बीमार मानसिकता पर चोट करे समाज
विश्वनाथ सचदेव मध्य प्रदेश का शर्मनाक ‘पेशाब कांड’ हमारे समय के इतिहास के किसी पन्ने पर दर्ज होकर भुला दिया गया है, या भुला दिया जायेगा। अर्से से ऐसा ही होता आया है इस तरह की घटनाओं के साथ। ऐसी...
मध्य प्रदेश का शर्मनाक ‘पेशाब कांड’ हमारे समय के इतिहास के किसी पन्ने पर दर्ज होकर भुला दिया गया है, या भुला दिया जायेगा। अर्से से ऐसा ही होता आया है इस तरह की घटनाओं के साथ। ऐसी घटनाएं मीडिया की खबर तो बनती हैं, पर दो-चार दिन चर्चा में रहकर कहीं खो जाती हैं। खो जाती हैं के बजाय खो दी जाती हैं, कहना अधिक समीचीन होगा। शायद इसका एक कारण यह है कि ऐसी घटनाओं के संबंध में चर्चा का आधार घटना तो होती है, घटना के पीछे की मानसिकता पर विचार करने की ज़रूरत हमारा समाज नहीं समझता। मान लिया जाता है कि समाज में ऐसा कुछ होना एक सामान्य बात है। चिंता ऐसी घटना के बारे में नहीं, इस मानसिकता को लेकर होनी चाहिए।
इस घटना को लेकर एक छोटी-सी खबर छपी है अखबारों में, जिसमें मध्य प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता ने यह कहा है कि पेशाब कांड वाली घटना कांग्रेस के कार्यकाल में हुई थी। शायद नेताजी कहना यह चाहते हैं कि हमारी पार्टी का दामन इस संदर्भ में साफ है। लेकिन सवाल उठता है क्या भाजपा के शासनकाल में बजाय कांग्रेस के शासनकाल में होने से घटना की गंभीरता कम हो जाती है? किसी भी घटना का राजनीतिक लाभ उठाने की ताक में रहने वाले राजनेता, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों, यह बात क्यों भूल जाते हैं कि घटना उसी समाज में घटी है जिसमें वह रह रहे हैं, और ऐसी किसी घटना के लिए दोषी वे सब हैं जो ऐसी घटना को घटने देते हैं या फिर ऐसी घटना से चिंतित- व्यथित नहीं होते! आदिवासी समाज के एक व्यक्ति के साथ इस तरह का शर्मनाक व्यवहार होना उन सबके लिए चिंता और पीड़ा का विषय होना चाहिए जो मानवीय संवेदनाओं को जीते हैं और मनुष्य की समानता के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। यह बात कोई मायने नहीं रखती कि घटना किस पार्टी के शासनकाल में हुई थी। घटना कभी भी घटी हो, किसी ने भी ऐसी घटना को अंजाम दिया हो, कलंक का टीका तो उस सारे समाज के माथे पर लगता है जिसमें ऐसी बीमार मानसिकता को पनपने का अवसर दिया जाता है। हां, ऐसा अवसर दिया जाता है, मिलता नहीं! होना तो यह चाहिए था कि इस कांड को लेकर समाज में कोई स्वस्थ बहस चलती, इस बात को लेकर चिंता महसूस की जाती कि समता और बंधुता को अपना आदर्श मानकर चलने वाले समाज में ऐसी घटनाएं क्यों घटती या घटने दी जाती हैं, क्यों नहीं इन पर रोक लग पा रही, पर हो यह रहा है कि राजनेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल कर अपने राजनीतिक स्वार्थों की रोटियां सेंकने में लग गये हैं। कांग्रेस के शासनकाल में घटना के घटने की बात कहकर ऐसी ही कोशिश की जा रही है।
