योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
कुछ दिन पूर्व एक मित्र आकर बोले कि आप टीवी पर होने वाली बहसों के बारे में क्या सोचते हैं? उन्हें उत्तर दिया कि मुझे तो इन स्तरहीन और व्यर्थ की बहसों को सुनकर लगता है कि टीवी की बहसों में भाग लेने वाले अधिकांश लोग ‘वाणी की मिठास और मर्यादा’ को जैसे तिलांजलि ही दे बैठे हैं, इसलिए मैंने तो इन्हें सुनना ही बंद कर दिया है।
यह बात आई-गई हो गई थी, लेकिन आज अनायास ही एक ऐसी कुरेदने वाली बोधकथा पढ़ने को मिली, जिसने कुछ दिनों पूर्व मित्र से हुई वार्ता को प्रासंगिक बना दिया और मन कह उठा कि मैं अपने सुधी पाठकों से अपने ‘अंतर्मन’ की बात को साझा करूं। बोधकथा यूं है :-
एक गांव में किसी आदमी ने अफवाह फैलाई कि उसके पड़ोस में रहने वाला नौजवान चोर है। यह बात दूर-दूर तक फैल गई और आस-पास के लोग उस बेचारे नौजवान को चोर मानकर उससे बचने लगे। नौजवान परेशान हो गया, कोई उस पर विश्वास ही नहीं करता था। तभी गांव में चोरी की एक वारदात हुई और शक के आधार पर उस नौजवान को गिरफ्तार कर लिया गया, परंतु कुछ दिनों के बाद, सबूत के अभाव में वह निर्दोष साबित हो गया। निर्दोष साबित होने के बाद वह नौजवान भी चुप नहीं बैठा, बल्कि उस आदमी पर गलत आरोप लगाने के लिए मुकदमा दायर कर दिया।
पंचायत में उस आदमी ने अपने बचाव में सरपंच से कहा, ‘मैंने युवक के बारे में जो कुछ कहा था, वह एक टिप्पणी से अधिक कुछ नहीं था और किसी को नुकसान पहुंचाना तो मेरा मकसद ही नहीं था।’
सरपंच ने उस आदमी से कहा कि वह एक कागज के टुकड़े पर वो सब बातें लिखें, जो उसने उस नौजवान के बारे में कही थीं और जाते समय उस कागज के टुकड़े-टुकड़े करके घर के रास्ते पर फ़ेंक दें। सभी कल मुकदमे का निर्णय सुनने के लिए आ जाएं। आरोप लगाने वाले उस व्यक्ति ने वैसा ही किया।
अगले दिन सरपंच ने उस आदमी से कहा कि मेरा फैसला सुनने से पहले आप बाहर जाएं और उन कागज के फटे टुकड़ों को, जो आपने कल बाहर फ़ेंक दिए थे, इकट्ठा कर के मेरे पास ले आएं। अचंभे में डूबे उस आदमी ने कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। उन टुकड़ों को तो हवा कहीं से कहीं उड़ा कर ले गई होगी। अब तो वे टुकड़े नहीं मिल सकेंगे। मैं कहां-कहां उन्हें खोजने के लिए जाऊंगा?
सरपंच ने कहा, ‘ठीक इसी तरह, तुम्हारी एक सरल-सी टिप्पणी भी किसी का मान-सम्मान उस सीमा तक नष्ट कर सकती है, जिसे वह व्यक्ति किसी भी दशा में दोबारा प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकता। तुम्हारी इस बात ने युवक की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाई है। तुम वाणी की मर्यादा तोड़ने के दोषी हो, इसलिए दंड मिलेगा। यदि किसी के बारे में कुछ अच्छा नहीं कह सकते, तो चुप रहना जरूरी है। वाणी पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए, ताकि हम शब्दों के दास न बनें।’
सच यह है कि संतों और महात्माओं ने तो हर युग में यही कहा है कि वाणी पर नियंत्रण और मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मनुष्य को सम्मान दिलाता है और इसके विपरीत आचरण अनादर का कारण बन जाता है। संत कबीर तो डंके की चोट पर कहते आए हैं :-
‘सबद सहारे बोलिए, सबद के हाथ न पाव।
एक सबद औषधि करै, एक सबद दे घाव॥’
निःसंदेह, वाणी से निकला एक कठोर शब्द घाव करके ‘महाभारत’ करा सकता है, यह इतिहास बताता है। इसके विपरीत वाणी की मर्यादा रखी जाए, तो बड़ी-बड़ी लड़ाइयां रोकी जा सकती हैं। कबीर हमें चेताते भी हैं :-
‘जिभ्या जिन बस मै करी, तिन बस कियो जहान।
नहिं तो औगुन ऊपजै, कह सब संत सुजान॥’
सच यही है कि आज राजनीति हो या सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र, सभी स्थानों पर हम असंवेदनशील होते जा रहे हैं और वाणी की मर्यादा को भूलकर ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं, जो लोकतंत्र की गरिमा को भी कलंकित करते हैं और सुनने वाले को भी मानसिक यातना देते हैं। किसी ने सच ही कहा है :-
‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान।
जिसको आती यह कला, होता वही सुजान॥’
अंग्रेज़ी में तो बहुत प्यारी और सुंदर उक्ति है— बोलना चांदी है तो मौन रहना स्वर्ण है।
तो फिर आइए, हम आज एक संकल्प तो ले ही लें कि कहीं भी हों, वाणी की मर्यादा का पालन करेंगे और किसी को भी अपशब्द नहीं कहेंगे। यह दूसरों का उतना हित शायद न करे, जितनी शांति हमें मिलेगी।