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जटिल दस्तावेजी प्रक्रिया से मुक्त हो एसआईआर

अलग-अलग तरह के ‘कागजात’ बनवाने की जटिल प्रक्रिया जारी है जिनमें एक एसआईआर यानी वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण भी है। नागरिक जटिलताओं में फंसे हैं और बार-बार साबित करने को मजबूर हैं कि हम कौन हैं। आधुनिक राज्य...

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अलग-अलग तरह के ‘कागजात’ बनवाने की जटिल प्रक्रिया जारी है जिनमें एक एसआईआर यानी वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण भी है। नागरिक जटिलताओं में फंसे हैं और बार-बार साबित करने को मजबूर हैं कि हम कौन हैं। आधुनिक राज्य हमारे मूलभूत इंसानी गुणों को बायोमेट्रिक्स और दस्तावेज़ों तक सीमित कर देता है।

ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग जिस ढंग से मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण करवा रहा है, उसमें जरूरी नहीं सब कुछ ठीक हो। असल में, जैसा कि पश्चिम बंगाल से आई खबरों से पता चलता है, इससे आम लोगों के साथ-साथ बूथ लेवल ऑफिसर्स (बीएलओ) में भी बहुत तनाव और चिंता पैदा हो रही है। काम के अत्यधिक दबाव की वजह से चार बीएलओ द्वारा आत्महत्या कर लेना सच में चिंता की बात है, लेकिन यह भी उतना ही ज़रूरी है कि आम नागरिक या शांति से रहने वाले लोग इस बात को लेकर बहुत परेशान हैं कि उन्हें किस तरह के दस्तावेज़ दिखाने होंगे ताकि उनका नाम संशोधित सूची से कटने न पाए। जैसा कि विरोधी पार्टियां आरोप लगा रही हैं, इस डर से अब तक 40 लोगों की मौत हो चुकी है। क्या ऐसा है कि विशेष सघन पुनरीक्षण कानून के ज़रिए सरकार हमसे यह साबित करने के लिए कह रही है कि हम भारतीय हैं, हमारे माता-पिता भारतीय हैं, और हम गैर-कानूनी अप्रवासी नहीं हैं? और खासकर पश्चिम बंगाल जैसे सीमावर्ती राज्यों में, यह अभियान एक नया रूप धर चुका है।

सोचिए यह मानसिक व्यग्रता कितनी संक्रामक है। हालांकि मैं दिल्ली में रहता हूं, फिर भी मैंने अपने सारे दस्तावेज़ सही क्रम से रखने शुरू कर दिए हैं : वो दस्तावेज जो यह साबित कर सकें कि मैं भारत में ही पैदा हुआ हूं, मेरे माता-पिता भारतीय थे, और मेरा नाम 2002 की वोटर लिस्ट में था। मेरे पिता एक सरकारी ऑफिसर थे। तीन दशक से ज़्यादा समय तक, मैंने एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ाया। मुझे आज भी वह दिन याद है जब मैं आधार कार्ड बनवाने के लिए तमाम प्रमाणत्रों से (जैसे कि अपने घर का पता, जन्म तिथि और पिता के नाम) संबंधित अधिकारियों को संतुष्ट करने के बाद अपना आधार कार्ड बनवाने के लिए लंबी पंक्ति में खड़ा हुआ था। मेरा पैन कार्ड और आधार लिंक हैं। मैं नियमित रूप से आयकर भरता हूं। मेरे पास मेरा पासपोर्ट है। फिर भी, मैं गहरी चिंता से मुक्त नहीं हूं। कौन जानता है कि कल को सरकार मुझसे भी कह दे कि ये दस्तावेज़ काफी नहीं हैं?

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कल्पना कीजिये आधार की नियति के बारे में। यह हर जगह जरूरी है - बैंकों में, हवाई अड्डे में, स्कूलों में, अस्पतालों में और यहां तक कि श्मशान घाटों में भी। लेकिन अब हमें बताया गया कि आधार कार्ड नागरिकता का सुबूत नहीं है। और हमें यह भी बताया जाता है कि अगर आपके पास मतदाता फोटो पहचान पत्र तो है, लेकिन किसी अनजान वजह से आपका नाम 2002 की वोटर सूची में नहीं है, तब आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। सच में, मैं परेशान हूं। अगर मेरे जैसा सर्व सुविधा संपन्न व्यक्ति इस चिंता और असुरक्षा की भावना से बच नहीं सका, तो सोचिए कि एक प्रवासी मज़दूर, कोई ट्रांसजेंडर व्यक्ति, झुग्गी में रहने वाला, या एक आम किसान किस विकट स्थिति से गुज़र रहा होगा।

