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शिखर सम्मेलन से भारतीय कूटनीति को संबल

जी. पार्थसारथी मध्य एशिया में महत्वपूर्ण भूमिका रखना भारत के लिए एक जटिल किंतु रोचक कार्य रहा है। मुख्यतः इसलिए क्योंकि चीन की पश्चिमी सीमा से लेकर रूस के मध्य-दक्षिणी छोर तक फैले मध्य एशियाई देशों के साथ भारत की...
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जी. पार्थसारथी

मध्य एशिया में महत्वपूर्ण भूमिका रखना भारत के लिए एक जटिल किंतु रोचक कार्य रहा है। मुख्यतः इसलिए क्योंकि चीन की पश्चिमी सीमा से लेकर रूस के मध्य-दक्षिणी छोर तक फैले मध्य एशियाई देशों के साथ भारत की जलीय अथवा थलीय सीमाएं साझा नहीं हैं। भारत से मध्य एशिया तक पहुंचने का सबसे सुगम रास्ता फिलहाल ईरान से होकर है। शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत ने सोवियत संघ के पूर्व घटक रहे चार मध्य एशियाई मुल्कों यानी कजाखस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीज़स्तान और उजबेकिस्तान (और यह मुगल शासक बाबर का मूल स्थान भी है) के साथ संबंधों के महत्व को समझा। पहुंच मार्ग की मुश्किलें मध्य एशियाई गणराज्यों से आर्थिक और अन्य रिश्ते उतने प्रगाढ़ न होने के पीछे मुख्य वजह रही है।

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शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना 15 जुलाई, 2001 को शंघाई में हुई थी। इसके सदस्यों में रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान (नया सदस्य) के अलावा उपरोक्त वर्णित चार मध्य एशियाई गणराज्य हैं। भारत को काफी संतोष है कि ईरान ने भी शंघाई सहयोग संगठन की सदस्यता ले ली है और भारत ने इसका स्वागत किया है। भारत और ईरान ने कुछ समय पहले संयुक्त रूप से चाहबहार बंदरगाह को विकसित करने का काम पूरा किया है। इस बंदरगाह से होकर भारत को मध्य एशिया तक पहुंचने की सीधी राह खुलती है और पाकिस्तान की जरूरत नहीं पड़ती। कोई हैरानी नहीं कि पाकिस्तान ने भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया से व्यापार के वास्ते पहुंच मार्ग की अनुमति देने में जानबूझकर देरी की या फिर इंकार करता आया है। लिहाजा भारत को मध्य एशिया से व्यापार के लिए ज्यादा महंगा और अधिक वक्त खपाने वाला व्यापारिक राह चुनना पड़ा। अब ईरान द्वारा शंघाई सहयोग संगठन की सदस्यता लेने के बाद चाहबहार बंदरगाह अब मध्य एशिया तक पहुंचने का न केवल भारत बल्कि अन्य देशों के लिए भी मुख्य आवाजाही केंद्र बनेगा।

शंघाई सहयोग संगठन के मध्य एशियाई सदस्यों पर अभी भी रूस का काफी प्रभाव है और वहां रूसी भाषा काफी बोली जाती है। हालांकि चीन जटिल निर्माण कार्य एवं यातायात परियोजनाएं बनाने की दक्षता के बलबूते धीमे-धीमे किंतु दृढ़ता से रूस के इन पड़ोसियों पर अपना असर बढ़ाने में लगा है। चीन मध्य एशिया क्षेत्र के प्रचुर खनिज एवं तेल स्रोतों का दोहन करने में काफी दिलचस्पी ले रहा है। बेशक रूस-चीन के बीच फिलहाल ‘भाई-भाई’ वाला रिश्ता है, लेकिन इतना पक्का है कि रूस को अपने आस-पड़ोस में चीन का बढ़ता प्रभाव रास नहीं आने वाला, खासकर जब मामला मध्य एशियाई गणतंत्रों का हो या फिर उनके खनिज और तेल स्रोतों तक चीन की आसान पहुंच बनने का हो। शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन से साफ दिखता है कि रूस-चीन के मौजूदा संबंध किस दिशा में हैं।

