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सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सुक्खू सरकार को राहत

सीपीएस प्रकरण
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केएस तोमर

हाल ही में, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने छह मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को रद्द कर दिया था। यह निर्णय संविधान की गरिमा रक्षा में न्यायपालिका की अहम भूमिका को ही उजागर करता है। साथ ही शासन की राजकोषीय जिम्मेदारी, तथा कार्यपालिका की सीमाओं को दर्शाता है। राजनीतिक हितों साधने के लिये विधायकों को सुविधा देने को चुनौती देकर, यह फैसला एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के शुक्रवार को आए फैसले ने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा नियुक्त छह मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति मामले में राहत दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट निर्देश राज्य में हटाये गए छह मुख्य संसदीय सचिवों की विधानसभा सदस्यता को बरकरार रखा है। वे विधायक बने रहेंगे।

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दरअसल, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों जैसे पंजाब-हरियाणा (2009), राजस्थान (2018), और गुवाहाटी (2017) के पिछले फैसलों के अनुरूप है, जिन्होंने इसी तरह मुख्य संसदीय सचिवों नियुक्तियों को अवैध ठहराया था। ये फैसले संविधान के 91वें संशोधन के तहत इन पदों पर रोक लगाने की पुष्टि करते हैं, जो राज्य विधानमंडल की कुल सीटों के 15 प्रतिशत तक मंत्रिपरिषद का आकार सीमित करता है।

हिमाचल सरकार के महाधिवक्ता अनूप कुमार रतन ने राज्य का पक्ष रखते हुए दावा किया कि सीपीएस नियुक्तियां विधायिका सदस्यता को समाप्त नहीं करेंगी। उन्होंने असम के सीपीएस मामलों का हवाला दिया, जिनमें नियुक्तियों को रद्द किया गया था, लेकिन विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराया गया। वहीं, भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट में एक कैविएट दायर कर सीपीएस को अयोग्य ठहराने की मांग की है।

मौजूदा सुक्खू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पहली नहीं है जिसने ऐसी नियुक्तियां की हों। इससे पहले 2013 में भाजपा की धूमल सरकार और कांग्रेस की वीरभद्र सिंह सरकार ने भी सीपीएस नियुक्तियों का भरपूर उपयोग किया था। हालांकि, पूर्व जयराम ठाकुर सरकार ने ऐसी नियुक्तियां करने से परहेज किया।

इन पदों को रद्द कर, कोर्ट ने मंत्री प्रभाव के विस्तार की एक अनौपचारिक प्रथा को रोक दिया है। यह निर्णय अन्य राज्यों को भी अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित कर सकता है, खासकर जहां मुख्य संसदीय सचिवों नियुक्तियां आंतरिक पार्टी संघर्षों को प्रबंधित करने के लिए उपयोग की जाती हैं।

दरअसल, सीपीएस को पदों से हटाने से प्रशासनिक संरचनाओं को सरल बनाया गया है, जिससे शक्ति के एक अनावश्यक विस्तार को समाप्त किया गया है। अब, शासन मंत्रियों और नौकरशाहों पर केंद्रित होगा, जिससे दक्षता और जवाबदेही बढ़ सकती है।

निस्संदेह, सीपीएस नियुक्तियां राज्य पर वित्तीय बोझ डालती हैं। हिमाचल प्रदेश, जो पहले से ही बढ़ते कर्ज और सीमित केंद्रीय सहायता के चलते वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। अब राज्य सरकार के पास स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे जैसे क्षेत्रों में खर्च करने के लिए धन को पुनः आवंटित करने का अवसर होगा। यह निर्णय आर्थिक सुधारवादियों और करदाताओं के लिए लाभकारी है, साथ ही अन्य राज्यों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करता है।

हिमाचल हाईकोर्ट का फैसला न्यायपालिका की संवैधानिक अखंडता को सुदृढ़ करता है। यह 91वें संशोधन की प्रासंगिकता की पुष्टि करता है और भविष्य की सरकारों को संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन करने से हतोत्साहित करेगा। यह निर्णय राजनीतिक फिजूलखर्ची को सीमित कर, अन्य राज्यों में समान कानूनी चुनौतियों को प्रेरित कर सकता है। यह फैसला न्यायपालिका पर जनता के विश्वास को भी मजबूत करता है। जब हिमाचल प्रदेश को अपने कर्मचारियों को वेतन और सेवानिवृत्त कर्मियों को पेंशन देने में कठिनाई हो रही है, तो ऐसे में इन पदों को रद्द करने को एक सकारात्मक कदम के रूप में देखा जा सकता है।

दरअसल, मुख्य संसदीय सचिवों की अवधारणा लंबे समय से विवादास्पद रही है। अतिरिक्त प्रशासनिक अधिकार प्रदान करने के उद्देश्य से बनाए गए ये पद अक्सर कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्ति पृथक्करण को बाधित कर देते हैं। 91वें संशोधन ने मंत्रिपरिषद के आकार को सीमित करके इस तरह की विसंगतियों को दूर करने की कोशिश की गई है, जिसे राज्य सरकारें अक्सर नजरअंदाज करती हैं। हिमाचल हाईकोर्ट का फैसला संकेत देता है कि इस तरह की नियुक्तियां संवैधानिक उपायों को कमजोर करती हैं।

हिमाचल हाईकोर्ट का फैसला अन्य राज्यों को भी सीपीएस जैसे पदों को संवैधानिक सीमाओं में रखने के लिए प्रेरित कर सकता है, जिससे न्यायपालिका का सम्मान और पारदर्शी शासन प्रणाली सुनिश्चित हो सके। हालांकि, यह फैसला राज्य सरकारों के लिए असहज होते हुए भी, शासन को संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप परिभाषित करने का अवसर प्रदान करता है। साथ ही लोकतंत्र में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है।

लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

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