युवाओं को प्रेरित करती लड़कियों की सफलता
उत्कृष्टता के प्रति एकनिष्ठ समर्पण ने हमारी लड़कियों को बाधाओं को पार करने में सक्षम बनाया। होशियारपुर से सहजलदीप कौर का एनडीए की मेरिट में स्थान पाना और महिला क्रिकेट टीम द्वारा विश्व कप जीतना युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं।...
उत्कृष्टता के प्रति एकनिष्ठ समर्पण ने हमारी लड़कियों को बाधाओं को पार करने में सक्षम बनाया। होशियारपुर से सहजलदीप कौर का एनडीए की मेरिट में स्थान पाना और महिला क्रिकेट टीम द्वारा विश्व कप जीतना युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं। सफलता के लिए कर्ज लेकर विदेश जाना जरूरी नहीं। सरकार व उद्योग प्रतिभा को पहचानें, देश में रोजगार पैदा करें।
मैं द ट्रिब्यून के 18 अक्तूबर, 2025 अंक में छपी एक खबर का अंश उद्धृत करना चाहूंगा : ‘होशियारपुर से 30 किलोमीटर दूर चोटाला गांव के एक छोटे किसान की बेटी सहजलदीप कौर ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी की मेरिट सूची में 13वां स्थान पाया, जिससे वह अपने गांव का गौरव और असंख्य ग्रामीण लड़कियों के लिए आशा की किरण बन गई’। पढ़ाई ग्रामीण स्कूलों में हुई और मोहाली स्थित माई भागो सशस्त्र बल तैयारी संस्थान में ट्रेनिंग ली।
जब मैं ये लेख लिखने बैठा, तभी भारतीय महिला क्रिकेट टीम द्वारा विश्व कप जीतने की खबर आई। इस टीम में पंजाब, हरियाणा और हिमाचल की करीब पांच ग्रामीण लड़कियां हैं। मेरी राय में, वे न केवल शेष ग्रामीण लड़कियों के लिए, बल्कि लड़कों के लिए भी आशा की किरण हैं। निचले आर्थिक तबके की ये लड़कियां, जिनके माता-पिता कभी क्रिकेट पिच के पास तक नहीं गए होंगे, खेलना तो दूर की बात, उन्होंने साबित कर दिया कि उत्कृष्टता के प्रति समर्पण शॉर्टकट तलाशे बिना, गरीबी से उबरने में सक्षम बनाता है। स्व-प्रेरित, अधिकांशतः स्व-शिक्षित, माता-पिता का प्रोत्साहन व आगे उनके खेल कौशल को मान्यता और पेशेवर कोचिंग का साथ मिला।
ये लड़कियां साबित करती हैं कि बिना किसी महंगे स्कूल के भी यह संभव है, कि विदेश जाने की मृगतृष्णा में पढ़ाई छोड़ना ज़रूरी नहीं, ज़मीन बेचकर या पैसे उधार लेकर (40-50 लाख रुपये),कोई ‘डंकी’ रूट लेने और कहीं राह में सड़ने-मरने की ज़रूरत नहीं।
पुराने दिन चले गए,पश्चिम को अब सस्ते विदेशी श्रम, आईटी और इंजीनियरिंग पेशेवर, या कहें कि छात्रों की और ज़रूरत नहीं। यह बात अमेरिका द्वारा अपनी व्यापार नीतियों, पेशेवरों और छात्रों के लिए नई वीज़ा नीतियों और अवैध प्रवासियों पर बढ़ते संरक्षणवादी रुख से जाहिर हैं। नौकरियां देने से मना किया जा रहा या उन्हें नागरिकता स्टेटस से जोड़ दिया है। नस्लवाद भी भयावह रूप में है, जिसमें रेप, शारीरिक-मौखिक दुर्व्यवहार और हत्या तक की घटनाएं हो रही हैं। सड़कों पर, अपनी दुकानों के सामने या घरों में, अप्रवासियों को कई रूपों में नफ़रत झेलनी पड़ रही। यह प्रवृत्ति अमेरिका तक सीमित नहीं; ब्रिटेन व यूरोप के कुछ हिस्सों और ऑस्ट्रेलिया में भी दक्षिणपंथी विचारधारा खुलकर सामने आ रही है।
