ के भीषण प्रकोप से प्रभावित रहे। फानी तूफान के कहर तथा 1998, 2002, 2003 और 2015 में हुई भीषण तापमान वृद्धि और भीषण लू की घटनाओं को लोग भूले नहीं हैं।

यदि हम वर्ष 1991 से 2000 तक जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं का जायजा लें तो इस दौरान 96 आपदाओं का देश को सामना करना पड़ा। जबकि उसके बाद वर्ष 2020 तक देश की जनता को 210 आपदाओं का कहर झेलना पड़ा। वर्ष 2024 तो देश के लिए अभूतपूर्व गर्मी की मार वाला रहा, अप्रैल से जुलाई तक सबसे खराब और सबसे लम्बे समय तक चलने वाली गर्मी की लहरों यानी भयंकर लू की मार सहने को देश विवश हुआ। इस दौरान देश के 741 जिलों में से लगभग 500 जिलों का दैनिक तापमान कम से कम 40 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। पर्यावरण और मानवाधिकार संगठन ‘जर्मन वॉच’ के क्लाइमेट इंडेक्स से खुलासा हुआ है कि जलवायु से जुड़ी आपदाओं में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में जिनमें डोमिनिका, चीन, होंडुरास, म्यांमार, इटली, ग्रीस, स्पेन, वानुआतू और फिलीपींस शामिल हैं, में छठे स्थान पर है और यहां साल-दर-साल आपदाएं विकराल होती जा रही हैं।

बीते तीन दशकों में अकेले भारत में जलवायु परिवर्तन से जन्मी मौसमी आपदाओं से देश को कुल 180 अरब डालर का नुकसान हुआ और औसतन 4,66,45,209 लोग प्रभावित हुए। 1993 से 2022 के बीच देश में हुई चरम मौसमी घटनाओं में करीब 80 हजार लोगों की जानें गयीं। जबकि दुनिया में आठ लाख लोग मौत के मुंह में चले गये और 4.2 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। इन आपदाओं से सालाना 2000 डॉलर का देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ रहा है, साथ ही 2675 जिंदगियां हर साल इनकी शिकार होती हैं।

इस बारे में जलवायु विशेषज्ञ लारा शेफर कहते हैं कि समूची दुनिया में जलवायु संकट तेजी से खतरनाक होता जा रहा है। पिछले तीन दशक सबूत हैं कि ग्लोबल साउथ के देश विशेष रूप से चरम मौसमी घटनाओं से जूझ रहे हैं। हम जलवायु संकट के अप्रत्याशित और महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर रहे हैं। यह समाज को अस्थिर करने में अहम भूमिका निभाएगा। वहीं संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस का कहना सही है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य अब भी पहुंच से बाहर हैं। यही कारण है कि जलवायु आपदा टालने में दुनिया पिछड़ रही है। समय की मांग है कि समूचा विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये ताकि वे समझ सकें कि इस दिशा में हम पिछड़ रहे हैं और तेजी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। यदि वैश्विक प्रयास तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे तो भी दुनिया के 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह सबसे बड़ी समस्या होगी। सबसे बड़ा सवाल लोगों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाने का है। यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का भी मानना है कि दुनिया के देशों का दायित्व है कि वे अपने नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाने का हर संभव प्रयास करें।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् हैं।

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