अभिषेक ओझा
बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था– ‘अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।’ पीठिका शब्द किस संदर्भ में आया था वो भी याद नहीं। ऐसी कई बातें होती हैं, जिनकी वास्तविक समझ बिना अनुभव नहीं हो पाती। ऐसी ही एक बात है परीक्षा में किसी को नकल करते हुए देखना। जब तक आप विद्यार्थी होते हैं ऐसा लगता है कि कोई थोड़ी-सी नकल कर ही ले तो कौन-सी दुनिया इधर की उधर हो जाएगी। पता नहीं क्यों इस बात पर प्रोफेसर हलकान होते हैं? यदि समस्या को गणितीय रूप दे कर कह दिया जाए-‘सरल करें’ तो गणित का आदमी कर ही देगा। जिन्होंने बचपन में गणित हिंदी माध्यम से पढ़ा हो वो ‘सरल करें’ का अर्थ समझ गए होंगे।
हमारे एक गणित के शिक्षक कहा करते–सरल करने को कहा गया था तुम लोग सड़-ल कर दिए हो। हम पढ़ाते भी मशीनी लर्निंग हैं तो हमने सोचा मशीन लर्निंग से ही पता लगाया जाये कि किसके असाइनमेंट में कितना प्रतिशत किसके असाइनमेंट से चोरी है। वैसे हर अच्छी बात की तरह डेटा एनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी करने लगे हैं। तीन लोगों से पूछ कर लोग डेटा एनलिसिस कर उसमें पैटर्न भी निकाल देते हैं! जैसे ‘गीता में लिखा है’ कह कर लोग कुछ भी अंट-शंट कह देते हैं वैसे ही आजकल डेटा एनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी कर देते हैं।
एक समझदारी वाला काम इस्राइल ने किया है कि विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर में किसी का विषय कुछ भी हो, अब एक विषय सांख्यिकी का जरूर पढ़ाते हैं। हमारे यहां फैक्टफुलनेस और एनलाइटनमेन्ट नाउ जैसी पुस्तकें लिखी-पढ़ी नहीं जातीं। उन पुस्तकों को पढ़िए यदि आपको दुनिया के परिवर्तन का यथार्थ समझना है तो। पिछले दिनों मैं गांव गया था और एक दिन सुबह दूध लाने गया तो देखा कि एक बच्चा फोन पर वही कार्टून/राइम देख रहा है जो दुनिया के सबसे बड़ी कम्पनियों के सीईओ के बच्चे भी देखते हैं– वही यूट्यूब। असमानता, समाजवाद, और दुःख पर भारी-भरकम लिखने (रोने) वाले दुःख का धंधा करते रह जाएंगे और दुनिया उनकी परवाह किए बिना बदलती रहेगी। जो रोना रोते हैं कि दुनिया बड़ी खराब होती जा रही है उन्हें पन्ने काले करने दीजिए – उनका धंधा है। आप अपना काम मन से कीजिए। सरल कर के दुनिया को देखिए। खुश रहिए।
साभार : उवाच ओझा डॉट इन