हेमन्त अग्रवाल
कई समाचार संस्थानों में कार्य करने के बाद जब वर्ष 1984 में मैं नई दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स के सम्पादकीय विभाग में आया तो आते ही जिन विभूतियों से परिचय हुआ, उनमें से एक थे सत सोनी, समाचारपत्र के उपसमाचार सम्पादक। गोरा-चिट्टा रंग, ऊंचा कद लेकिन अत्यधिक दुबला पतला शरीर, आंखों पर खूबसूरत चश्मा, होंठों पर एक सौम्य मुस्कराहट और हाथ में उंगलियों के बीच सिगार या पाइप। यानी देखने में बिल्कुल एरिस्टोक्रेट, लेकिन आपको वार्तालाप के लिए आमंत्रण देती निगाहें। आमंत्रण, जिसे अस्वीकार करना मुश्किल नहीं बल्कि नामुमकिन था। और वार्तालाप शुरू होते ही आपको वह एरिस्टोक्रेट-सा दिखने वाला व्यक्ति पद में आपसे ऊपर होने के बावज़ूद आपको अपना मित्र लगने लगता था। बात-बात में कोई लतीफ़ा और फिर एक ज़ोरदार ठहाका। उनके इस मित्रवत् व्यवहार का ही परिणाम था कि कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह की परेशानी होने पर निःसंकोच उनसे सलाह या मार्गदर्शन लेने पहुंच जाता था। परेशानी व्यवसायगत हो या व्यक्तिगत, वह सुनने और उसका समाधान सुझाने के लिए या सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते। उनकी इस सदाशयता का लाभ प्रायः सभी को मिलता। मैं उन सौभाग्यशाली सहयोगियों में था जिन्हें उनका विशेष स्नेह प्राप्त था। वैसे उनका विशेष स्नेह प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या कितनी रही होगी, कहना कठिन है। यही कारण है कि जब गत बृहस्पतिवार यानी 26 मई की मध्य रात्रि में 89 वर्ष की आयु में उनके दिवंगत होने का समाचार उनके चाहने वालों को मिला तो वे स्तब्ध और निःशब्द रह गए। सबके पास उनकी सिर्फ़ यादें रह गई थीं। सोनी साहब पत्रकार तो अच्छे थे ही, इंसान के रूप में भी टंच सोना थे।
पत्रकारिता का जुनून सोनी साहब की नस-नस में मानो रक्त बन कर बहता था। कोई भी बड़ी खबर आने पर उछल पड़ना और अधिक सक्रिय हो जाना उनका स्वभाव था। अख़बार में शुद्धता के नाम पर क्लिष्ट हिन्दी का इस्तेमाल उन्हें तनिक नहीं सुहाता था। उनका कहना था कि आप अख़बार जिसके लिए छाप रहे हैं उसी की भाषा लिखिए। अगर आम आदमी विश्वविद्यालय न बोल कर यूनिवर्सिटी बोलता है, न्यायालय न बोल कर कोर्ट बोलता है, तो आप वही लिखिए ना। हमारा उद्देश्य किसी को भाषा पढ़ाना नहीं, आम आदमी तक खबर पहुंचाना है, उस भाषा में जो उसे आसानी से समझ में आ जाए। सोनी साहब का जन्म भले ही म्यांमार (तब बर्मा) में हुआ था, लेकिन उनकी शिक्षा-दीक्षा जालन्धर में हुई थी और पत्रकारिता की शुरुआत भी उन्होंने जालन्धर के ही एक उर्दू अख़बार ‘मिलाप’ से 1951 में की थी। बाद में वह दिल्ली टाइम्स समूह में आकर नवभारत टाइम्स से जुड़ गए। लेकिन जालंधर की भाषा और संस्कृति का प्रभाव उन पर अंत तक रहा।
टाइम्स ग्रुप ने जब 1979 में एक सांध्य दैनिक निकालने की योजना बनाई तो उसकी ज़िम्मेदारी सोनी साहब को ही सौंपी गई। कार्य चुनौतीपूर्ण था। सांध्य दैनिक सिर्फ़ नाम का सांध्यकालीन होता है। वस्तुतः वह दोपहर 12 बजे प्रकाशित कर दिया जाता है ताकि दोपहर को लंच की छुट्टी में दफ्तरों से निकले लोग उसे खरीद सकें। दोपहर तक ख़बरों का नितांत अभाव होता है। अतः किसी तरह जुगाड़ ही किया जाता है। ख़बरों से इतर सामग्री अधिक जुटानी होती है। इसे सोनी साहब की दक्षता ही कहेंगे कि उन्होंने बहुत जल्द सांध्य टाइम्स को अप्रत्याशित ऊंचाई तक पहुंचा दिया। यहां तक कि सर्कुलेशन