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सादगीपूर्ण जीवनशैली से प्रदूषण मुक्ति की राह

दिल्ली में वायु प्रदूषण का गंभीर संकट नागरिकों के स्वास्थ्य व पारिस्थितिकी के लिए घातक बन चुका है। इसके लिए सुझाए जा रहे तकनीकी कृत्रिम समाधान पर्याप्त नहीं, ठोस उपाय कारगर होंगे। सबक यह है कि आधुनिकता की अंधी दौड़...

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दिल्ली में वायु प्रदूषण का गंभीर संकट नागरिकों के स्वास्थ्य व पारिस्थितिकी के लिए घातक बन चुका है। इसके लिए सुझाए जा रहे तकनीकी कृत्रिम समाधान पर्याप्त नहीं, ठोस उपाय कारगर होंगे। सबक यह है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ और अति उपभोक्तावाद को छोड़कर हमें संयमपूर्ण जीवनशैली और जिम्मेदारी की सोच अपनानी होगी।

राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण की तीव्रता के बारे में पहले ही काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। बारम्बार, हमें उस ज़हरीली हवा के हानिकारक परिणामों की याद दिलाई जाती रही है जिसमें हम सांस लेते हैं। जैसा कि एम्स के पूर्व निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया कहते हैं, वायु प्रदूषण कोविड-19 से ज़्यादा लोगों की जान ले रहा है। दरअसल, उनके शब्दों में, वायु प्रदूषण के दीर्घकालिक प्रभाव खांसी और सांस फूलने से कहीं आगे तक जाते हैं; यह दिल के दौरे, ब्रेन स्ट्रोक और यहां तक कि कैंसर जोखिम का एक बड़ा कारक है। फिर भी, ऐसा लगता है कि हम बुनियादी सवाल उठाने और इस संकट की जड़ तक पहुंचने के लिए तैयार नहीं। इसके बजाय, हम सरकार द्वारा सुझाए गए अस्थायी समाधानों से ही संतुष्ट रहना पसंद कर रहे हैं। एयर प्यूरीफायर खरीदें; बाहर जाते समय एन95 मास्क का इस्तेमाल करें; और तकनीकी चमत्कार- क्लाउड सीडिंग एवं कृत्रिम वर्षा - का इंतज़ार करें! दरअसल, किसी सार्वजनिक समस्या के ऐसे निजीकृत समाधानों से परे देखने, खुद से सवाल करने और उस वैश्विक नजरिये अथवा जीवन शैली के तरीकों पर सवाल उठाने के लिए साहस और राजनीतिक/नैतिक दृढ़ विश्वास की आवश्यकता होती है, जिसे हमने सामान्य बना लिया है।

आइए, हम ईमानदारी से स्वीकार करें कि दिल्ली का वायु प्रदूषण, व्यापक जलवायु संकट और पारिस्थितिकी तंत्र पर बढ़ते हमलों से जुदा नहीं है। आधुनिकता के मूल मिज़ाज और प्रकृति पर मशीनी प्रभुत्व स्थापित करने की तर्कसंगतता मनाने पर विचार करें। 16वीं शताब्दी के दार्शनिक फ्रांसिस बेकन को याद करें—जिस तरह उन्होंने प्रकृति को मात्र संसाधन के रूप में देखा, और उस पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए प्रकृति पर जीत प्राप्त करने, उसे काबू करने और अपने हिसाब से घुमाने के लिए नव विज्ञान की वकालत की है। यह कहकर कि ‘ज्ञान ही शक्ति है’ -बेकन का यह सिद्धांत उस सोच को नई गति देता है जिसको लेकर आधुनिकता बहुत उत्साहित रहती है : अंतहीन तकनीकी-भौतिक प्रगति हेतु प्रकृति पर विजय पानेे का कार्य। और फिर, आधुनिकता की सबसे प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के रूप में तकनीकी-पूंजीवाद के निरंतर विकास के साथ, हम आर्थिक विकास और उपभोक्तावाद के सिद्धांत के प्रति तेजी से आदी होने लगे। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे आस-पास की हर चीज़, चाहे वह पेड़ हो, नदी हो, जंगल हो या पहाड़, अपना रहस्य और अर्थ खो बैठी है। इस मोहभंग भरी दुनिया में, प्रकृति हमारी बढ़ती ज़रूरतों और लालच को पूरा करने के लिए अपने ‘उपयोग मूल्य’ के साथ एक संसाधन मात्र बन गई है - ज़्यादा बिजली, ज़्यादा कारें, ज़्यादा फ़र्नीचर, ज़्यादा यात्राएं, ज़्यादा कपड़े, ज़्यादा उपभोग... हम सड़कें बनाने के लिए हज़ारों पेड़ों को नष्ट करने से नहीं हिचकिचाते; बांध बनाने और बिजली पैदा करने के लिए नदी के प्राकृतिक प्रवाह और लय को नष्ट कर रहे हैं; हम उपभोक्तावादी पर्यटकों की ज़रूरतों की पूर्ति हेतु होटल और रिसॉर्ट बनाने के लिए नाज़ुक पहाड़ों को नष्ट करते हैं। इसके अलावा, चूंकि आधुनिकता के विमर्श में गति और गतिशीलता का पंथ अंतर्निहित है, इसलिए हमें ज़्यादा कारों, ज़्यादा ट्रेनों, ज़्यादा हवाई जहाजों की ज़रूरत है; और इसके वास्ते उपयोग होने वाले जीवाश्म ईंधन का निरंतर दोहन ज़्यादा से ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देता है। हम आधुनिकता व तकनीकी-पूंजीवाद के दुष्चक्र में फंसे हैं। जैसा कि समाजशास्त्री उलरिच बेक ने कहा है, ‘अब हम एक ‘जोखिम युक्त समाज’ में जी रहे हैं।’

