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सर क्रीक मामले कोे नये सिरे से सुलझाने की जरूरत

बीते दिनों भारत-पाकिस्तान के बीच सरक्रीक सीमा विवाद को लेकर तल्ख बयानबाजी सामने आयी। जबकि करीब दो दशक पूर्व भारत-पाकिस्तान वार्ता में यह मसला समाधान के बहुत करीब पहुंच गया था, हालांकि सुलझा नहीं। यह प्रकरण दर्शाता है कि एक-दूसरे...

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बीते दिनों भारत-पाकिस्तान के बीच सरक्रीक सीमा विवाद को लेकर तल्ख बयानबाजी सामने आयी। जबकि करीब दो दशक पूर्व भारत-पाकिस्तान वार्ता में यह मसला समाधान के बहुत करीब पहुंच गया था, हालांकि सुलझा नहीं। यह प्रकरण दर्शाता है कि एक-दूसरे के धुर विरोधी देश भी कुछ जटिल लंबित मुद्दों के परस्पर स्वीकार्य समाधानों पर वार्ता की गुंजाइश रखते हैंं।

कच्छ के रण स्थित सर क्रीक भूभाग को लेकर भारत-पाकिस्तान सीमा विवाद कुछ दिनों पहले पुनः भड़कता नजर आया। पाकिस्तान अपनी तरफ, पश्चिमी तट पर किलेबंदी कर रहा था, जो उसके अधिक आक्रामक रुख का संकेत कहा जाएगा। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बीते दिनों एक चेतावनी जारी करते हुए कहा था कि सर क्रीक क्षेत्र में पाकिस्तान का कोई भी दुस्साहस भारत की कड़ी प्रतिक्रिया को न्योता देगा, जो ‘इतिहास और भूगोल दोनों बदल सकता है’। यह बात बेशक धमकी भरी लगे, लेकिन यह दोनों पक्षों की ओर से तनाव बढ़ाने वाले निरंतर कथनों के अनुरूप थी।

यह विवाद 2005-07 के दौरान भारत-पाकिस्तान समग्र वार्ता में समाधान के बहुत करीब पहुंच गया था, जब दोनों पड़ोसियों के बीच संबंध शायद अपने सबसे आशाजनक और रचनात्मक दौर में थे। उस दौर को यह समझाने के लिए याद किया जा सकता है कि जब हमारे ऊपर काले बादल मंडरा रहे हों, तब भी कूटनीति जारी रखना ज़रूरी है।

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बतौर भारत का विदेश सचिव (2004-06), मेरे कार्यकाल के दौरान, भारत-पाकिस्तान वार्ता दो मुद्दों पर केंद्रित थी, जिन पर दोनों पक्ष सहमत थे कि ‘आरंभिक समझौता’ संभव है। एक था सियाचिन और दूसरा सर क्रीक विवाद। इनमें सर क्रीक विवाद हल करना अपेक्षाकृत आसान माना जा रहा था। सर क्रीक (जिसे पहले बतौर ‘बाण गंगा’ जाना जाता था) को लेकर विवाद मूलत: ब्रिटिश राज के तहत आते कच्छ और सिंध नामक प्रांतों के बीच 1908 में पैदा हुआ। वर्ष 1914 में, बॉम्बे संभाग ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार, जिसके अधिकार क्षेत्र में गुजरात और सिंध भी आते थे, उसने एक प्रस्ताव जारी किया, जिसमें क्रीक की सीमा के संरेखण (रिएलाइनमेंट) के बारे में विरोधाभासी प्रावधान थे। पैराग्राफ 9 में, इसने क्रीक के पूर्वी तट संरेखण सिंध के पक्ष में रखा। अगले ही पैराग्राफ में, इसने क्रीक के मध्य चैनल को इस आधार पर बतौर सीमा स्वीकार कर लिया कि साल के अधिकांश समय क्रीक में नौका परिचालन संभव है। जाहिर है पाकिस्तान पैरा 9 को आधार बनाकर अपना हक जताता है। जबकि भारत थालवेग सिद्धांत अपनाने पर जोर देता है, जिसमें मध्य धारा को सीमा रेखा की निशानदेही माना गया है। भारत का पक्ष इस तथ्य से और मजबूत होता है कि 1925 में मध्य धारा के बीच निशानदेही खंबे लगाए गए थे, जिनमें से कई आज भी मौजूद हैं।

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यह संरेखण इतना महत्वपूर्ण क्यों है? सर क्रीक क्षेत्र का अधिकांश भाग लवण-बहुल दलदली भूमि है, जहां आबादी बहुत कम हैं। भू-सीमा निर्धारण इसलिए अहम है ककि सहमति से बने भू-सीमारेखा बिंदु वह आधार रेखा बनाएंगे, जहां से अरब सागर में समुद्री सीमा खींची जाएगी। क्रीक के मुहाने पर केवल कुछ किलोमीटर का परिवर्तन समुद्री सीमा रेखा को भी स्थानांतरित कर देगा, जिससे संभवतः प्रत्येक देश के अधिकार क्षेत्र में पड़ता आर्थिक रूप से बहुत फायदेमंद इलाका (ईईजेड) और महाद्वीपीय शेल्फ की मल्कियत पर असर पड़ेगा। माना जाता है कि ईईजेड में आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तेल एवं गैस भंडार और मछलियों की प्रचुरता वाले इलाके हैं। इस प्रकार, जिस किसी देश को सबसे अधिक समुद्री इलाका मिलेगा, उसका अधिकार संसाधन संपन्न इस अहम इलाके पर बन जाएगा।