भारत नयी दिल्ली में आगामी 9-10 सितम्बर को जी-20 शिखर सम्मेलन करवाने से पहले शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन का आयोजन एक सफल संगठनात्मक अभ्यास रहा है। वर्तमान संकेतों के मुताबिक इस शिखर सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी पांच स्थाई देश भाग लेंगे, इनके अलावा, उत्तर एवं दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, यूरोपियन यूनियन और अरब की खाड़ी की मुख्य आर्थिक शक्तियां भी भाग लेंगी। दुनिया के लिए यह अवसर इस दृष्टि से भी रोचक होगा कि राष्ट्रपति पुतिन और शी जिनपिंग के साथ राष्ट्रपति बाइडेन और उनके यूरोपियन यूनियन सहयोगी क्या एक मंच पर होंगे, बशर्ते शी जिनपिंग अपनी जगह किसी और को न भेजें। लेकिन शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के मामले में यह तय है कि नई दिल्ली का यह सम्मेलन दुनियाभर का ध्यान खींचेगा। सबसे अहम, भारत ने चीन द्वारा प्रायोजित बहुप्रचारित ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ (जो पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरती है) के प्रशंसा-प्रस्ताव के लिए हुए मतदान में अनुपस्थित रहने की त्वरित और दृढ़ प्रतिक्रिया दिखाई है क्योंकि भारत को एतराज है कि यह सड़क उस इलाके में बन रही है जिसको पाकिस्तान ने कब्जाया हुआ है। अगले ही दिन, ताइवान ने घोषणा कर दी कि वह मुम्बई में आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र खोलने जा रहा है जो कि नई दिल्ली और चेन्नई के वर्तमान केंद्रों की अगली कड़ी है। चेन्नई के ताइवानी सांस्कृतिक केंद्र के कार्यक्षेत्र में श्रीलंका और मालदीव के अतिरिक्त दक्षिण भारत के अन्य सूबे और केंद्रशासित प्रदेश होंगे। हालांकि, भारत वास्तव में जो चाहता है, वह है, ताइवान के ज्ञान-भंडार से देश में सेमीकंडक्टर उत्पादन शुरू करना और जिसकी इकाइयां देशभर में बनें।

शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन का परिणाम पूर्वानुमानित था। जाहिरा तौर पर, भारत को यह साफ करने की जरूरत थी कि आतंकवाद को पाकिस्तान का निरंतर संरक्षण होने के कारण ऐसे देश के खिलाफ सख्त कदम उठाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवाद प्रायोजक सत्ताओं की कड़ी निंदा की है। रोचक है कि चीन और रूस ने सम्मेलन में संवाद के लिए अंग्रेजी भाषा को दरकिनार करते हुए चीनी और रूसी भाषा को तरजीह दी है। तथापि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय रिवायत के अनुसार अपना काम-काज अंग्रेजी भाषा में जारी रखना चुना। हालांकि मोदी का सम्मेलन को संबोधन हिंदी भाषा में रहा। यह शिखर सम्मेलन कोई ऐसा भी नहीं था कि धरती हिल उठती, लेकिन इससे छवि उभरती है कि चीन और रूस की जुगलबंदी क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर अपना दृष्टिकोण हावी रखने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती।

यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस पर अमेरिकी एवं नाटो मुल्कों के अनवरत दबाव अंततः रूस को मजबूर करते हैं कि वह मध्य एशियाई मुल्कों पर प्रभाव रखने के मामले में चीन की मर्जी अधिक चलने दे। यह स्थिति उन दिनों से एकदम अलहदा है जब बांग्लादेश युद्ध के समय रूस ने चीन को स्पष्ट चेतावनी दी थी कि वह दूर रहे। इसी बीच, रूस और दुनिया की ताकतें अब यह मानती हैं कि 2023 में भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होगी, जो कि भारत की विगत छवि से उलट है। इसी दौरान, पुतिन के नेतृत्व वाले रूस को यूक्रेन पर चढ़ाई की वजह से अमेरिका और नाटो सहयोगियों के बहुत ज्यादा दबावों का सामना करना पड़ रहा है। महत्वपूर्ण यह कि एससीओ सम्मेलन के संयुक्त वक्तव्य में उन देशों के नाम गिनाए गए, जो चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ के हामी हैं। जाहिर है इस सूची में भारत का नाम नहीं था। इस परियोजना को लेकर भारत की चिंता जम्मू-कश्मीर में अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई समझौता न करने की वजह से है।

नई दिल्ली के शिखर सम्मेलन से ऐन पहले राष्ट्रपति पुतिन ने खुद प्रधानमंत्री से बात की है और बातचीत में वेगनर गुट के विद्रोह का जिक्र भी आया, जिसको उन्होंने कुचल दिया है। उन्होंने मोदी को रूस का ‘तगड़ा मित्र’ बताया है, साथ ही उनकी आर्थिक नीतियों की भी प्रशंसा की। यह साफ है कि पुतिन के नेतृत्व वाला रूस यूक्रेन मामले पर भारत द्वारा दिखाई समझदारी का कायल है। परंतु ठीक इसी समय वह सैन्य, राजनयिक एवं आर्थिक सहायता के लिए शी जिनपिंग के नेतृत्व वाले चीन पर काफी निर्भर है। फिर यह चिंता भी बनी हुई है कि कहीं अमेरिका के नाना दबावों और यूक्रेन को नित नवीनतम हथियारों की अनवरत आपूर्ति से आजिज आकर रूस कम तीव्रता वाले परमाणु हथियार चलाने को मजबूर न हो जाए। उम्मीद करें कि यूक्रेन युद्ध में शामिल तमाम पक्ष इस पहलू को समझेंगे।

लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

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