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अकेलेपन के संत्रास से खोखला होता समाज

अविजीत पाठक जाति-पाति में बंटा एक समाज, जैसा कि हमारा है, अनेकानेक समस्याओं और विद्रूपताओं का घर होता है– गरीबी से लेकर बहुत ज्यादा आर्थिक-सामाजिक असमानता से लेकर, धार्मिक टकराव से लेकर पितृसत्तात्मक हिंसा तक। लेकिन इन दिनों जो एक...
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अविजीत पाठक

जाति-पाति में बंटा एक समाज, जैसा कि हमारा है, अनेकानेक समस्याओं और विद्रूपताओं का घर होता है– गरीबी से लेकर बहुत ज्यादा आर्थिक-सामाजिक असमानता से लेकर, धार्मिक टकराव से लेकर पितृसत्तात्मक हिंसा तक। लेकिन इन दिनों जो एक सवाल ज्यादातर मुझे अक्सर सालता है ‘क्या भारतीय समाज के भिन्न तबकों में बढ़ते अकेलेपन से पैदा हुई मनोस्थिति और वजूद पर संकट की आशंका एक अन्य समस्या नहीं?’ या फिर, यूके और जापान के ‘मिनिस्टर्स ऑफ लोनलीनेस’ के शब्दों में, क्या यह समस्या ज्यादातर अमीर और विकसित मुल्कों की है?

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खैर, यहां भारत में हम यह दिखावा जारी रख सकते हैं कि परिवार और सगे-संबंधियों से हमारा नाता क्योंकि बहुत मजबूत है, सो इस सामाजिक संबल की वजह से एकाकीपन वैसी गंभीर समस्या नहीं है जिस पर इतनी चिंता की जाए। लेकिन, तथ्य यह है कि हालात तेजी से बदल रहे हैं। और यदि आपकी आंखें सच में खुली हैं और आपके दिल में हमदर्दी है, तो आप इसका मूर्त रूप हमारे बड़े शहरों में फाटक जड़ी कालोनियों में साफ महसूस कर सकते हैं, जब आप वहां ‘एकाकियों की भीड़’ के पास से गुजरते हैं, तो बुजुर्गों की आंखों में साफ देख सकते हैं कि सुदूर देशों में बसे अपने ‘सफल’ बच्चों का फोन आने की आस किस कदर है। हां, यहां तक कि उन युवा विद्यार्थियों में भी, जो इस अत्यंत-प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में एक गुमनाम और अदृश्य योद्धा की भांति मिथिकीय सफलता पाने की होड़ में भागे चले जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण खोज एवं जनस्वास्थ्य नामक पत्रिका में 2022 में छपे एक अध्ययन के अनुसार भारत में 20.5 फीसदी वयस्क मध्यम दर्जे के अकेलेपन से और 13.3 प्रतिशत अति-एकाकीपन से ग्रस्त हैं।

इसके लिए किसी को व्यावसायिक मनोविज्ञान होने की जरूरत नहीं है कि क्यों अकेलापन, जिसका अनुभव अपना वजूद खो बैठे या गुमनामी झेल रहे या विरक्त हुए या फिर वह लोग जो रिश्तों की गर्माइश और देखभाल की नैतिकता के निरंतर ह्रास से खालीपन से भरे हैं– मौजूदा वक्त में एक बड़ा मसला बनता जा रहा है। मिसाल के लिए समय और गति के प्रति बहुत आसक्ति। आज की तेज रफ्तार, मोबाइल फोन और तकनीक चालित दुनिया में घड़ी का हर पल ‘उत्पादकता’ और ‘दक्षता’ बढ़ाने के लिए ‘उपयोगिता मूल्य’ का सोपान बन चुका है। किसी के पास वह करने की फुर्सत नहीं जो नव-उदारवादी एवं वैश्विक पूंजीवाद के पैमाने पर ‘गैर-उत्पादक’ प्रयोजन है, मसलन, दोस्त का दोस्त से मिलना और स्वार्थ रहित संवाद या घड़ी-मोबाइल फोन पर नज़रें गड़ाए बिना बुजुर्ग माता-पिता से आत्मीय बातचीत या पड़ोसी से साथ बैठकर चाय पीना, क्रिकेट और मौसम जैसे सतही विषयों या नकली बातों से इतर गप्प-शप लड़ाना, रुचिकर हंसी-मजाक करना।