समग्र वार्ता के 2005-07 चरण के दौरान एक समझौता प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी, जिसमें दोनों देशों के नौसैन्य जलविज्ञानी और सर्वेक्षणकर्ताओं के बीच तकनीकी विचार-विमर्श शामिल था। ये जलविज्ञानी वैज्ञानिक मानचित्रण का उपयोग करके, खाड़ी के मुहाने पर अचिन्हित समुद्री क्षेत्र में विवादित भूभाग की निशानदेही सीमित करते-करते अंत में इसे एक त्रिकोणीय क्षेत्र तक ले आए। यह क्षेत्र प्रत्येक देश के प्रस्तावित भूमि संरेखण के अनुसार, समुद्र में एक पारस्परिक रूप से सहमत बिंदु से तटरेखा तक रेखाएं खींचकर बनाया गया था। इस संभावित समझौते में भूमि के बदले समुद्री भाग की अदला-बदली करना शामिल था। यदि भारत पाकिस्तानी संरेखण, जो कि खाड़ी की पूर्वी तट सीमा है, को स्वीकारता है, तो उसे शेष अचिन्हित त्रिकोणीय समुद्री क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा, कथित 60 प्रतिशत, के अलावा मुआवजा दिया जाना था। लेकिन, यदि खाड़ी में भारतीय संरेखण को स्वीकार किया जाता, तब पाकिस्तान को इस इलाके का एक बड़ा हिस्सा (कथित बाकी क्षेत्र का 60 प्रतिशत) के साथ मुआवजा दिया जाना था। इस सिद्धांत को दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया। हालांकि, समझौते की वास्तविक शर्तें तय करना दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व पर छोड़ दिया गया। यह एक नूतन तरीका था, जिसका उद्देश्य लेन-देन आधारित समग्र संतुलन स्थापित करना था, जिसका श्रेय भारत और पाकिस्तान के नौसैन्य जलविज्ञानियों को जाता है। उन्होंने नवंबर, 2006 से मार्च, 2007 तक सर क्रीक क्षेत्र के संयुक्त सर्वेक्षण से शुरुआत की। इसके परिणामस्वरूप एक ‘साझा मानचित्र’ तैयार हुआ, जो समझौते को आगे बढ़ाने में सक्षम सर्वमान्य आधार रेखा बनाने के लिए अहम था। पाकिस्तानी पक्ष सियाचिन और सर क्रीक, दोनों विवादों का एक साथ हल यानी ‘पैकेज समाधान’ चाहता था। सियाचिन पर समझौता विफल होते ही पाकिस्तान की रुचि सर क्रीक समझौते में समाप्त हो गई।

यह प्रकरण दर्शाता है कि एक-दूसरे के धुर विरोधी बने देश, कुछ कठिन लंबित मुद्दों के परस्पर स्वीकार्य समाधानों पर बातचीत की क्षमता रखते हैं-बशर्ते उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। भारत-पाक संबंधों की वर्तमान स्थिति किसी भी राजनयिक स्तर वार्ता के पक्ष में नहीं है, जिससे ये मुद्दे हल करने की शुरुआत हो सके। वार्ता की अनुपस्थिति और द्विपक्षीय संबंधों की बिगड़ती स्थिति ने इन मुद्दों को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल और दुष्कर बना दिया है। वर्ष 1960 की सिंधु जल संधि स्थगित करने का भारत का निर्णय इसका एक उदाहरण है।

हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद, पाकिस्तान लंबे समय तक राजनयिक रूप से अलग-थलग पड़े रहने की स्थिति से बाहर निकल आया है और इससे भारत पर नया दबाव बना है। राष्ट्रपति ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका की ओर से जो भी रणनीतिक कदम उठाए जा सकते हैं, वे समय के साथ भारत के लिए एक बदले हुए रणनीतिक परिदृश्य का परिणाम हो सकते हैं। किसी को इस मौजूदा प्रचलित गणना से संतुष्ट नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान-चीन ‘लौह बंधुत्व’ अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों पर वास्तविक अंकुश लगा देगा और उसको अपनी विदेश नीति में भारत और पाकिस्तान को बराबर के पलड़े में रखने वाली नीति में लौट जाने से रोकेगा। वर्ष 1960 से 20वीं सदी के अंत तक, अमेरिका और चीन, दोनों ने, पाकिस्तान से रणनीतिक साझेदारी बनाए रखी, उस दौर में भी जब अमेरिका-चीन संबंध गहरे टकराव वाले थे और तब भी, जब वे दोनों सोवियत संघ के खिलाफ साझा गठबंधन में थे। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान भी, अमेरिकियों ने पाक को चीन से मिलने वाली सामग्री और सैन्य मदद पर कभी आपत्ति नहीं की व इसी तरह चीन ने पाकिस्तान को मिले अमेरिकी समर्थन की कभी आलोचना नहीं की।

किसी स्थानीय विवाद क्षेत्र में उभयनिष्ठ हित, विस्तृत रणनीतिक टकराव के भीतर रहकर भी, सह-अस्तित्व में कायम रह सकते हैं। ऐसा अभी तक हुआ नहीं, लेकिन इस संभावना के प्रति सतर्क रहना चाहिए। इस संदर्भ में, पाकिस्तान के साथ सावधानीपूर्वक पुनः संपर्क भारत को काफी जरूरी, मामूली मात्रा में सही, पैंतरेबाज़ी की गुंजाइश प्रदान कर सकता है।

लेखक विदेश सचिव रहे हैं।

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