कहते हैं युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज़ होता है। मुझे लगता है, युद्ध और प्यार के साथ ‘चुनाव’ को भी जोड़ दिया जाना चाहिए। यह पहली बार नहीं है जब चुनाव-प्रचार के दौरान राजनेताओं को कुछ भी कहते, करते देखा जा रहा है। संदर्भ शीघ्र ही पांच राज्यों में होने वाले चुनाव का है। अभी तारीखों की घोषणा तो नहीं हुई, पर हमारे राजनेता, खास तौर पर सत्तारूढ़ दलों के नेता, जानते हैं कि घोषणा कभी भी हो सकती है। तब कुछ प्रतिबंध लग जायेंगे, इसलिए वे उससे पहले बहुत कुछ ऐसा करना-कहना चाह रहे हैं, जो बाद में नहीं हो सकेगा। हर चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल अरबों-खरबों की योजनाओं की घोषणाएं करने लग जाते हैं, आधारशिलाएं रखने लग जाते हैं। आधी-अधूरी योजनाएं उद्घाटित होने लगती हैं। यह सब तो फिर भी गनीमत है, चुनाव में जीत की तमन्ना में वह सब करना भी किसी को ग़लत नहीं लगता, जो कानून और संविधान के विरुद्ध तो है ही, मनुष्यता के भी खिलाफ है। पिछले कुछ दिनों में धर्म के नाम पर की जा रही लफ्फाजी और ज़्यादतियों में जिस तरह की बढ़ोतरी हुई है, वह निश्चित रूप से चिंता की बात है।
धार्मिक स्थलों और धार्मिक गतिविधियों को लेकर जिस तरह की घटनाएं हाल में घट रही हैं, उन्हें देखते हुए ही हमारे उपराष्ट्रपति ने केरल में एक धार्मिक आयोजन में उन सबको चेतावनी देना ज़रूरी समझा था, जो धर्म के नाम पर वह सब कर रहे हैं जिसे अधर्म ही कहा जा सकता है। सेंट कुरियाकोसे की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में केरल में आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि देश में कुछ तत्व अपने धर्म के पालन से कहीं ज़्यादा दूसरे के धर्म के पालन में रोड़े अटकाने में विश्वास करने लगते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में, पिछले कुछ दिनों में सांप्रदायिक तनाव के बढ़ने की घटनाओं के संदर्भ में ही उपराष्ट्रपति को यह कहना पड़ा कि ‘अपने धर्म का पालन अवश्य करें पर विद्वेष फैलाने वाली गतिविधियों से बचें।’ उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहना ज़रूरी समझा कि ‘विद्वेष फैलाने वाली बातें करना भारतीय संस्कृति, विरासत, संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है।’ उन्होंने यह भी कहा कि पंथ-निरपेक्षता हर भारतीय के खून में है और इसके लिए ही पूरी दुनिया में भारत की इज्जत की जाती है।
यह पहली बार नहीं है जब हमारे किसी नेता ने पंथ-निरपेक्षता को रेखांकित करते हुए ऐसा कहा है, पर इस समय उपराष्ट्रपति द्वारा यह कहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। विविधता में एकता का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले हमारे देश में आज धर्म को लेकर जिस तरह की हवा फैलायी जा रही है, वह हर विवेकशील भारतीय के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। मंदिर-मस्जिद का चुनावी मुद्दा बनना और ‘धर्म संसद’ के नाम पर होने वाले आयोजनों में धार्मिक वैमनस्य फैलाने की कोशिशें किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराई जा सकतीं। हरिद्वार और रायपुर की तथाकथित ‘धर्म संसदों’ में हमारे कथित धर्माचार्यों ने जिस भाषा में, और जिस उद्देश्य से, विष-वमन किया है वह भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता दोनों की दृष्टि से आपराधिक कृत्य है। हैरानी की बात है कि इन अपराधियों के खिलाफ अब तक ठोस कार्रवाई क्यों नहीं हुई। हैरानी की बात तो यह भी है कि हमारे बड़े नेताओं ने मनुष्यता के प्रति इस अपराध पर एक चुप्पी साध रखी है। छोटी-छोटी बातों पर सोशल मीडिया पर टिप्पणियां करने वाले हमारे नेताओं को इस संदर्भ में कुछ स्पष्ट कहने की आवश्यकता ही नहीं लगी।
लगभग बीस साल पहले, सन् 2003 में, हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चेन्नई में आयोजित एक समारोह में कहा था कि ‘भारत हमेशा एक खुला, समावेशी और सहनशील राष्ट्र रहा है और रहेगा। यहां हर धर्म के मानने वाले को अपने धर्म का अनुसरण करने की आज़ादी रहेगी। ऐसा इसलिए नहीं होगा कि हमारा संविधान यही कहता है, बल्कि इसलिए भी होगा कि यह खुलापन, सहनशीलता और समावेशी प्रवृत्ति हमारी प्राचीन सभ्यता की जीती-जागती परंपरा है।’
देश की पहली भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री को उद्धृत करते हुए यह सवाल मन में उठना स्वाभाविक है कि बीस साल पहले वाजपेयी जी ने जो आशा और विश्वास व्यक्त किया था, उनके अनुयायी आज उसके प्रति कितने निष्ठावान हैं? ऐसा नहीं है कि पहले हमारे यहां धार्मिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिशें नहीं हुईं, स्वतंत्र भारत में, दुर्भाग्य से, सांप्रदायिक दंगों का एक शर्मनाक इतिहास रहा है। इनके लिए किसी एक धर्म के अनुयायियों को ही दोषी ठहराना भी ग़लत होगा। लेकिन इस सच्चाई से भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि दंगे रोकने में, बहुसंख्यक समुदाय की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है। मुसलमान, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध आदि हमारे देश में अल्पसंख्यक हैं। हमारे संविधान के अनुसार, और मानवीय परम्पराओं के अनुसार भी, अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व निभाना बहुसंख्यकों का कर्तव्य है। सच कहें तो सह-अस्तित्व हमारी विवशता भी है और विशेषता भी। धर्म के आधार पर किसी को दूसरे दर्जे का नागरिक समझने की मानसिकता अपने आप में एक अपराध है। जाने-अनजाने इस अपराध को करने वाले ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की हमारी महान संस्कृति को झूठा सिद्ध करने के भी अपराधी हैं।
उचित तो यह होता कि हरिद्वार और रायपुर में वैमनस्य फैलाने की जो कोशिशें हुईं, सारे देश में उसका प्रतिकार होता। भारत के नागरिकों को धर्म के नाम पर बांटने की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता। हम किसी भी धर्म को मानने वाले हों, पहले भारतीय हैं। राष्ट्रवाद का यही मतलब होता है। धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देने वाले हमारे संविधान में जिस पंथ-निरपेक्षता की बात कही गयी है, वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1994 में की गयी एक टिप्पणी के अनुसार ‘धर्म के प्रति सहनशीलता की कोई नई प्रवृत्ति नहीं है, यह सब धर्मों के प्रति एक-से व्यवहार की एक सकारात्मक अवधारणा है।’ यह सकारात्मकता हमारी सोच और व्यवहार का हिस्सा बननी चाहिए। देश को हिंदू-मुसलमान या ईसाई आदि में बांट कर हम कुल मिलाकर देश के हितों की अनदेखी करते हैं। सत्ताएं बात-बात पर किसी को राष्ट्र-विरोधी घोषित करती रहती हैं, धर्म के नाम पर देश को बांटने की प्रवृत्ति से अधिक राष्ट्र-द्रोह और क्या हो सकता है? और ऐसी कोशिशों पर चुप्पी को क्या कहा जायेगा?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।