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दिल्ली का वायु प्रदूषण आधुनिकता की त्रासदी का एक उदाहरण है। शहर में घूमते वक्त वाहनों की भरमार देखिए। जैसा कि दिल्ली के 2023 के आंकड़े बताते हैं, राजधानी में पंजीकृत वाहनों की कुल संख्या 1.2 करोड़ थी, जिनमें से 33.8 लाख निजी कारें थीं। शहर में जारी अंतहीन निर्माण कार्य को देखिए- कहीं कोई नया राजमार्ग, कोई नया फ्लाईओवर, कोई नया मेट्रो स्टेशन, या गगनचुंबी मंजिलों वाली कोई नई विशाल हाउसिंग सोसायटी बनती नज़र आती है। इसे स्वीकार करें, दिल्ली का वायु प्रदूषण मुख्य रूप से पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने के कारण नहीं है। इसकी बजाय, यह बड़े पैमाने के विकास, गति और उपभोग में अंतर्निहित जन्मजात अवगुण के कारण है। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन दिल्ली के वायु प्रदूषण में एक बड़ा योगदानकर्ता है, अध्ययनों से पता चलता है कि वार्षिक पीएम-2.5 प्रदूषण मानक के घनत्व में यह 10-30 प्रतिशत तक जिम्मेदार हैं, जो इसे खराब वायु गुणवत्ता में एक प्रमुख वजह बनाता है। इसी तरह, औद्योगिक गतिविधियों और बिजली संयंत्रों से उत्सर्जन, अपशिष्ट जलाने, भवन निर्माण कार्य और सड़क से उठती धूल शहर में गंभीर वायु प्रदूषण पैदा करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इतना ही नहीं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली-एनसीआर में ऑफिस जाने वालों के लिए, जैसा कि एक अध्ययन बताता है, औसत एकतरफा यात्रा दूरी 22 किमी. है। वास्तव में, ये लंबी औसत यात्रा दूरी और अधिक यात्रा समय पीएम 2.5 और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे प्रदूषकों के प्रमुख स्रोत हैं।

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लेकिन, ये सवाल उठाना मुश्किल है। क्योंकि इसके लिए हमें खुद के अंदर झांकना होगा और अपनी अतिशयी-आधुनिकता भरी जीवन शैली पर सवाल उठाने पड़ेंगे। लेकिन यह करने की बजाय, हमारे लिए यह मानना आसान है कि अगर हम अपने बेडरूम में एयर प्यूरीफायर इस्तेमाल करेंगे, तो हम सुरक्षित हो जाएंगे; यह मानना आसान है कि अगर टेक्नो-साइंस नकली बारिश कर सकती है, तो चिंता करने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं। यह मानना आसान है कि अगर हम पेट्रोल-डीज़ल की बजाय इलेक्ट्रिक कारें अपना लें, तो समस्या हल हो जाएगी। गरीबों के मत्थे उनकी ‘गैर-साफ सफाई’ जीवन शैली का दोष मढ़ना आसान है। हालांकि, यह मानना मुश्किल है कि अमीर और पैसे वाले लोग, अपनी लग्ज़री एसयूवी और स्पीड कारों, बार-बार हवाई यात्राओं और अति उपभोक्तावाद की वजह से कार्बन एमिशन में बहुत ज़्यादा योगदान देते हैं। और यह भूलना आसान है कि इस प्रदूषण के बुरे स्वास्थ्य प्रभाव अक्सर उन गरीबों पर ज़्यादा पड़ते हैं जो प्रदूषित इलाकों में रहते हैं।

सच तो यह है कि जब तक हम टेक्नो-कैपिटलिज़्म के दायरे से आगे देखने की हिम्मत नहीं करेंगे, इस ‘जोखिम कारक समाज’ से कोई छुटकारा या आज़ादी नहीं है और वह नहीं अपनाते जिसे ‘अव्यावहारिक’ और ‘यूटोपियन’ (सब चलता है वाली प्रवृत्ति) माना जाता है। इसके लिए जीवन शैली और शहरी प्लानिंग के एक नए तरीके की ज़रूरत है। इसके लिए एक बदलाव की ज़रूरत है - तेज़ रफ़्तार से धीमी गति की ओर, बड़े-बड़े एक्सप्रेस-वे से ऐसी सड़कों की तरफ जो पैदल चलने और साइकिल चलाने को प्रोत्साहन दें, प्राइवेट गाड़ियों से सार्वजनिक परिवहन की ओर, और दिखावटी उपभोक्तावाद से सादे-टिकाऊ जीवन की ओर; और झूठी ज़रूरतों की चाहत से उन चीज़ों की मांग की तरफ जो हमें और हमारे बच्चों को स्वस्थ रखे - बिना प्रदूषण वाला पीने का पानी, साफ़ हवा, पेड़, पानी के स्रोत, नीला आसमान और भरपूर हरी-भरी जगह।

अपनी प्राथमिकताएं चुनना हम पर निर्भर है, सरकार पर दबाव डालें, और तय करना कि हम किस तरह का ‘विकास’ चाहते हैं।

लेखक समाजशास्त्री हैं।

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