आलोक पुराणिक
चीजें बदल रही हैं, भारी बदलाव दिख रहे हैं सब तरफ। स्वर्गीय राजीव गांधी के नाम पर रखे एक प्रतिष्ठित अवार्ड का नाम हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद के नाम पर रख दिया गया है। नये अवार्ड का नाम है—मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवार्ड।
पर बदलाव कई फ्रंट पर चल रहे हैं। सरकारों के पास पैसा कम हो रहा है और इसलिए सरकारें स्पांसरशिप का सहारा ले रही हैं। दिल्ली में मेट्रो स्टेशनों के नाम तमाम कंपनियों और ब्रांडों के नामों पर रखे जा रहे हैं। दिल्ली के प्रख्यात चौराहे आईटीओ चौराहे पर स्थित मेट्रो स्टेशन का नाम जेके टायर के नाम पर है। दिल्ली में आईआईटी के पास के मेट्रो स्टेशन का नाम एक कोचिंग संस्थान के नाम रखा गया था। सरकारों के पास पैसा न है, स्टेशन स्पांसरों के नामों पर हो रहे हैं और अवार्डों के साथ भी ऐसा ही हो सकता है।
फिल्म उद्योग से जुड़ा एक बड़े अवार्ड का ताल्लुक बड़ी फिल्मी पत्रिका से था। अवार्ड तो चल रहा है अब भी, पर अब पान-मसाले से जुड़ा है उस अवार्ड का नाम। वजह साफ है कि यह पान-मसाला ही उस अवार्ड को स्पांसर करता है।
कुछ ऐसा न हो जाये मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवार्ड के साथ, पता लगे कि कुछ सालों बाद यह टैनी खैनी मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवार्ड हो जाये। टैनी खैनी वाले स्पांसर कर देंगे अवार्ड की रकम। रकम जो देगा, उसका नाम तो लेना ही होगा। ध्यानचंद के साथ खैनी का नाम जुड़ जाये, ऐसे दिन न देखने पड़ें, पर किया क्या जा सकता है। स्पांसरों की अपार महिमा है। अमेरिका में बड़े विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के नाम के आगे उन ब्रांडों का नाम लगाया जाता है, जो उन प्रोफेसरों की सेलरी को स्पांसर करते हैं। मतलब किसी प्रोफेसर का नाम कुछ यूं हो सकता है—पेप्सी प्रोफेसर ऑफ मार्केटिंग डेविड स्टाक्स, यानी इन प्रोफेसर साहब की सेलरी का भुगतान पेप्सी वाले करते होंगे।
टैनी खैनी के बाद कोई पिज्जा भी नंबर लगा सकता है—गोमिनो पिज्जा मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवार्ड भी हो सकता है। संभावनाएं अपार हैं पर डर उनसे ज्यादा है।