कोई हैरानी नहीं, हर चीज जल्दबाजी में करने की हमारी हड़बड़ाहट या समय प्रबंधन के प्रति अत्यधिक आसक्ति ने इस युग की गति को और तीव्र कर डाला है। देखा जाए तो ‘हमारे तेज उच्चमार्ग, हवाई अड्डे, हमारे मेट्रो स्टेशन’ पर इतराना एक प्रकार की बीमारी का द्योतक हैं। बढ़ी हुई मानसिक हरारत के साथ, हम भागम-भाग में लगे हैं, रुककर सोचने-समझने का वक्त नहीं है, न ही प्रकृति का आनंद लेने या हल्का-फुल्का और तनाव मुक्त महसूस करने का। फास्ट फूड से लेकर डेटिंग एप्लीकेशन्स तक, जीवन के तमाम पहलुओं को जितना हो सके तेजी से हड़प लो। रिश्तों के लिए समय चाहिए होता है, इसके लिए ध्यान, परस्पर देखभाल और सहजता जरूरी है। लेकिन हमारी तरजीहों का क्रम उल्टा है, तभी हम ज्यादा-से-ज्यादा अकेले पड़ते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ मुम्बई के चर्चगेट स्टेशन या फिर दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन की भीड़ में ही नहीं, पूरे सफर में किसी सहयात्री से एक भी शब्द साझा किए बगैर सफर करना या फिर फाटक लगी कालोनी में 1000 वर्ग फुट का आलीशान घर है लेकिन पड़ोस में किसी से जान-पहचान तक नहीं। फैंसी नामधारी और गेट वाली ऐसी कालोनियों में बेशक तमाम सुविधाएं होती हैं– चौबीसों घंटे चौकीदार, सीसीटीवी कैमरों की निगरानी, कार के लिए निर्दिष्ट जगह, क्लब और स्वीमिंग पूल इत्यादि। फिर भी शायद ही कहीं पड़ोसियों के बीच आत्मीय नाता हो, ज्यादातर का तो नाम तक नहीं जानते, कालोनी के रजिस्टर में या आस-पड़ोस के लोगों के बीच आपकी पहचान घर के नंबर से है। अपनी उम्दा कार, शानदार घर या ऊंचे पद के दंभ भरे दिखावे के बीच खुलकर संवाद का भाव नदारद है।

विडंबना देखिए, इंटरनेट और स्मार्टफोन के इस युग में, हम अपने फॉलोवर्स या सबस्क्राइबर्स से तुरंत जुड़ जाते हैं, फेसबुक पर ढेरों मित्र होने से हो सकता है अपनी हैसियत का अनुभव हो। फिर भी, इस आभासीय डिजिटल रिश्तों के बीच, प्रियजनों से आमने-सामने बैठकर बातें करने का जो मजा है वह लुप्त हो गया है। जैसे-जैसे आभासीय वास्तविकता हमारे वजूद को घेरती जा रही है वैसे-वैसे हम समाज से कटते जा रहे हैं। यही वजह है कि खाने की मेज पर भी बच्चे और बड़े अपने-अपने स्मार्टफोन में खोए रहते हैं? इंस्टाग्राम पर अपनी पोस्ट पर और अधिक लाइक पाने की ललक में हम असली इंसानों की सोहबत खोते जा रहे हैं। यहां हम सही ढंग से जीने में विफल हो रहे हैं, और अब उस अवस्था में हैं जिसे बेसुध यानी ‘सदा विचारों से लदा मानस’ कहते हैं।

बतौर एक अध्यापक, मुझे हमारे विद्यार्थियों में बढ़ता जा रहा अकेलापन चिंतित कर रहा है। क्योंकि हर कोई प्रतिस्पर्धी में तब्दील हो चुका है या शिक्षा के मूल्य का पैमाना बढ़िया नौकरी और तनख्वाह पाना बनकर रह गया है। जो अत्यंत दबाव और चिंता आज हमारे विद्यार्थी भुगत रहे हैं, उससे आपसी संवाद खत्म हो रहा है। मानसिक चिंता, अवसाद, एकाकीपन, दूसरों से पिछड़ने का भय– यानी तमाम नकारात्मकता– हमारे युवाओं में भरती जा रही है। इसका बदतरीन नमूना राज्यसभा में रखे गए नवीनतम आंकड़े हैं, वर्ष 2019 से 2023 के बीच देशभर की आईआईटी में 8000 छात्रों ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी, 39 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। डार्विन के ‘श्रेष्ठतम ही जीने लायक है’ सिद्धांत को सामान्य नियम बनाना और एक वास्तविक चिंतनशील एवं मुक्त शिक्षा की अनुपस्थिति से आने वाले सालों में युवाओं के बीच अस्तित्वगत पीड़ा बहुत गंभीर होने जा रही है।

हां, अकेलापन हमारे यहां भी पसर चुका है। एकमात्र उपाय है व्यवस्था-सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक क्रांति, जो वह सब दुबारा बनाए जिसकी जरूरत हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है यानी पैसे की पूजा की जगह प्यार, अंतहीन गति की बजाय सहजता और धन-दौलत पर दंभ के बदले अपने अंतस को पल्लवित करना।

लेखक समाजशास्त्री हैं।

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