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वाणी है वरदान, चूके तो अभिशाप

डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ वाणी मनुष्य को मिला ईश्वर का ऐसा अनूठा वरदान है, जो सृष्टि में अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला है। मनुष्य का भाषा पर विशेष अधिकार है। भाषा के कारण ही मनुष्य इतनी उन्नति कर...

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डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

वाणी मनुष्य को मिला ईश्वर का ऐसा अनूठा वरदान है, जो सृष्टि में अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला है। मनुष्य का भाषा पर विशेष अधिकार है। भाषा के कारण ही मनुष्य इतनी उन्नति कर सका है। हमारी वाणी में मधुरता का जितना अधिक अंश होगा हम उतने ही दूसरों के प्रिय बन सकते हैं। दूसरी ओर, कटु वाणी हमें अलोकप्रिय बना देती है और कभी-कभी तो भयंकर अनिष्ट करवा देती है।

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आज समाज में, जाने क्यों, असहनशीलता और संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है। जरा-जरा सी बात पर झगड़े-फसाद हो जाते हैं। हर आदमी जैसे खुद को लाट साहब ही समझता है और बोलने में तो जैसे सबने ज़हर ही घोल रखा है।

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वर्षों पहले मस्तमौला फक्कड़ कबीर ने हमें चेताया था और वाणी की महत्ता बताई थी, लेकिन हम हैं कि उस फ़क़ीर की बातों को भुला बैठे हैं :-

‘ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को सीतल करे, आपहु सीतल होय।’

आखिर, हम हर वक्त अहंकार के झूले में क्यों झूलते रहते हैं? आज एक बोधकथा ऐसी पढ़ने को मिली है, जिसमें जीवन में हमें मिले ‘वाणी’ के अनूठे और विलक्षण वरदान की महत्ता दर्शाई गई है—

‘दास प्रथा के दिनों में, एक मालिक के पास अनेक गुलाम हुआ करते थे। उन्हीं में से एक गुलाम था लुकमान। वह था तो सिर्फ एक गुलाम, लेकिन वह बड़ा ही चतुर और बुद्धिमान था। उसकी ख्याति दूर-दराज़ के इलाकों में फैलने लगी थी।

एक दिन इस बात की खबर उसके मालिक को लगी, तो मालिक ने लुकमान को बुलाया और कहा, ‘सुनते हैं कि तुम बहुत बुद्धिमान हो। मैं तुम्हारी बुद्धिमानी का इम्तिहान लेना चाहता हूं। अगर तुम इम्तिहान में पास हो जाओगे, तो तुम्हें गुलामी से छुट्टी दे दी जाएगी। मालिक ने हुक्म दिया, ‘जाओ, एक मरे हुए बकरे को काटो और उसका जो हिस्सा सबसे बढ़िया हो, उसे लेकर आओ।’ लुकमान ने आदेश का पालन किया और मरे हुए बकरे की ‘जीभ’ लाकर मालिक के सामने रख दी। जब मालिक ने कारण पूछा कि जीभ ही क्यों लाया? तो लुक़मान ने कहा, ‘अगर शरीर में जीभ अच्छी हो, तो सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा होता है।’

अब मालिक ने आदेश देते हुए कहा, ‘अच्छा! इसे उठा ले जाओ और अब बकरे का जो हिस्सा सबसे बुरा हो, उसे ले आओ।’ लुकमान बाहर गया और थोड़ी ही देर में उसने ‘उसी जीभ’ को लाकर मालिक के सामने फिर रख दिया।

फिर से कारण पूछने पर लुकमान ने कहा, ‘अगर शरीर में जीभ अच्छी न हो, तो सब बुरा-ही-बुरा होता है। मालिक! वाणी तो सभी के पास जन्मजात होती है, परन्तु बोलना किसी-किसी को ही आता है। क्या बोलें? कैसे शब्द बोलें, कब बोलें? इस कला को बहुत ही कम लोग जानते हैं। इसी जीभ की एक बात से प्रेम झरता है और दूसरी बात से झगड़ा हो जाता है। मेरे हुज़ूर! कड़वी बातों ने संसार में न जाने कितने झगड़े पैदा किये हैं। इस जीभ ने ही दुनिया में बड़े-बड़े कहर ढाये हैं। जीभ तीन इंच का वो हथियार है, जिससे कोई छह फीट के आदमी को भी मार सकता है, तो कोई मरते हुए इंसान में भी प्राण फूंक सकता है। संसार के सभी प्राणियों में वाणी का वरदान सिर्फ इंसान को ही मिला है। जीभ के सदुपयोग से स्वर्ग पृथ्वी पर उतर सकता है और दुरुपयोग से स्वर्ग भी नरक में बदल सकता है।’

मालिक, लुकमान की बुद्धिमानी और चतुराई भरी बातों को सुनकर बहुत खुश हुआ और उसने लुकमान को आजाद कर दिया।

सच तो यही है कि मीठी बोली सबको अपना बना लेती है और कड़वी बोली से आदमी किसी का नहीं बन पाता। कविवर रहीम ने तो कड़वी जुबान के बारे में व्यंग्यात्मक दोहा लिखा है।

‘रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गई सरग पताल।

आपु तो कहि भीतर रही,जूती खाय कपाल।’

मित्रों, इतना संकल्प तो हम ले ही सकते हैं कि प्रभु के दिए इस अनूठे वरदान से मीठा बोलें और अगर कोई कड़वा बोल भी जाए, तो उसे सहन कर लें ताकि महाभारत होने से बचा जा सके।

‘मीठा बोलो गर सखे, सब जग होगा साथ।

कड़वी वाणी बोल कर, होता मनुज अनाथ।’

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