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समुद्र में कार्बन भंडारण से रुकेगी ग्लोबल वार्मिंग

मुकुल व्यास जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए वैज्ञानिक उत्सर्जित कार्बन को वायुमंडल से हटाने के लिए नए-नए तरीके खोज रहे हैं। कार्बन को ठिकाने लगाने के लिए कुछ वैज्ञानिकों का ध्यान समुद्र तल की चट्टानों की और...
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मुकुल व्यास

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए वैज्ञानिक उत्सर्जित कार्बन को वायुमंडल से हटाने के लिए नए-नए तरीके खोज रहे हैं। कार्बन को ठिकाने लगाने के लिए कुछ वैज्ञानिकों का ध्यान समुद्र तल की चट्टानों की और गया है। समुद्र तल पर स्थित बेसाल्ट की चट्टानों के भंडार में कार्बन डाइऑक्साइड को जमा करने की क्षमता है। ये ज्वालामुखीय चट्टानें हमारे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड को जमा करने की क्षमता रखती हैं। ये ज्वालामुखीय चट्टानें हमारे वायुमंडल से गर्मी को कैद करने वाली गैस को हटाने में मदद कर सकती हैं। वैज्ञानिकों की एक टीम समुद्री तटों के निकट फ्लोटिंग रिग बनाना चाहती है। ये रिग समुद्र तल से तेल निकालने के बजाय उसमें कार्बन डाइऑक्साइड प्रविष्ट करेंगे। अपने स्वयं के विंड टर्बाइनों द्वारा संचालित फ़्लोटिंग प्लेटफार्म आकाश या समुद्री जल से कार्बन डाइऑक्साइड को खींचेंगे और उसे समुद्र तल में छिद्रों में पंप करेंगे। वैज्ञानिक अपनी परियोजना को ‘सॉलिड कार्बन’ कहते हैं। अगर यह परियोजना उनकी उम्मीद के मुताबिक काम करती है तो तल में प्रविष्ट कार्बन डाइऑक्साइड हमेशा के लिए समुद्र के तल पर एक चट्टान बन जाएगी। प्रोजेक्ट पर काम कर रहे कनाडा के भूभौतिकीविद् मार्टिन शरवाथ ने कहा कि इससे कार्बन भंडारण बहुत टिकाऊ और सुरक्षित हो जाएगा। इस तकनीक से हमें अन्य भंडारण तकनीकों की तरह कार्बन के वायुमंडल में वापस लौटने और वैश्विक तापमान वृद्धि के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। यह अभी तक निश्चित नहीं है कि ये कार्बन हटाने वाली समुद्री फैक्टरियां उम्मीद के मुताबिक काम करेंगी या नहीं। सबसे पहले विज्ञानियों को समुद्र में एक प्रोटोटाइप का परीक्षण करने के लिए लगभग 6 करोड़ डॉलर की आवश्यकता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनियाभर में, बेसाल्ट चट्टानें पृथ्वी के समस्त जीवाश्म ईंधन से निकलने वाले कार्बन से ज्यादा कार्बन को स्थायी रूप से जमा कर सकती हैं।

गौरतलब है, इस तरह की तकनीक को अपनाने का मतलब यह नहीं कि जीवाश्म ईंधन को अंधाधुंध तरीके से जलाना सुरक्षित है। फिर भी विज्ञानियों का कहना है कि कुछ रिग ही बड़ा बदलाव ला सकते हैं। शरवाथ के अनुसार कनाडा के पश्चिमी तट से दूर, वैंकूवर द्वीप के पास कैस्केडिया बेसिन में विश्व के 20 साल के कार्बन उत्सर्जन को कैद करने की गुंजाइश है। यहीं पर विज्ञानी एक फील्ड टेस्ट करना चाहते हैं। यह योजना एक रासायनिक प्रतिक्रिया पर आधारित है जो पहले से ही स्वाभाविक रूप से होती है।

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बेसाल्ट चट्टान अत्यधिक प्रतिक्रियाशील होती है। ऐसी चट्टानें धातुओं से भरी होती हैं जो आसानी से कार्बन डाइऑक्साइड को पकड़ लेती हैं और कार्बोनेट खनिजों का निर्माण करने के लिए रासायनिक रूप से इसके साथ जुड़ जाती हैं। बेसाल्ट भी टूट जाता है और छिद्रपूर्ण हो जाता है, जिससे नए कार्बोनेट के भरने के लिए पर्याप्त जगह बच जाती है। आइसलैंड में कार्बफिक्स नामक एक परियोजना ने इस प्रक्रिया के एक छोटे संस्करण का सफल प्रदर्शन किया है। इस विधि में पानी में कार्बन डाइऑक्साइड को घोला जाता है। फिर उसे भूमिगत बेसाल्ट चट्टान में इंजेक्ट किया जाता है। ये समुद्री कार्बन-भंडारण कारखाने बहुत महंगे उपक्रम होंगे लेकिन यदि हम पृथ्वी को पूर्व-औद्योगिक तापमान पर वापस लाना चाहते हैं तो हमें अंततः ऐसे मेगा-प्रोजेक्ट का सहारा लेना पड़ सकता है।

