राजेश रामचंद्रन
जब वर्ष 1989 में अफगानिस्तान से ‘लाल सेना’ की वापसी हुई थी, तब इस घटना से सोवियत यूनियन का विघटन, अमेरिका का विश्व की एकमात्र सुपरपॉवर बनकर उभरना और हर कहीं-विशेषकर जम्मू-कश्मीर में-इस्लामिक पृथकतावाद को बतौर अमेरिका-सम्मत राजनीतिक एजेंडे की तरह बरतने का उद्भव हुआ था। आखिरकार स्टिंगर मिसाइल से लैस जिहादियों के हाथों वामपंथ की हार जो हुई। जाहिर है इस इस्लामिक उल्लासोन्माद की तरंगें जम्मू-कश्मीर और फिर समूचे भारत को झेलनी पड़ीं। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ रॉबिन राफेल, (जिनकी बाद में एफबीआई ने पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के आरोप में जांच की थी) ने जो भूमिका हुर्रियत बनाने, पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैन्य सहायता दिलवाने और धार्मिक पृथकतावाद को बौद्धिक मान्यता दिलवाने में निभाई थी, वह सोवियत सेना की वापसी का फौरी असर था।
अब, जबकि अमेरिकी सेना की वापसी भी अफगानिस्तान से हो रही है, भारत समेत सबको 9/11 की घटना के बाद 20 साल याद रहेंगे, न कि 1990 का दशक-वे दस साल, इस्लामिक आतंकवाद वाला काल, जिसने भारतीय राजनीति की शक्ल बदल डाली, जिसका अंत आते-आते हिंदुत्व शक्तियों को आरंभिक-अधिमान मिलना शुरू हो गया था। कहीं 1990 के दशक का दोहराव न हो जाए, यह डर वर्तमान में भारत को सता रहा है, किंतु लगता है ऐसा होगा नहीं। आखिरकार, इस मर्तबा अमेरिकी फौज की वापसी असल में तालिबान की जीत या जिहाद का मान्यकरण नहीं है। यहां तक कि जब अफगानिस्तान का लगभग आधा हिस्सा तालिबान के नियंत्रण में है, तब भी वे अभी तक 34 प्रांतों की एक भी राजधानी पर पूरी तरह काबिज नहीं हो पाए हैं। यह सिद्ध करता है कि सामना करने को डटे अफगान सैनिक इतनी आसानी से धूल भरे पहाड़ों में पिघलकर समाने वाले नहीं हैं। तालिबान के पास हवाई मारक क्षमता नहीं है और सरकारी सेना अमेरिका से मिले हेलीकॉप्टरों की बदौलत फिलहाल उन पर हावी है।
इन खबरों के बावजूद कि हज़ारों अफगान सैनिक रणभूमि से भागकर ताजिकिस्तान में शरण ले चुके हैं, अभी भी अमेरिका-प्रायोजित शांति स्थापना बनने और अंतरिम सरकार में गैर-तालिबान तत्वों को शामिल करने को ईमानदार कोशिश की संभावना खुली है। अशरफ गनी सरकार को गैर-मान्य करने को एक अन्य कठपुतली सरकार गिरने के तौर पर देखा जाएगा, जिसको बाहरी लोगों ने अनिच्छुक लोगों पर थोप दिया था और यह काम नए-पुराने तमाम प्रयोगों से सचमुच इतर नहीं था। फिर भी, जनजातीय फरमानों से राज चलाने वाले तालिबान खुद को एक ऐसी राजनीतिक इकाई में बदलने को तैयार नहीं हैं, जो संसद चलाए या चुनाव लड़े। इसलिए कयास है कि अंतरिम सरकार ऐसे मुल्लाओं की ‘जिरगा’ (महापंचायत) होगी, जिनके खंजर खिंचे होंगे।
लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह है कि आज की तारीख में तालिबान की सोच पहले की तरह एक ही सांचे में ढली हुई नहीं रही और न पूरी तरह वे पाकिस्तान के नियंत्रण में हैं। जरूरी नहीं दोहा, पेशावर और जमीनी लड़ाई लड़ने वाले तालिबान पाकिस्तान के सामरिक खेल में खुद को महज़ मोहरे बनाए रखें। बेशक उनके परिवार पाकिस्तान में आईएसआई के रहमो-करम पर हैं और सरगनाओं को दो टूक बता दिया गया है कि भारत से बातचीत करने पर क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। तथ्य तो यह है कि पाकिस्तान बेतरह चाहता है कि तालिबान को वह अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिले, जिसकी उन्हें जरूरत है ताकि वे किसी से वार्ता कर पाएं, बस एक भारत को छोड़कर। फिर भी, भारत उनके संपर्क में है, पिछले 20 सालों में सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों द्वारा किया गया निवेश अंततः अपना असर दिखा रहा है।
