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शहरीकरण व जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझें

भारतीय शहर मानसून में जलभराव बढ़ने की जिस चुनौती को झेल रहे हैं, वह अतार्किक शहरी नियोजन, बुनियादी ढांचे की अनदेखी, नगर निगम के नियमों के उल्लंघन, हरियाली और खुले क्षेत्रों के कटाव, बड़े पैमाने पर कंक्रीट का उपयोग आदि...
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भारतीय शहर मानसून में जलभराव बढ़ने की जिस चुनौती को झेल रहे हैं, वह अतार्किक शहरी नियोजन, बुनियादी ढांचे की अनदेखी, नगर निगम के नियमों के उल्लंघन, हरियाली और खुले क्षेत्रों के कटाव, बड़े पैमाने पर कंक्रीट का उपयोग आदि का संयुक्त परिणाम है। इसके ऊपर जलवायु परिवर्तन भी है, जो स्वयं मानव निर्मित समस्या है।

देश में चल रहे मानसून मौसम में पूरे देश में सामान्य से अधिक वर्षा हुई है, जैसा कि भारत के मौसम विज्ञान विभाग ने पूर्वानुमान दिया था। कई राज्यों में भारी बारिश हुई है, जिसमें पर्वतीय क्षेत्रों में बारिश के कारण आपदाएं जैसे भूस्खलन और अचानक बाढ़ की घटनाएं सामने आई हैं।

हिमालयी क्षेत्र—हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर में लगातार, व्यापक और तीव्र बारिश हुई है। इस मौसम की सबसे भयंकर आपदाओं में से एक उत्तरकाशी जिले के धराली में आई, जहां कथित रूप से बादल फटने से आई अचानक बाढ़ ने जान-माल का नुकसान किया। यह क्षेत्र की पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील स्थिति में अनियंत्रित विकास के खतरे की गंभीर याद दिलाता है।

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मैदानों में भी मानसून का कहर जारी है, जहां बड़े शहरों में सड़कों पर जलभराव, जान-माल के नुकसान और पुरानी संरचनाओं का ढह जाना देखा जा रहा है। सोशल मीडिया पर जलजमाव के कारण भारी ट्रैफिक जाम, सड़कों और राजमार्गों पर कार और ट्रकों का सिंक होल में गिरना, स्कूलों और कार्यालयों में फंसे लोग तथा बिजली की चपेट में आने जैसी दुखद घटनाओं की तस्वीरें वायरल हो रही हैं।

कुछ नए बने हवाई अड्डों की इमारतें लगातार बारिश को सहन नहीं कर पाईं। प्रभावित शहर जैसे बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई और मुंबई आर्थिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण केंद्र और आउटसोर्सिंग हब हैं।

बारिश से होने वाले प्रभावों को केवल ‘प्रकृति का क्रोध’ मान लेना गलत होगा। जो कुछ भारतीय शहर मानसून में जलभराव बढ़ने की जिस चुनौती को झेल रहे हैं, वह अतार्किक शहरी नियोजन, बुनियादी ढांचे की अनदेखी, नगर निगम के नियमों के उल्लंघन, हरियाली और खुले क्षेत्रों के कटाव, बड़े पैमाने पर कंक्रीट का उपयोग आदि का संयुक्त परिणाम है। इसके ऊपर जलवायु परिवर्तन भी है, जो स्वयं मानव निर्मित समस्या है। दशकों से वैज्ञानिक अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि की चेतावनी दे रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन का परिणाम है।

एक चरम मौसम घटना तब होती है जब किसी स्थान पर सामान्य मात्रा से कहीं अधिक वर्षा या हिमपात होता है, जैसा कि हमारे कई शहरों में हो रहा है। किसी शहर या क्षेत्र की औसत वर्षा सामान्य सीमा में रह सकती है, लेकिन कुछ दिनों या स्थानों पर बहुत कम समय में भारी वर्षा होती है, जिससे जलजमाव और स्थानीय बाढ़ होती है।

यह स्थिति केवल बिगड़ती ही जाएगी क्योंकि भारत में तीव्र गति से शहरीकरण हो रहा है। वर्तमान अनुमान के अनुसार, 2050 तक लगभग एक अरब भारतीय शहरों में रह रहे होंगे। लेकिन अगर भारतीय शहर अपनी वर्तमान विकास दिशा पर चलते रहे, तो वे अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुंच पाएंगे, जैसा कि विश्व बैंक की हाल की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत के शहर अत्यधिक जनसंख्या घनत्व और बड़ी संपत्ति के केंद्र होने के कारण जलवायु प्रभावों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। शहरों में ग्रामीण इलाकों की तुलना में जलवायु प्रभाव और आपदाएं अधिक होती हैं क्योंकि वे अत्यधिक आपस में जुड़ी हुई प्रणालियों पर निर्भर हैं। जब मुख्य बुनियादी ढांचा जैसे राजमार्ग या बिजली ग्रिड टूटते हैं, तो यह एक शृंखला प्रतिक्रिया को जन्म देता है जिससे बुनियादी ढांचे की विफलता होती है और शहर ठप हो जाता है। बाढ़ सड़कें बंद कर व यातायात बाधित कर सकती है, बिजली लाइनों को प्रभावित और आर्थिक नुकसान कर सकती है, जैसा कि वर्तमान में देखा जा रहा है।