सॉलिड कार्बन उन बुनियादी तात्कालिक उपायों का विकल्प नहीं है, जिनकी दुनिया भर के जलवायु विशेषज्ञ मांग कर रहे हैं। इन उपायों में जीवाश्म ईंधन को नवीकरणीय ऊर्जा में बदलना और खाद्य प्रणालियों के कार्बन उत्सर्जन को कम करना शामिल है। इस बीच, एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों ने ऐसे वायरस खोजे हैं जो जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वायरस शब्द हमारे मन में खौफ पैदा करता है लेकिन सभी वायरस खौफनाक नहीं होते। इनकी दूसरी भूमिकाएं भी हो सकती हैं। वैज्ञानिकों ने ग्रीनलैंड की बर्फ पर विशाल वायरस की मौजूदगी का पता लगाया है जो बर्फ के शैवाल को संक्रमित करके आर्कटिक की बर्फ के काले होने और पिघलने को नियंत्रित कर सकते हैं। वायरस के ‘विशाल’ से चकित न हों। विशाल होने के बावजूद इन वायरस को कोरी आंख से नहीं देखा जा सकता। अभी माइक्रोस्कोप से भी इन्हें नहीं देखा जा सका है। इनकी खोज नमूनों के डीएनए विश्लेषण से हुई। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन वायरस का उपयोग करके बर्फ के पिघलने की गति को धीमा किया जा सकता है। इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने के लिए एक नया रास्ता मिल सकता है। हर वसंत में आर्कटिक के पिघलने पर जीव-जंतु और काले शैवाल सक्रिय हो जाते हैं। शैवाल के सक्रिय होने से बर्फ पिघलने की गति बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बर्फ के तेजी से पिघलने से होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए ये वायरस प्राकृतिक समाधान प्रदान करते हैं। आर्कटिक में महीनों के अंधेरे के बाद हर वसंत में जब सूरज उगता है,तो जीवन वापस आ जाता है। ध्रुवीय भालू अपनी सर्दियों की मांद से बाहर निकलते हैं। आर्कटिक टर्न नामक पक्षी अपनी लंबी यात्रा से दक्षिण की ओर उड़ते हैं और कस्तूरी बैल उत्तर की ओर बढ़ते हैं। लेकिन जानवर ही एकमात्र ऐसे जीव नहीं हैं जो वसंत के सूरज से फिर से जागृत होते हैं। बर्फ पर निष्क्रिय पड़े शैवाल वसंत में खिलने लगते हैं और बर्फ के बड़े क्षेत्रों को काला कर देते हैं। जब बर्फ काली हो जाती है तो सूरज को परावर्तित करने की इसकी क्षमता कम हो जाती है। इससे बर्फ पिघलने की प्रक्रिया में तेज़ी आती है जिससे ग्लोबल वार्मिंग और भी बढ़ जाती है।

डेनमार्क के आहस विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञानी लॉरा पेरीनी का कहना है कि विशाल वायरस बर्फ के शैवाल पर फ़ीड करते हैं। शैवाल के खिलने पर ये वायरस एक प्राकृतिक नियंत्रण तंत्र के रूप में काम कर सकते हैं। वायरस आम तौर पर बैक्टीरिया से बहुत छोटे होते हैं। सामान्य वायरस का आकार 20-200 नैनोमीटर होता है,जबकि सामान्य बैक्टीरिया का आकार 2-3 माइक्रोमीटर होता है। दूसरे शब्दों में,सामान्य वायरस बैक्टीरिया से लगभग 1000 गुना छोटा होता है। हालांकि, विशाल वायरस के मामले में ऐसा नहीं है। विशाल वायरस 2.5 माइक्रोमीटर के आकार तक बढ़ते हैं। विशाल वायरस ज़्यादातर बैक्टीरिया से बड़े होते हैं। लेकिन विशाल वायरस सिर्फ आकार में ही बड़े नहीं होते। आनुवंशिक जटिलता के हिसाब से ये वायरस बहुत अनोखे हैं। उनका जीनोम जीन समूह सामान्य वायरस से बहुत बड़ा होता है। बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले बैक्टीरियोफेज नामक वायरस के जीनोम में 100.000 से 200.000 अक्षर होते हैं। विशाल वायरस में लगभग 2.500.000 अक्षर होते हैं। विशाल वायरस की खोज सबसे पहले 1981 में समुद्र में हुई थी।

लेखक विज्ञान मामलों के जानकार हैं।

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