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सोशल मीडिया उपदेशकों के संजाल से बेहाल

सोशल मीडिया का कोई भी मंच और सीखने-सिखाने का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां सैकड़ों-हजारों उपदेशकों की फौज मौजूद न हो। इनके पास शिक्षा देने की कोई डिग्री या विशद अनुभव है भी या नहीं- चूंकि इसकी...
चित्रांकन संदीप जोशी
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सोशल मीडिया का कोई भी मंच और सीखने-सिखाने का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां सैकड़ों-हजारों उपदेशकों की फौज मौजूद न हो। इनके पास शिक्षा देने की कोई डिग्री या विशद अनुभव है भी या नहीं- चूंकि इसकी जांच का कोई तरीका नहीं है।

एक फिल्मी कहावत है कि ज्ञान जहां से भी मिले, लपेट लेना चाहिए। इस ज्ञान बांटू और बटोरू मानसिकता का अगर सबसे ज्यादा असर कहीं हुआ है, तो सोशल मीडिया उपदेशकों के क्षेत्र में हुआ है। खासतौर से सोशल मीडिया का कोई भी मंच और सीखने-सिखाने का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां सैकड़ों-हजारों उपदेशकों की फौज मौजूद न हो। इनके पास शिक्षा देने की कोई डिग्री या विशद अनुभव है भी या नहीं- चूंकि इसकी जांच का कोई तरीका नहीं है। इसलिए सिर्फ प्रभावशाली उपदेश देकर बरास्ता सोशल मीडिया ये लोग शिक्षा, तकनीक, अध्यात्म से लेकर शेयर मार्केट तक में छाए हुए हैं। इसका नतीजा क्या है- यह बानगी हाल में कथित तौर पर देश के जाने माने फाइनेंशियर इन्फ्लूएंसर और ट्रेडिंग एडवाइजर अवधूत साठे की ट्रेनिंग एकेडमी पर शेयर बाजार नियामक संस्था सेबी के छापे और तलाशी-जब्ती अभियान से स्पष्ट होती है। सेबी को अंदेशा है कि साठे की अकादमी के पाठ्यक्रमों के जरिए कम कीमत वाले (पेनी) स्टॉक्स को बढ़ावा देने वाले ऑपरेटरों के साथ मिलकर खुदरा निवेशकों को गुमराह कर रहे हैं।

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यूट्यूब पर करीब एक लाख नियमित सब्सक्राइबर रखने वाले साठे को लेकर संदेह है कि अपने पाठ्यक्रमों से जुड़े सेमिनार और यूट्यूब चैनल के जरिए जिस तरह से वह खुद को बाजार का विशेषज्ञ बताकर और रातोरात करोड़ों रुपये कमाने का झांसा देते हैं, उसमें कुछ न कुछ झोल अवश्य है। सेबी को इसकी तमाम शिकायतें मिली हैं कि देश में फाइनेंशियल इन्फ्लूएंसरों की एक ऐसी फौज पैदा हो गई है, जो निवेशकों को शेयर बाजार की शिक्षा देते हुए गारंटिड रिटर्न का दावा करती है, जबकि ऐसे ज्यादातर लोग सेबी के नियमों के तहत यह शिक्षा देने के लिए पंजीकृत तक नहीं हैं।

हालांकि उपदेशक होना बुरा नहीं है। हर दौर में देश और समाज को दिशा दिखाने और सही-गलत का फर्क बताने वाले विद्वानों, ऋषि-मुनियों, साधु-फकीरों की जमात की मौजूदगी रही है। ये उपदेशक बताते थे कि क्या और कैसे बोला जाए, आहार और दिनचर्या क्या हो, आदर-सम्मान के क्या तौर-तरीके हैं। तभी मन का आपा न खोने वाली वाणी बोलने की सलाह देने वाले कबीरदास को संत की उपाधि दी गई। आज के संदर्भों में देखा जाए तो संत कबीर पुराने वक्त के इन्फ्लूएंसर थे।

हाल की कुछ घटनाओं में उपदेशकों की भूमिका को संदिग्ध माना गया है। जैसे, साल के शुरू में सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे वीडियो वायरल हुए थे कि जब मनाली से लेकर अयोध्या-काशी में पर्यटकों की फौज उमड़ी पड़ रही थी, तो उसी दौरान अपने मनोरम समुद्र तटों के लिए मशहूर गोवा के समुद्री किनारे (बीच), होटल आदि खाली पड़े थे। इन दावों को गोवा सरकार ने फर्जी बताते हुए झूठ परोसने के लिए सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसरों पर मानहानि का दावा ठोकने की बातें कही थीं। सरकार का दावा था कि कुछ सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर एक टूलकिट इस्तेमाल कर रहे हैं। इस टूलकिट के जरिए वे पर्यटकों को गोवा से मुंह मोड़कर दूसरी जगहों पर जाने की भ्रामक जानकारी दे रहे हैं।

एक अनुमान के मुताबिक हमारे ही देश में इस वक्त 40.6 लाख से ज्यादा सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर मौजूद हैं, जिनमें से 10 फीसदी हर महीने लाखों रुपये कमाते हैं। सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक आदि तमाम मंचों पर हर किस्म का ज्ञान परोस रहे हैं। घुमक्कड़ी , खाना बनाने-पकाने, फैशन टिप्स से लेकर वीडियो के संपादन और शेयर बाजार के खिलाड़ी बनाने तक के गुर बताने वाले इन्फ्लूएंसर्स की संख्या भी लाखों में है। इनमें से सैकड़ों ऐसे भी हैं, जिनके शुभचिंतकों (फॉलोवर्स) की संख्या भी लाखों-करोड़ों में है।