जहां पिछली मर्तबा तालिबान का स्वागत बतौर ‘मुक्तिदाता’ किया गया था, इस बार उनसे सहम व्याप्त है-यहां तक कि कई दफा नफरत की हद तक-यह बात उनको सुभेद्य और संपर्क में आने वाली बातों पर ध्यान देने लायक बना देती है। वास्तव में, उन्होंने अपने सामने आत्मसमर्पण करने वालों को न मारकर खुद को ‘न्यायी’ दर्शाना शुरू कर दिया है। पिछले साल एक विदेश नीति समाचार रिपोर्ट में बताया गया था कि कुछ तालिबान लड़ाकों की बहन-बेटियां स्कूल जाने लगी हैं, पहले ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि तालिबान ने मध्ययुगीन नियम-कानून लागू करने का मोह त्याग दिया है। ऐसी खबरें हैं कि तालिबान मुल्ला उन 15 साल से ऊपर या 45 वर्ष से नीचे उम्र की विधवाओं की सूची मांग रहे हैं, जिनके साथ अपने लड़ाके ब्याहे जा सकें। लेकिन यह शाश्वत तथ्य है कि तालिबान में भी विविध रंगों वाली अतीतगामी सोच व्याप्त है, इससे पर्यवेक्षकों को यकीन बंधता है कि उनके बीच आपसी भिन्नता वाली विचारधारा, आकांक्षा और निष्ठा पाले गुट मौजूद हैं।
इसी बीच, लगता है आईएसआई नया तालिबान नेतृत्व तैयार कर रही है, जो उसके कहे पर आंख मूंदकर चले, न कि वरिष्ठ तालिबान नेता मुल्ला बारादर या उसके जानशीन मुल्ला याकूब की तरह अपना दिमाग लगाए। हो सकता है कुछ पुराने अफगान राष्ट्रवादी पहरूए इस्लामिक अंतर्राष्ट्रीयकरण से परे देखकर भारत की पहल में रुचि दिखाएं क्योंकि उनमें अनेक को पाकिस्तानी लगाम में बंधने से गुरेज होगा और वे अफगान सत्ता के उच्च मंचों पर अपने लिए स्वतंत्र भूमिका और स्थान चाहेंगे। तालिबान नेतृत्व के वे लोग, जो भारत से बरतने के इच्छुक हैं, उनसे भारतीय एजेंसियां कम-से-कम यह उम्मीद रखेंगी कि वे भारतीय दूतावास, वाणिज्य दूतावास और संपत्ति की सुरक्षा यकीनी बनवाएं। यह करवा पाना अफगानिस्तान में भारतीय उद्यम का असल इम्तिहान होगा। भारत ने अफगानिस्तान में लोकहितपरक बुनियादी ढांचा विकसित करने में लगभग 3 बिलियन डॉलर का निवेश कर रखा है। इस हेतु बिजली, सड़कें, विद्यालय और स्वास्थ्य सेवाएं इत्यादि का निर्माण कार्य किया है। भारत ने अफगान विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति और गंभीर रूप से बीमार लोगों को दी स्वास्थ्य सेवा से नागरिकों के बीच जो साख प्राप्त की है, उसे मिटाना पाकिस्तान के लिए आसान न होगा।
यदि उन एजेंसियों ने, जिनकी देखरेख में अफगानिस्तान में भारतीय निवेश हुआ है, पिछले 20 सालों में सच में अपने काम को गंभीरतापूर्वक अंजाम दिया है, तो कोई वजह नहीं कि तालिबान से उनकी बातचीत सफल न हो और उनके बीच कुछ ऐसे सहयोगात्मक लोग मिल पाएं, जिससे कि अफगानिस्तान, और स्वदेश में भी, भारतीय हित सुरक्षित रहें। हमारे लिए बदतरीन संभावना यह होगी कि अफगानिस्तान पूरी तरह पाकिस्तान-नियंत्रित तालिबान के चंगुल में जा फंसे और फिर तमाम किस्मों के इस्मालिक गर्मख्याली अतिवादियों को मानव-बम में बदलने वाली प्रयोगशाला बन जाए और परिणामस्वरूप भारत सरकार को नयी आपातकालीन योजना बनानी पड़े।
चूंकि इस दफा सेना का पलायन अमेरिकी फौज की हार नहीं है और इसलिए इससे उनको यह अहसास होना चाहिए कि इस्लामिक देशों में सत्ता परिवर्तन के लिए इस्लामिक अंतर्राष्ट्रीयकरण को एक स्वीकार्य विचारधारा के तौर पर बरतना या मुस्लिम अल्पसंख्या वाले मुल्कों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने वाले औजार की तरह इस्तेमाल करना बंद किया जाए। जिस तरह सोवियत यूनियन के अवसान के साथ वामपंथी अंतर्राष्ट्रीयकरण दफन हो चुका है, उसकी तर्ज पर, अफगानिस्तान में नयी शुरुआत करने को, लड़ाई की परिणति वैश्विक जिहाद को खत्म करने में बहुत महत्वपूर्ण है। वह चलन, जिसकी शुरुआत धार्मिक योद्धा–मुजाहिद्दीन– बनने से हुई थी ताकि अफगानिस्तान पहुंचकर काफिरों से लड़ाई की जाए, वह दूरदराज, यहां तक कि अमेरिकी भूमि पर, मय भयावह परिणाम फैल चुका है। अफगानिस्तान को शांति की दरकार है, उतनी ही जितनी बाकी के पास-पड़ोस को है।
लेखक द ट्रिब्यून के संपादक हैं।