इसके कई कारण हैं : (क) उनकी अपनी अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ना और चीन एवं उसकी औद्योगिक ताकत के उदय से मिलती कड़ी चुनौती; (ख) प्रौद्योगिकीय प्रगति व एआई के आगमन ने अॉटोमेशन और कंप्यूटिंग को जन्म दिया, जिससे सस्ते विदेशी श्रम और तकनीकी विशेषज्ञों की ज़रूरतें कम हो रही। एक नया बदलाव घेर रहा है जिसका रोज़गार पर पूरा असर अभी देखना-समझना बाकी है। बहुत कुछ बदलेगा, क्योंकि इस उथल-पुथल के मूल में यही है।
पश्चिम का संदेश स्पष्ट है - ‘घर जाओ’। सवाल है: इस नए युग के आगमन में भारत कहां खड़ा है? गत वित्त वर्ष में भारत को 135.46 अरब डॉलर की विदेशी धनराशि प्राप्त हुई (द टाइम्स ऑफ इंडिया, जून 2025), लगभग 10 वर्ष हम लगातार सर्वाधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त करने वाला मुल्क बने रहे। लगभग 150 करोड़ की आबादी वाला यह देश, जो दुनिया में सर्वाधिक आबादी वाला राष्ट्र है, जहां लगभग 6 प्रतिशत लोग अत्यधिक गरीबी में गुजारा करते हैं और करीब 13 प्रतिशत युवा बेरोजगार हैं, और उच्च शिक्षा प्राप्त स्नातकों में तो यह आंकड़ा बढ़कर 29 प्रतिशत हो गया है (विश्व बैंक के अनुसार), उसके सामने भारी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं।
पिछले तीन दशकों में हमारी आर्थिक प्रगति में बड़ा बदलाव आया और भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की चौथी सबसे बड़ी इकॉनोमी बन गई। गरीबी के स्तर में उल्लेखनीय गिरावट आई, फिर भी मध्यम आय वाला राष्ट्र बनने के लिए हमें अभी बहुत कुछ करना है, उच्च आय राष्ट्र बनने की तो बात छोड़ दें। अत्यधिक गरीबी में रहने वाले 6 प्रतिशत नागरिकों का करीब 9 करोड़ लोग बन जाता है; यह ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की साझी आबादी से ज़्यादा है। विश्व बैंक वर्तमान में हमें अंगोला, घाना, म्यांमार, कंबोडिया आदि के साथ रखकर निम्न-मध्यम आय वाला देश मानता है।
यह कहना पर्याप्त है कि एक राष्ट्र के रूप में, हमें समान विकास सुनिश्चित करने के लिए ढेरों नौकरियां पैदा करने की जरूरत है। सवाल है: जैसे-जैसे पश्चिम अपने द्वार बंद कर रहा है और भारत में युवा बेरोजगारी दर हमें परेशान कर रही है, इसका हल कैसे होगा? माना जाता है कि इतनी विशाल आबादी का फायदा अधिक श्रमबल पास होने के रूप में हो सकता है, लेकिन अगर युवाओं को शिक्षित, प्रेरित और राष्ट्र-विकास में शामिल नहीं किया तो यह किसी काम का नहीं। खतरा यह कि यहां स्वदेश में बेरोजगार और विदेशों से निर्वासित युवा, हमारी सबसे बड़ी समस्या बन सकते हैं। दशकों से हम श्रम व प्रतिभा का निर्यात करते आए हैं क्योंकि हमारे पास दोनों प्रचुर हैं। दुनिया ने अपनी ज़रूरत के समय इसका पूरा लाभ लिया और इसकी बदौलत कई परिवारों ने अपने हालात सुधारेे, लेकिन आगे क्या?