इधर कुछ वर्षों से विभिन्न राजनीतिक दल जिस प्रकार खुद सोशल मीडिया का बढ़-चढ़कर इस्तेमाल करने से लेकर इन्फ्लूएंसर्स की सेवाएं भी लेने लगे हैं, उसका निष्कर्ष है कि इन सोशल मीडिया उपदेशकों का सही या गलत- कुछ प्रभाव तो होता ही है। यही वजह से ऑनलाइन सामान और सेवाएं बेचने वाली कंपनियां तो विविध तरह से भुगतान करके इनकी सेवाएं लेती हैं। लेकिन यहां सवाल है कि इन्हें सही करने या इन्हें रोकने-टोकने का जिम्मा आखिर किसका है।

इसमें तो संदेह नहीं है कि सोशल मीडिया मंचों ने हर व्यक्ति को अपनी बात खुलकर कहने का अवसर देकर नागरिकों को सशक्त बनाया है। मुसीबत तब शुरू हुई जब एक तरफ सोशल मीडिया कंपनियों ने यह फैसला अपने हाथ में ले लिया कि लोग ऑनलाइन क्या देखें और क्या नहीं। दूसरी तरफ, इनके विभिन्नों मंचों पर अधकचरी जानकारी के साथ आने वाले उपदेशकों ने हर क्षेत्र में हाथ आजमाने की कोशिश की। इनमें से ज्यादातर के पास न तो संबंधित ज्ञान परोसने की कोई डिग्री है और न ही ऐसा विशद अनुभव, जिसके आधार पर उन्हें विद्वान माना जा सके। लेकिन कहने की शैली और डिजिटल प्रबंधों के बल पर ये कोई भी बात इस तरह पेश करते हैं कि आम लोग बड़ी आसानी से इनके प्रभाव में आ जाते हैं। समस्या का एक छोर यह है कि ये इन्फ्लूएंसर अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाकर लोगों को घटिया या फर्जी उत्पाद खरीदने को प्रेरित करते हैं।

इंग्लैंड की पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी ने एक शोध में बताया कि इन्फ्लूएंसर की सलाह पर 16-60 साल की उम्र के बीच करीब 22 फीसदी उपभोक्ताओं ने ऐसे नकली उत्पाद खरीद लिए, जिन्हें इन्फ्लूएंसर्स ने प्रमोट किया था। हालांकि एक्स (ट्विटर), फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि ने फेक (नकली) अकाउंट की पहचान करने और उन्हें ब्लॉक करने जैसे उपायों को लागू किया है, लेकिन यह रोकथाम बहुत असरदार नहीं रही है। इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो अपना प्रभाव दिखाने के लिए पैसे देकर अपने फॉलोअर और व्यूज़ बढ़ाते हैं।

देश में बड़ी संख्या में युवाओं के शेयर बाजार में ट्रेडिंग को लेकर बढ़ती दिलचस्पी को देखकर जब बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया पर वित्तीय सलाह देने वाले विशेषज्ञों (फाइनेंशियल इनफ्लुएंसर्स या फिनफ्लूएंसर) की बाढ़ आ गई तो उससे एक फर्जीवाड़े का खुलासा हुआ। पता चला कि इनमें से ज्यादातर के पास वित्तीय सलाह देने वाली कोई डिग्री नहीं है। यह भी पता चला कि कई फाइनेंस इनफ्लुएंसर ने शेयर कारोबार में हुए नुकसान की भरपाई के लिए युवाओं को फ्यूचर एंड ऑप्शन के कोर्स बेचकर पैसे वसूले। यही नहीं, इनमें से कुछ वित्तीय इन्फ्लूएंसर डिजिटल मीडिया, चैनल आदि के माध्यम से लोगों को निवेश की सलाह देने वाली पोस्ट डालने के बदले लाखों रुपये लेते हैं और अपनी राय से लोगों के वित्तीय फैसलों को प्रभावित करते हैं। इस फर्जीवाड़े का पता चलने पर शेयर बाजार की नियामक संस्था- सेबी ने इन फिनफ्लूएंसर्स पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू कीं। यह प्रावधान सुझाया गया कि शेयर बाजार में पंजीकृत बिचौलियों के जरिए विज्ञापन, इवेंट्स और अन्य आयोजनों में इन्फ्लूएंसर्स को जोड़ने पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। साथ ही वित्तीय इन्फ्लूएंसर को सेबी के पास अपना पंजीकरण कराना होगा।

निस्संदेह, विषय की जानकारी और संबंधित डिग्री व अनुभव रखने वाले कई सोशल इन्फ्लूएंसर अच्छी जानकारी देते हैं, लेकिन इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है कि अनियंत्रित इन्फ्लूएंसर तमाम सामाजिक और आर्थिक जोखिमों को बढ़ा सकते हैंैं। ऐसे में, इनके व्यवहार, सलाह और जवाबदेही को नियंत्रित करने का काम खुद सोशल मीडिया कंपनियों और कुछ अर्थों में सरकारों को नियम-कायदे अपनाते हुए करना होगा।

लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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