प्रमोद भार्गव
आध्यात्मिक चेतना जगाने का काम भारत में सनातन परंपरा रही है जिसे कुण्डलिनी और शक्तिपात के माध्यम से जागृत किया जाता है। स्वामी विवेकानंद आजीवन आध्यात्मिक चेतना और वेदांत के सत्य को जानने में लगे रहे। हालांकि, आरंभ में वे अनीश्वरवादी थे और सार्थक गुरु की तलाश में भटक रहे थे। विवेकानंद में ऊर्जा के इस पुंज को स्थानांतरित करके गुुरु रामकृष्ण परमहंस ने कहा था, ‘आज अपना सर्वस्व तुझे देकर मैं रिक्त हो गया। अब भारत का हित और सम्मान तुम्हारा दायित्व है।’ इस ऊर्जा के आरोहण में छह दिन का समय लगा था। यहीं से उनका आध्यात्मिक चेतना का स्तर शिखर पर पहुंचा। धर्म और विश्व-बंधुत्व के इस पाठ से विवेकानंद धर्मांतरण की स्पर्धा में लगे समुदायों को भी ललकारते रहे थे। अपनी अंतर्चेतना के बूते ही उन्होंने शिकागो की धर्मसभा में भारतीयता का उद्घोष किया था। इस्लाम और ईसाई धर्मावलंबियों से पराजित भारत में जो धर्म के विरुद्ध अनैतिक विषवमन हो रहा था, उस पर नियंत्रण का यह पहला वैश्िवक जयघोष था।
विवेकानंद जब अमेरिका के शिकागो की धर्मसभा में बोल रहे थे, तब वे अहंकार से तो शून्य थे, लेकिन भारतीय गरिमा के स्वाभिमान से अभिप्रेरित होकर ही बोल रहे थे। सनातन धर्म के महत्व का यही प्रस्थान बिंदु रहा है। दरअसल, प्रत्येक व्यक्ति में आत्मशक्ति के रूप में पराशक्ति सुषुप्त अवस्था में विद्यमान रहती है। किंतु जब सक्षम गुरु द्वारा दीक्षा व संस्कार मिल जाते हैं तो मोह-माया के बंधन टूट जाते हैं और शिष्य को अंतर्निहित दिव्य-शक्ति का अनुभव होने लगता है। विवेकानंद के साथ भी यही हो रहा था। वे जब 1900 में भारत लौटे तो बेलूर मठ में बस गए। यहां समाधिस्थ रहते हुए उनकी दिव्य-चेतना का विस्तार इतना होने लग गया था कि सांसारिक देह में समाना असंभव हो गया। नतीजतन चार जुलाई, 1902 को समाधि की अवस्था में ही स्वामी जी ने देह त्याग दी। उनकी चेतना का जो अदृश्य विस्तार है, वह आज भी भारतीय जनमानस में असर छोड़ने का काम कर रहा है। विज्ञान जगत में भी इस चेतना का असर देखा जा रहा है।
अपनी चेतना के तेज को दूसरे व्यक्ति में स्थानांतरित या स्थापित करने की प्रक्रिया को सनातन विश्वास में कुण्डलिनी जागरण या शक्तिपात कहते हैं। ऊर्जा का यह हस्तांतरण वही गुरु कर सकता है, जो अपनी कुण्डलिनी साधना से जागृत कर चुका हो। यही ऊर्जा परमहंस ने विवेकानंद में स्थापित की थी। अब विज्ञान ऐसा मान रहा है, ब्रह्माण्ड में जो तत्व विद्यमान हैं, वही सब मनुष्य के मस्तिष्क में हैं इसलिए वह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को एक सीमित मात्रा में अपने शरीर में केंद्रित कर सकता है। अतएव पराग्रहियों के अस्तित्व के बारे में अब वैज्ञानिक कह रहे हैं कि वे चेतना की सूक्ष्म तरंगों के रूप में ब्रह्माण्ड में विचरण करने में सक्षम हैं। क्योंकि किसी यान द्वारा पृथ्वी तक की दूरी तय करना संभव ही नहीं है। इस धारणा की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि अंतरिक्ष में हवा नहीं होती है। गोया, ध्वनि अथवा आवाज एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं जाती, लेकिन तरंगें आ-जा सकती हैं। फलतः सौरमंडल से जो रेडियो संकेत मिल रहे हैं, उन्हें एलियन द्वारा भेजे संकेत माना जा रहा है।
लोगों के मन में प्रश्न उठता है कि शक्तिपात की विधि जो कोई संत साधना से प्राप्त करता है, उसकी अदृश्य क्रिया को हम देख क्यों नहीं पाते हैं? अपने अध्ययन और अनुभव से इस प्रश्न का जो उत्तर मेरी बुद्धि में आता है, वह है प्रकृति की अंदरूनी दुनिया में वास करने वाली कई चीजों का हम केवल आभास कर सकते हैं, प्रत्यक्ष देख नहीं सकते। जैसे, संगीत की लय को हम नहीं देख पाते, लेकिन उसे सुनने के लिए हमारे पास कान हैं। वह आवाज भी हम कहां देख पाते हैं, जो लय को प्रतिध्वनित करती है। हम गंध और दुर्गंध को भी नहीं देख पाते, लेकिन उसे महसूस करने के लिए हमारे पास नाक है। इसीलिए जब परमहंस ने विवेकानंद में अपनी समस्त ऊर्जा का आरोहण किया, तब वह प्रकट रूप में दिखाई नहीं दी थी। लेकिन विवेकानंद के प्रवचनों के माध्यम से जिन बोलों का उच्चारण हुआ, उनसे भारतीय समाज आज भी प्रेरित-अभिप्रेरित हो रहा है।