ऐसी ही कोशिश तब भी हुई थी जब राज्य के मुख्यमंत्री ने अपमानित किये गये आदिवासी युवक को अपने ‘महल’ में बुलाकर उसके पैर धोये थे, उसे फूलमाला पहनायी थी और उसके साथ बैठकर भोजन किया था। जी हां, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का यह प्रयास कुल मिलाकर अपनी कमीज़ दूसरे की कमीज़ से उजली बताने की एक कोशिश के अलावा और कुछ नहीं था। इससे अधिक हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि कुछ लोग मुख्यमंत्री के इस कृत्य की तुलना भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अपने बालसखा सुदामा के पांव पखारने से कर रहे थे! हम यह भूल जाते हैं कि कृष्ण ने ‘पानी-परात को हाथ छुओ नहीं, नैनन के जल सों पग धोये’ थे। वे आंसू मित्र की दुर्दशा देख कर ही नहीं बहे थे, वे इस पश्चाताप के आंसू भी थे कि उनके राजा होते हुए उनके राज्य में किसी की ऐसी दशा क्यों हुई। इस बात को समझे बिना मध्यप्रदेश के शर्मनाक कांड की गंभीरता को नहीं समझा जा सकता। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री-कार्यालय ने इस बात का पूरा ध्यान रखा था कि मुख्यमंत्री द्वारा आदिवासी दलित के पांव पखारने वाला वह दृश्य अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। अखबारों में यह चित्र छपा था, टीवी चैनलों पर यह दृश्य बार-बार दिखाया गया था। गनीमत है मुख्यमंत्री जी ने घटना की सेल्फी लेने की आवश्यकता नहीं समझी, अन्यथा यह बात और गहरे से रेखांकित होती कि पीड़ित आदिवासी युवक के साथ सेल्फी खींच कर मुख्यमंत्री जी ने स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया।
यह सही है कि आदिवासी-दलित के मुंह पर पेशाब करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया है, उसके मकान पर बुलडोज़र भी चलाया जा चुका है। अब केस चलेगा। अदालत से इस अपराध की सज़ा भी अपराधी को मिल सकती है, लेकिन किसी एक को सज़ा देने से बात बनेगी नहीं। बात तब बनेगी जब पूरा समाज यह अनुभव करेगा कि किसी को कथित ओछी जाति का होने के कारण अछूत समझना कानून की दृष्टि से ही नहीं, मनुष्यता की दृष्टि से भी अपराध है। लेकिन ऐसी स्थिति बने, इसकी कोई ईमानदार कोशिश होते दिख नहीं रही।
आज़ादी के इस अमृतकाल में भी आये दिन वंचितों के साथ दुर्व्यवहार किये जाने के समाचार मिलते रहते हैं। कभी किसी दलित युवक को घोड़ी पर बैठकर बारात निकालने से रोका जाता है और कभी किसी दलित युवक का मूंछें रखना कथित दबंगों को खल जाता है! भारतीय समाज के लिए यह तथ्य चिंता और शर्म का विषय होना चाहिए कि 21वीं सदी के तीसरे दशक के तीन सालों में देश में अनुसूचित जाति पर अत्याचार के डेढ़ लाख से अधिक मुकदमे दर्ज हुए हैं और हर साल इन मुकदमों की संख्या बढ़ी है! सन् 2018 में यह संख्या 42793 थी, 2019 में 45961 और 2020 में 50291.
कुछ ही अर्सा पहले गुजरात के एक गांव में एक दलित ने अपनी शादी के निमंत्रण पत्र पर अपने नाम के साथ सिंह लिख दिया था। उसका यह अपराध इतना गंभीर माना गया कि दबंगों ने हिंसक कार्रवाई की धमकी दे डाली! मामला पुलिस के पास पहुंचा, अपराधी को सज़ा भी मिली होगी। लेकिन महत्वपूर्ण यह तथ्य भी है कि हमारा समाज आज भी बीमार मानसिकता में जी रहा है। यह एक गंभीर मसला है। इसकी गंभीरता को समझे जाने की आवश्यकता है। मध्यप्रदेश के सीधी जिले के आदिवासी दलित के मुंह पर पेशाब करने की घटना को एक अपराध नहीं, एक आपराधिक और बीमार मानसिकता के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए, बीमारी का इलाज इसके बाद की बात है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।