धान अवशेष प्रबंधन के टिकाऊ समाधानों की जरूरत
अक्तूबर-नवंबर में उत्तर पश्चिम भारत, खासकर दिल्ली में प्रदूषण चिंताजनक स्तर तक बढ़ जाता है। इसके प्रमुख कारकों में से एक पराली जलाना भी है। जिस पर अंकुश लगाने के लिए पराली के बंडल बनाने जैसी खर्चीली योजनाएं लागू की जाती हैं। जबकि खास एसएसएम सिस्टम से लैस कम्बाइन से धान कटाई व पराली मिट्टी में दबाना ज्यादा तार्किक व किफायती विकल्प है।
अक्तूबर-नवंबर में उत्तर पश्चिम भारत, खास तौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में, वायु प्रदूषण गंभीर समस्या बन जाती है। इसके जिम्मेदार कई कारक हैं जैसे मानसून के कारण वायु की गति मंद होना, पहाड़ों से ठंडी हवाओं का मैदानी क्षेत्र की तरफ चलना व पहले से ही मौजूद वायु प्रदूषण का पृथ्वी की सतह पर फैलना। वहीं इसमें धान कटाई के बाद खेतों में पराली जलाना भी एक कारक है। जो सितंबर अंत से नवंबर अंत तक गेहूं, सरसों आदि की बुआई हेतु धान की फसल के अवशेषों को खेत से साफ करने की आसान और बिना लागत वाली विधि है।
पराली जलाने से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में विषैले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं, जिनमें मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें शामिल हैं। ये प्रदूषक वातावरण में फैल कर भौतिक और रासायनिक परिवर्तन होने के बाद धुंध की परत का रूप धारण कर लेते हैं। कई-कई दिनों तक धूप को पृथ्वी तक पहुंचने में बाधा बनते हैं। इसके दुष्प्रभाव से सांस लेने में तकलीफ, आंखों में जलन जैसी कई स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। हालांकि एनसीआर के वायु प्रदूषण में पराली जलाने का योगदान 5 से 30 प्रतिशत तक ही रहता है।
पराली जलाने पर अंकुश लगाने के लिए सरकार लाखों-करोड़ों रुपए खर्च करती है। यह व्यय पराली के बंडल बनाकर उद्योगों तक पहुंचाने जैसी अव्यावहारिक योजनाएं लागू करने पर भी होता है। इसके अलावा पराली जलाने पर प्रतिबंध, किसानों पर जुर्माना और केस दर्ज करने जैसे सख्त उपाय अपनाए जाते हैं। लेकिन वायु की गुणवत्ता में कोई ठोस सुधार नहीं हुआ। विडंबना है, प्रचारतंत्र द्वारा पराली जलाने से वायु प्रदूषण पर केवल किसानों को ही जिम्मेवार ठहराया जाता है।
इन सबके बावजूद, पराली जलाने की घटनाओं में कमी नहीं आई है। कारण स्पष्ट है कि किसानों के पास पराली प्रबंधन के लिए व्यावहारिक और सस्ते विकल्प उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि धान की कटाई और अगली फसल की बुआई के बीच 15-20 दिनों की अल्प अवधि होने के कारण उनके पास पराली हटाने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के साथ लगते राज्यों में 60 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान-गेहूं फसल चक्र अपनाया जाता है, जिसमें अक्तूबर-नवंबर में धान कटाई के बाद गेहूं, आलू और सरसों आदि की बुआई की जाती है। इन क्षेत्रों में सालाना लगभग 40 करोड़ क्विंटल पराली पैदा होती है। जिसे उद्योगों में इस्तेमाल करने के लिए 15-20 दिन की अल्पावधि में लाखों ट्रैक्टर-चालित बेलर मशीनों की मदद से खेतों से करीब 100 करोड़ बंडल बनाए जाते हैं। इन्हें एक करोड़ वाहनों द्वारा सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित उद्योगों तक ढोने में लाखों करोड़ों लीटर डीजल खर्च होता है, जो सरकारी धन की बर्बादी और प्रदूषण बढ़ाने वाला अव्यावहारिक प्रयास कहा जा सकता है।
प्रेस सूचना ब्यूरो द्वारा 26 सितंबर, 2023 को जारी जानकारी के अनुसार, पंजाब में उत्पन्न होने वाली 20 मिलियन टन पराली के लिए 1,17,672 फसल अवशेष प्रबंधन (सीआरएम) मशीनें हैं। इसी तरह हरियाणा में भी लगभग 80 हजार सीआरएम मशीनों के लिए किसानों को सब्सिडी देने का दावा किया जा रहा है। जबकि हरियाणा में अगस्त, 2018 के प्रशासनिक आदेश ‘कम्बाइन हार्वेस्टर पर सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) की कानूनी अनिवार्यता’लागू करके किफायती व आसान तरीके से पराली जलाने का हल कर सकती है। पराली जलाने का सबसे बेहतर पर्यावरण और किसान हितैषी समाधान यह है कि इसे खेत में भूमि में दबाकर जैविक खाद में बदला जाए। इसके लिए धान कटाई के बाद प्रति एकड़ 30 किलो यूरिया का छिड़काव करके मोल्ड बोर्ड हल या हैरो से पराली को मिट्टी में दबाकर अगली फसल की बुआई आसानी से की जा सकती है। यह विधि कम समय में पराली प्रबंधन के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखती है और खर्च भी नहीं बढ़ाती है।
लेकिन पराली को खेत में दबाने को सफलतापूर्वक अपनाए जाने के लिए जरूरी है कि धान की कटाई सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम से लैस कम्बाइन हार्वेस्टर से की जाए। यह मशीन पराली को छोटे बारीक टुकड़ों में काटकर खेत में फैला देती है, जिससे गहरी जुताई द्वारा पराली को आसानी से भूमि में मिलाया जा सकता है।
पराली जलाने पर किसानों पर जुर्माना और जेल भेजने जैसी सख्त कार्रवाई की गयी लेकिन उपरोक्त पर्यावरण हितैषी आदेश को लापरवाही के चलते प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया। यानी पराली जलाने के लिए किसानों के साथ-साथ तंत्र भी जिम्मेदार है। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अमृतसर द्वारा वर्ष 2025 में किए गए एक अध्ययन में भी पंजाब में पराली जलाने के लिए सरकारी तंत्र की विफलताओं को ही जिम्मेदार ठहराया गया है। इसलिए पराली जलाने को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि बिना सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम से सुसज्जित किसी भी कम्बाइन हार्वेस्टर को धान की कटाई की कानूनी अनुमति न दी जाए, और इन आदेशों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करने के लिए संबंधित प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह भी बनाया जाए। इससे पराली जलाने की समस्या खत्म होगी, प्रदूषण नियंत्रित होगा और पराली जलाने की समस्या का टिकाऊ समाधान मिल सकेगा।