अजीब बात कि हमारी सरकारें और विपक्ष यह बर्बादी देखकर भी चुप हैं। अमेरिका, यूरोप या कनाडा के साथ जारी व्यापार वार्ताओं में इसका कोई ज़िक्र नहीं। विदेशों से पैसा आना न केवल भारतीय प्रवासियों के स्वदेश वासी परिवारों के लिए अहम है, बल्कि हमारे व्यापार संतुलन घाटे की भरपाई में भी सहायक है (बीते वित्त वर्ष में 300 अरब डॉलर के माल व्यापार घाटे की लगभग आधी क्षतिपूर्ति इससे हुई) और यह विदेशी मुद्रा के अहम स्रोत के रूप में कार्य करता है जो चालू खाते की मजबूती में सहायक है।
सभी दलों के नेतृत्व का ध्यान सत्ता हासिल करने के लिए मतदाताओं को खैरातें व रियायत रूपी अपरोक्ष रिश्वत देने पर केंद्रित है। कोई भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा या सुशासन देने की बात नहीं करता। जैसे-जैसे हमारे शहर विस्तारित हो रहे हैं, प्रदूषण व कचरे का ढेर भी बढ़ता जा रहा, और बेरोज़गारी बढ़ने से आय असमानता भी बढ़ती है। मुझे ओलिवर गोल्डस्मिथ की पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘दुर्दशा देश के लिए अभिशाप है, दुर्दशा शीघ्र बनाना मतलब लोगों का शिकार, धन-संपदा जब चंद हाथों में हो, आम आदमी की क्या बिसात’। कहीं ऐसा न हो कि हमें हताश लोगों की अचानक बाढ़ का सामना करना पड़े, जो बेरोज़गारों की संख्या और बढ़ाएगी। केंद्र और राज्य सरकारों को इस समस्या का गंभीरता से आकलन करना होगा, उन्हें पुनर्स्थापित करने के तरीके विकसित करने होंगे। सरकार को निजी क्षेत्र से मिलकर रोज़गार के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने हेतु आकस्मिक योजना बनानी चाहिए, क्योंकि अगर हम आज बड़े पैमाने पर इसका हल नहीं करते, तो देश को उथल-पुथल का सामना करना पड़ेगा।
अधिकांश अतिवादी आंदोलनों की जड़ें इसी समस्या में होती हैं। खैरातें और चुनावी रियायतें इसका हल नहीं बल्कि रोज़गार है। क्या सरकार के पास इसे उत्पन्न करने की दूरदर्शिता और इच्छाशक्ति है? युवा तकनीक की बदौलत अपने परिवेश और दुनिया के दूर-दराज़ के इलाकों में हो रहे विकास के प्रति जागरूक हैं। वे जानते हैं उनके देश का प्रदर्शन उन्नत देशों की तुलना में कहां खड़ा है और उनसे कैसा बर्ताव किया जा रहा। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि में लहर बदल रही। यह हमारी उम्मीद से पहले चरम पर होगी।
सहजलदीप और भारतीय क्रिकेट टीम की लड़कियों ने अपने दृढ़ निश्चय और मेहनत का रास्ता दिखाया है। अपना लक्ष्य पाने की आज़ादी दी जाने पर, इन्होंने आगे बढ़ अपने समकालीनों को उम्मीद की किरण दिखाई। इस राह पर चलना आसान नहीं। युवा उनके उदाहरण से सीखें, गरीब किसान अपने बच्चों की गतिविधियों में सहयोग करना सीखें, सरकार और उद्योग प्रतिभा को पहचानें, इस प्रतिभा को स्वदेश में बनाए रखने और विकसित करने के तरीके खोजने चाहिए। हमें अपनी पिछली, वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए यह करना ही होगा। उन्हें निराश न करें।
इतिहास यह नहीं गिनेगा कि हमने कितने चुनाव-उपचुनाव जीते - वह हमें इस आधार पर आंकेगा कि हमने अपने मानव संसाधनों का विकास कैसे किया।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