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हालांकि, यह सिर्फ़ मेरी, या आपकी चिंता की बात नहीं है। असल में, यदि हम और गहराई में उतरना गवारा करें तो, हमें आधुनिक राष्ट्र की प्रवृत्ति को समझना होगा, जो आज़ादी और मानवाधिकारों की ललित कथाओं के बावजूद, अपने नागरिकों पर निगरानी रखने का सामान्यीकरण करते हुए, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में निरंतर दस्तावेजों की मांग के ज़रिए पूर्ण नियंत्रण बनाना चाहती है। कोई हैरानी नहीं कि आम नागरिक होने के नाते, हम लगातार डर के कभी न खत्म होने वाले चक्र में फंसे रहते हैं। ‘कागज’ पूरे करने को हमें एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर भागने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। कल तक, यह आधार था; जो लगभग आपके शरीर के एक ज़रूरी अंग जैसा था; और इसके बिना, आप कुछ भी नहीं थे! इसके अलावा, तकनीक के विकास के साथ, आपका ईमेल एड्रेस या आपका मोबाइल फ़ोन नंबर आपकी पहचान बन चुका है। इसे आपके आधार, पैन और बैंक अकाउंट से लिंक होना चाहिए। कल्पना करें आपने अपना स्मार्ट फ़ोन खो दिया है और तब आपको तीव्र चिंता सताने लगती है। यह महज आपका फ़ोन खोना नहीं है; यह आपकी पहचान गुम होने जैसा है; वह अनुभव दुनिया से कट जाने की तरह है। इसके अलावा, ऐसा लगता है कि अब कुछ भी निजीपन या निजता नहीं रही। डेटा साइंस के इस ज़माने में आपका ईमेल एड्रेस या आपका मोबाइल फ़ोन नंबर हर जगह पहुंच चुका है। आपकी हर हरकत पर लगातार नज़र रखी जा रही है और उसे देखा जा रहा है। इसलिए, क्या यह हैरानी की बात नहीं कि आपको और मुझे हर दिन प्रॉपर्टी डीलरों से लेकर फ़ाइनेंशियल एक्सपर्ट्स और यहां तक कि प्रधानमंत्री के दफ़्तर से भी तरह-तरह के मैसेज मिलते रहते हैं? इस निगरानी मशीनरी का हिस्सा बनना कोई अच्छा अहसास नहीं है। यह डर, तनाव और चिंता को बढ़ाता है। यह आपके निजी दायरे में दखलअंदाजी है।

असल में, यह काम आपकी इंसानी रूह को एक बायोमेट्रिक्स में परिवर्तित कर देने, या आपकी पहचान के प्रमाण को, चाहे वह आपका राशन कार्ड हो, आपका पासपोर्ट या फिर आपके घर का पता साबित करने वाला कोई यूटिलिटी बिल हो- हर उस चीज़ को बहुत नुकसान पहुंचाता है जो हमें इंसान बनाती है- खुद को भरोसे योग्य समझे जाने से बनता अहसास। यह एक सिविल सोसाइटी की भावना को ही खत्म कर देता है। कल्पना करें, मैं पश्चिम बंगाल में अपने गृहनगर में एक अल्पसंख्यक पड़ोसी को जानता हूं। मुझे पता है कि उसके माता-पिता/दादा-दादी यहीं पैदा हुए थे। लेकिन फिर, पता नहीं किन्हीं कारणों से, 2002 की वोटर लिस्ट में वह अपना नाम नहीं पाता। सरकार को उस पर शक होने लगता है; और जो लोग साम्प्रदायिक राजनीति के कीटाणु को ज़िंदा रखना चाहते हैं, वे आरोप लगाने लगेंगे कि वह बांग्लादेश से आया एक अवैध प्रवासी है। एक ऐसी सरकार के लिए जो सिविल सोसाइटी के फैसले से ज़्यादा तथाकथित वैध ‘कागजों’ पर विश्वास करती हो, वहां आपके और मेरे विचार शायद ही मायने रखते हैं। टेक्नो-अथॉरिटेरियनिज़्म और क्या होता है- इंसानी अनुभव की हकीकत पर ‘कागजों’ का हावी होना?

कदाचित‍‍्, हमें एक किस्म की आज़ादी-दायक राजनीतिक संस्कृति और शिक्षा की ज़रूरत है ताकि हम निगरानी और दस्तावेजों का सामान्यीकरण करने, या इंसानी पहचान को ‘आधिकारिक रूप से मान्य’ पहचान प्रमाण में तब्दील किए जाने का विरोध कर सकें। हमें सामाजिक जीवन की जीवनदायिनी शक्ति, सिविल सोसायटी की जीवंतता, और संवाद में तार्किकता के जादुई अहसास को वापस लाना और उसका मोल समझना होगा।

यही समय है कि हमें इसका अहसास हो। नहीं तो, हम डर और व्यग्रता में जीने लगेंगे; हम हर किसी पर शक करने लगेंगे; हम खुद पर भी शक करने लगेंगे; और तो और मौत के समय भी, हमारी कोशिश होगी कि तमाम ‘दस्तावेज’ ठीक हों ताकि एक ‘आधिकारिक’ मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किया जा सके!

लेखक समाजशास्त्री हैं।

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