हर साल मानसून के कारण हो रही इस अराजकता को देखते हुए स्पष्ट है कि हमारे शहर आगे के शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन की दोहरी चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं। शहरों के पास इन प्रभावों को प्रबंधित करने की सीमित क्षमता है। उनका नियोजन और प्रबंधन प्रणाली तेजी से हो रहे शहरीकरण, जलवायु प्रभावों और विकास तथा सेवाओं की मांग के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही है।

मौजूदा प्रणाली पुरानी हो चुकी है—कई मामलों में, ये ब्रिटिश राज काल से विरासत में मिली हैं। उदाहरण के लिए, हैदराबाद की नालियां और वर्षाजल निकासी प्रणाली सदी पहले सर एम विश्वेश्वरैया द्वारा लगभग पांच लाख की आबादी के लिए डिज़ाइन की गई थी। उस समय यह प्रणाली आधुनिक मानी जाती थी और भविष्य के विकास तथा सौंदर्यशास्त्र व शहरी नियोजन जैसी चिंताओं को ध्यान में रखती थी। हैदराबाद को झीलों और बागों का शहर माना जाता था, जहां प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली अच्छी तरह से जुड़ी हुई थी। यह सब तेजी से बढ़ते भौतिक संरचना और जनसंख्या की उच्च घनत्व के कारण नष्ट हो गया। परिणामस्वरूप बाढ़ आती है।

यह कहानी लगभग हर बड़े भारतीय शहर की है। कई शहर तटीय क्षेत्रों या बड़े और छोटे नदियों के बाढ़ से बने मैदानों के किनारे स्थित हैं। शहरीकरण से सतह जल अवशोषण कम हो जाता है, जिससे पहले कम जोखिम वाले क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। शहर लगातार बाढ़ मैदानों पर कब्जा कर रहे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1985 से 2015 के बीच, बाढ़-रहित क्षेत्रों में बसाव क्षेत्र 82 प्रतिशत और उच्च बाढ़ जोखिम वाले क्षेत्रों में 102 प्रतिशत बढ़ा है। जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण के संयुक्त प्रभाव से वर्षाजल संबंधी या सतही जल बाढ़ का खतरा कई गुना बढ़ने की संभावना है।

नि:संदेह, इस समस्या का समाधान शहरों को जलवायु-लचीला बनाकर तैयार करना है। इसके लिए हमें शहर-विशिष्ट जलवायु कार्ययोजनाएं बनानी होंगी। वर्तमान में ये प्रयास न के बराबर हैं। सभी राज्यों के पास सामान्य कार्ययोजनाएं हैं, जिनका अधिकांशतः क्रियान्वयन कमजोर है या वे केवल कागजों तक सीमित हैं। शहरी क्षेत्रों की चुनौतियां विविध हैं, जिनके लिए समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है। स्थानीय जोखिम इतिहास के आधार पर शहरी बाढ़ से निपटने के लिए विशिष्ट रणनीतियां बनानी होंगी। पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भी इसी तरह की कार्ययोजनाएं आवश्यक हैं।

शहरों को जलग्रहण क्षेत्र आधारित बाढ़ सुरक्षा योजनाएं बनानी चाहिए ताकि बाढ़, मैदानों के विकास और वर्षाजल प्रबंधन को नियंत्रित किया जा सके। शहरी प्राधिकरणों को नालियों, बाढ़ से बचाव हेतु बांधों और बाढ़ जल को अवशोषित करने वाले खुले स्थानों के संरक्षण या निर्माण, तथा सतत शहरी जल निकासी प्रणाली में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए। चेन्नई ने जोखिम आकलन के आधार पर शहर-विशिष्ट जलवायु कार्ययोजना विकसित करने की शुरुआत की है। कोलकाता बाढ़ पूर्वानुमान और चेतावनी प्रणाली पर काम कर रहा है।

शहरों के लिए जलवायु कार्ययोजनाएं बिना संबंधित शासन सुधारों के सफल नहीं हो सकतीं। वर्तमान में बाढ़ सुरक्षा, शहरी नियोजन, नालियों आदि से संबंधित कई एजेंसियां हैं, जो अक्सर विरोधाभासी कार्य करती हैं। इसके अतिरिक्त, सरकारी एजेंसियों को जलवायु कार्ययोजनाओं को बनाने और लागू करने के लिए वैज्ञानिकों, नागरिक समाज और व्यवसायों के साथ काम करना होगा। शहरी बाढ़ या पहाड़ों में निरंतर आपदाओं का कोई आसान समाधान नहीं है।

लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।

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