विभाग उनसे प्रसार संख्या और न बढ़ने देने की गुज़ारिश करने लगा। क्योंकि उसका कहना था कि सर्कुलेशन बहुत अधिक बढ़ने से अख़बार को फ़ायदे की जगह नुकसान होता है। सांध्य टाइम्स का सर्कुलेशन बढ़ाने में सोनी साहब की विनोदप्रियता का भी बड़ा योगदान रहा। अख़बार के अंतिम पृष्ठ पर प्रतिदिन कई चुटकुले छापे जाते थे। ज्यादातर चुटकुले पाठकों के ही भेजे गए होते थे। यदि किसी दिन पाठकों के भेजे चुटकुले नहीं मिलते या कम पड़ जाते तो सोनी साहब खुद ही कुछ चुटकुले गढ़ देते। पाठक चुटकुलों के ऐसे मुरीद हो गए कि वे फ्रंट पेज की खबरें बाद में देखते, पहले अख़बार पलट कर चुटकुले पढ़ते। दिल्ली में पंजाब से आकर बसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है। सोनी साहब ने उनकी रुचि को देखते हुए उन दिनों प्रदर्शित किए जाने वाले पंजाबी टेस्ट के नाटकों आदि के बारे में छापना शुरू किया। इसका भी प्रसार संख्या पर अच्छा असर पड़ा।
प्रबंधन को सोनी साहब का सम्पादकत्व इतना भाया कि रिटायरमेंट के बाद भी उनकी सेवा में लगातार विस्तार किया जाता रहा। एक-दो बार उन्हें पदमुक्त किया भी गया लेकिन कुछ समय बाद ही उन्हें फिर बुला लिया जाता। और पुनः बुलाये जाने पर वह आकर फिर उसी तरह जुट जाते जैसे किसी युवा को कोई नई ज़िम्मेदारी दी गयी हो। उम्र के छह या सात दशक पार करने के बाद भी उनकी चुस्ती-फुर्ती देखने लायक थी। दूसरी या तीसरी मंज़िल तक जाने के लिए भी वह लिफ्ट का इस्तेमाल शायद ही कभी करते। और मैंने कई बार उन्हें जीने में दो-दो सीढ़ियां लांघ कर लगभग दौड़ते-भागते देखा था। इसीलिए कभी-कभी मैं उनसे कहता कि ‘बहुत अधिक दुबला-पतला होने के बावजूद आप मेरी नज़र में पूरे टाइम्स ग्रुप में सबसे स्वस्थ व्यक्ति हैं’। सुन कर वे हल्की-सी हंसी से मानो मेरे कथन का समर्थन करते।
कर्मठता की हालत यह थी कि दफ्तर में छह घंटे की जगह आठ-नौ घंटे बिताने के बाद जब वह शाम को घर लौटते तो उनके हाथ में बहुत से देशी-विदेशी अख़बारों का बंडल होता ताकि वह रात में घर पर पाठकों के लिए कोई रोचक सामग्री तैयार कर सकें और सुबह आते ही प्रेस में दे सकें। चुटीले और रोचक शीर्षक देने में उन्हें महारत हासिल थी। संभवतः ’90 के दशक में किसी आम चुनाव से पूर्व भारतीय जनता पार्टी ने घोषणा की कि यदि वह केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई तो वे बड़े-बड़े राज्यों को एक से अधिक राज्यों में बांट देंगे। सांध्य टाइम्स में सोनी साहब ने हैडिंग दिया – ‘बड़ी गद्दी मिली तो छोटे राज्य बनाएंगे’। इसी तरह उनका एक और हैडिंग मुझे याद आ रहा है -‘एक के दो करते तीन पकड़े गए’।
सांध्य टाइम्स से पहले नवभारत टाइम्स के साथ उनके समय को याद करें तो एक बात मुझे अक्सर याद आती है। उपसमाचार सम्पादक रहते हुए वे प्रायः दोपहर बाद लगभग 3 बजे दफ्तर आते और करीब 9 बजे घर लौटने से पहले मुख्य डेस्क पर आकर बोलते – ‘इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के’। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह संकेत था कार्यरत सहयोगियों के लिए कि ‘मैं जा रहा हूं, अब अख़बार का अच्छा संस्करण निकालने की ज़िम्मेदारी आप लोगों पर है’। और सहयोगी प्रायः उनकी अपेक्षाओं को पूरा कर अपने दायित्व का निर्वाह करते। अब देखना यह है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में आई नई फ़सल अपने दायित्व का कितना निर्वाह कर पाती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।