नदियों की चिंता है तो नदी खनन के पर्यावरणीय प्रभावों की भी समझ बढ़ानी होगी। आज उन मानदंडों को लेकर , सार्वजनिक बहस भी होनी चाहिये, जो नदियों में खनन की अनुमति देने के पहले के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करने के लिए सभी राज्यों में जरूरी होने चाहिए।
राज्यों के उच्च न्यायालयों व देश के उच्चतम न्यायालय में नदियों में अवैध खनन के मामले दशकों से ले जाये जाते रहे हैं जहां इस बारे राज्य सरकारों को कई बार तीखा भी सुनना पड़ता है। इसके बावजूद स्थिति में बदलाव नहीं। खनन माफिया की शासन पर पकड़ बनी रहती है। नागरिकों की पीड़ा व विरोध उपेक्षित रहते हैं। जिसका प्रमुख कारण सरकारों द्वारा नदी खनन को केवल राजस्व का प्रमुख स्रोत मान लेना है। जबकि, यह पर्यावरण क्षेत्र का विषय भी है।
इसी साल 27 मार्च को लोकसभा में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान सांसद त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने राज्य में जारी व्यापक अवैध नदी खनन और उससे लोगों व पारिस्थितिकी पर कुप्रभाव का मुद्दा उठाया था। जिस पर केन्द्रीय मंत्री का जवाब भी मिला था। उधर इसी संदर्भ में राज्य सरकार का जवाब यह कहकर दिया जा रहा है कि अवैध खनन होता तो खनन से राज्य का राजस्व इतना कैसे बढ़ता। यह दलील तार्किक नहीं लगती। मसलन शराब बिक्री से राजस्व बढ़ रहा है तो क्या राज्य में अवैध शराब की तस्करी नहीं हो रही। असल में राज्य के कई क्षेत्रों में अवैध खनन होता है। पूरे भारत की ही तरह उत्तराखंड में भी नदियों से बेतहाशा अवैध खनन हो रहा है।
जहां तक नदी खनन के पारिस्थितिकीय कुप्रभावों की बात है तो वह अवैध खनन से ही नहीं बल्कि वैध खनन से भी हो सकता है। ऐसे में उन मानदंडों को लेकर सार्वजनिक बहस होनी जरूरी है, जो नदियों में खनन की अनुमति देने के पहले के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करने के लिए सभी राज्यों में जरूरी होने चाहिए। यह भेद भी समझें कि खनन के पहले के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन के मानक उनसे भिन्न होंगे, जो खनन उपरांत पर्यावरणीय प्रभाव आकलन के लिए हों।
आमतौर पर नदियों में जितने खनन की अनुमति ली जाती है , उससे कई गुणा ज्यादा का खनन होता है। ऐसे में बाद के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन से ही पता चल पायेगा कि जितने खनिज , जिस जगह से, जितनी लम्बाई चौड़ाई व गहराई से व जिन तरीकों -मशीनों से निकाले जाने की शर्तों के साथ अनुमति दी गई थी , उनका पालन हुआ या नहीं। ऐसा न होने से पर्यावरण क्षति की पूर्ति कैसे होगी यह भी विचारणीय है।
वैज्ञानिक जब नदियों के खनन के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करते हैं , तो वे यह भी देखते हैं , कि नदियों में बहकर जो मिट्टी , बजरी , पत्थर आ रहा है उसकी रासायनिक खनिज संरचना क्या है। नदी में रहते हुये उस खनिज से वनस्पति, जल व जल जीवों पर क्या असर पड़ता है। इनकी निकासी से क्या असर पड़ेगा। इस प्रभाव आकलन में भूजल स्तर पर होने वाला अन्तर , किनारों का कटाव , नये भूस्खलन , भूधंसाव , भूक्षरण के संभावित क्षेत्रों का भी उल्लेख हो। राज्यों में पार्कों व सेंक्चुरियों के पास की नदियों के खनन में मशीनों की आवाज और रोशनी के व तय दूरी बनाये रखने के दिशा निर्देशों की कसौटी पर भी नदी खनन पारिस्थितिकीय प्रभाव आकलन को कसा जायेगा।
वैज्ञानिक खनिज ढुलाई के रास्तों में होने वाले और भण्डारण वाले स्थानों में होने वाले पर्यवरणीय प्रभाव आकलन को भी करते हैं। इसी कारण वे ढुलाई व भण्डारण की शर्तें भी सुझाते हैं।
नदियों में खनन से उनके पार्श्व तल के भूजल स्तर व प्रारूप पर भी असर पड़ता है। किनारे के उन सतही जलाशय क्षेत्रों पर भी असर पड़ जाता है , जहां मछलियां या अन्य जलचर अण्डे - बच्चे देने आते हैं। या वन्यजीव पानी या भोजन की तलाश में आते हैं। प्रवासी पक्षियों के प्रवास पर भी असर पड़ता है। वानस्पतिक जैव विविधता पर भी असर पड़ सकता है। नदियों के खुदान का उनके जल की रासायनिक गुणवत्ता पर भी असर पड़ सकता है।
निस्संदेह पर्यावरणीय पहलुओं के अलावा नदियों के खनन के आर्थिक, सामाजिक व संरचनात्मक विकास के पक्ष को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। रोजगार , निर्माण सामग्री की उपलब्धता व आपदा कार्यों के पुनर्निमाण में दिक्कत व अंतःराज्य निर्माण सामग्री की तस्करी जैसी समस्याएं भी नदी खनन पर रोक से पैदा हो सकती हैं। निर्देश रहते है कि पुलों के पास आवासीय बस्तियों के पास रेत खनन न हो , किन्तु खनन वहां भी होता है। जबकि बिना मिलीभगत अवैध खनन संभव नहीं।
नदियों में रेत खनन के मामले को समग्रता में समझने के लिए एनजीटी का एक निर्देश काफी मददगार है। अप्रैल 2019 में आंध्र प्रदेश सरकार पर अवैध रेत खनन रोकने में असमर्थ रहने पर कुछ निर्देशों के साथ 100 करोड़ रुपये अन्तरिम दण्ड लगाया गया था। मुख्य सचिव को अनियमित रेत खनन पर तुरंत रोक लगाने के आदेशों के साथ साथ चेताया गया था कि प्राकृतिक संसाधनों कोे पूर्ण संरक्षण प्रदान करना राज्य की जिम्मेदारी है। बेंच का मानना था कि भले ही राज्य सरकार लोगों को निशुल्क रेत देने की कल्याणकारी नीति की बात कर रही हो किन्तु इससे पर्यावरणीय प्रभावों की अनदेखी कर अनियमित रेत खनन का न्यायिक औचित्य सिद्ध नहीं होता है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक हैं।