कमजोर अर्थव्यवस्था, बढ़ती वैश्विक महामारी और सीमा पर चढ़ आया दुश्मन– इनमें हरेक अपने आप में आपदा है और मिलकर तो बड़ी तबाही है ही। इस चक्रव्यूह से निपटने के लिए हमारे प्रतिनिधियों में आला दर्जे का नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति की काबिलियत होनी जरूरी है। तथापि दिल्ली में बैठकर निजाम चलाने वालों की प्रतिक्रिया उन लखनवी नवाबों सरीखी है जो वतन पर आई मुसीबत को नजरअंदाज़ कर आराम से बैठकर शतरंज की बाजियां लगाने में मशगूल थे या फिर सुल्तान मुहम्मदशाह रंगीला की तरह बेपरवाह जो अंत तक ‘दिल्ली दूर-अस्त’ कहता रहा और दुश्मन ने आन घेरा था। मौजूदा हुक्मरान राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी लेकर राज्य सरकारों को गिराने में गाफिल हैं और अपनी नाकामयाबियों से जनता का ध्यान बंटाने वाली कार्यवाही को बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे में देश और हाल ही में बेरोजगार हुए लाखों-लाख लोगों का क्या? यह संख्या करोड़ों में हैं और अलफ सच्चाई मुंह बाए खड़ी है– छोटे स्तर के किराना और अन्य दुकानदारों से लेकर कुटीर उद्योग चलाने वालों तक और यहां तक कि कुछ बड़े व्यवसायी घराने और बैंकों को भी अपनी नींव हिलती महसूस हो रही है और बड़े पैमाने पर कामगारों की छंटनी कर रहे हैं।
डर– जिसे शायद आप भी महसूस कर रहे होंगे– समूचा देश उससे भयग्रस्त है। इसे शहरों के लेबर चौकों पर बैठकर दिहाड़ी लगने का इंतजार करने वाले मजदूर की आंख में साफ पढ़ा जा सकता है क्योंकि काम है ही नहीं, दफ्तर कर्मियों को भी डर सता रहा है कि जाने कब छंटनी की पर्ची थमा दी जाएगी। इस डर को कोरोना योद्धाओं की अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य कर्मियों की आंखों में देखा जा सकता है, उनमें भी जो संक्रमित हैं या हो चुके हैं, क्योंकि बखूबी पता है कि अगर कुछ हो गया तो राहत-मुआवजा बहुत कम मिलेगा। इसी तरह का डर फौजियों के उन परिजनों की आंख में भी है, जिनके युवा बेटे हिमालय की ऊंची चोटियों पर आक्रामक दुश्मन से टक्कर लेने के लिए तैनात किए गए हैं, जहां वैसे भी रोजमर्रा की जिंदगी अपने आप में एक लड़ाई होती है।
हमारे देश में सबसे बड़ी संख्या 20-30 साल के बीच उम्र वालों की है, वह हमारा एक बड़ा सरमाया हो सकते हैं, लेकिन अब वही सबसे बड़ी समस्या बन गए हैं, क्योंकि बेरोजगार हैं। यह एक ऐसा वर्ग है जो बहुत वाचाल होता है, जिसको भड़काकर जनसंघर्ष, दंगे, अपराध करवाने से लेकर राजनीतिक आंदोलन तक खड़े किए सकते हैं।
‘युवा’ ऐसा चट्टानी धरातल होता है जिस पर देश-निर्माण की बुलंद इमारत खड़ी की सकती है या फिर उजाड़ का कारक भी। किसी देश की प्रगति के लिए मजबूत नींव के तौर पर उच्च शिक्षित, स्वस्थ, रोजगारमय और अनुशासित युवा होने बहुत जरूरी हैं। इसके लिए सोच-समझकर बनाई गई शिक्षा व्यवस्था और सबके लिए स्वास्थ्य सुविधा अति आवश्यक अवयव है, खासकर गरीबों के लिए। शिक्षाविद और उद्योगपतियों को साथ बैठकर उद्योगों की दीर्घकालीन जरूरतों के मुताबिक रोजगारोन्मुख कोर्स बनाने चाहिए। सामाजिक ज्ञान संकाय से पढ़े हुए लाखों युवा बेरोजगार बैठे हैं और इनकी शिक्षा पर खर्च किया धन व्यर्थ गया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सरकारों ने ध्यान नहीं दिया, नतीजतन हमारा विशाल युवा वर्ग सरमाया बनने की बजाय बोझ बनता जा रहा है।
पिछले सालों के दौरान अर्थव्यवस्था में गिरावट के साथ स्थिति बदतर होती गई है। एक कारगर नीति बनाने की बजाय फौरी तौर पर जो कुछ सूझा या रातों-रात सोचे गए हल थोप दिए गए। संस्थानों की सार्वभौमिकता की दुर्गति किए जाने वाले मौजूदा काल में हमें पता तक नहीं है कि आखिर नीतियां बनाने वाला है कौन? अर्थव्यवस्था में मंदी को लेकर रिजर्व बैंक समेत अन्य विश्वसनीय संस्थान यथेष्ट चेतावनी देते आएं हैं, लेकिन सत्ता के गलियारों में इसको लेकर मौन व्याप्त है और विपक्ष में भी।
देश में एक चुप्पी पसरी हुई है, तिस पर बोलने पर अनजाना-सा डर व्याप्त है। हमारी युवा शक्ति के लिए यह हालात क्या बताते हैं? आज जब मैं किसी युवा को देखता हूं तो एक उम्मीद विहीन चेहरा दिखाई देता है। युवाओं के मुख पर ऐसी मायूसी मुझे पंजाब, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में चले आतंकवाद के दौर में देखने को मिली थी। तब हालातों से हताश होकर या कई दफा दुश्मन देशों के उकसावे में आकर अनेक युवाओं ने देश के खिलाफ हथियार उठा लिए थे, अनेकानेक पैसा उगाहने वाले बन गए तो कुछ मानसिक द्वंद्व से वक्ती राहत पाने के लिए नशों का सहारा लेने लगे। जैसा कि होता आया है अंततः जीत राजकीय शक्ति की हुई थी या क्या यह सचमुच की विजय थी? हजारों युवा इस दौरान परिस्थिति के पाटों में पिस गए और युवा सरमाया गायब होता दिखाई दिया। आगे चलकर विरोध तो शांत हो गया किंतु युवा आज भी बेरोजगार है और उनकी क्षमताओं का प्रयोग नहीं हुआ।
आज का युवा फिर से तल्ख है और उनमें कुछ नशों का सहारा ले रहे हैं तो कई कट्टरवाद की ओर उन्मुख होकर हथियार उठाने लगे हैं। एक वर्ग वह है जो बेहतर जिंदगी के लिए विदेशों का रुख कर रहा है। पिछले सालों में झुंडों के झुंड अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी देश की ओर निकल लिए। वहां पहुंचने वालों में अधिकांश छोटे-मोटे काम करके उनकी अर्थव्यवस्था में निचले स्तर की जरूरतों को पूरा करते हैं, केवल थोड़ी उच्च शिक्षा प्राप्त करके बढ़िया जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं। हालांकि, अब वहां भी रोजगार घटने से न सिर्फ आमद पर रोक लगा दी गई है बल्कि वहां बस चुके लोगों को छांटकर वापस भेजा जाने लगा है। विदेशों में कामगारों की मांग काफी कम होने से देश के उत्तरी एवं दक्षिणी राज्यों के शहरी और ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारों की बड़ी खेप मौजूद है। आज हमारे सामने कॉलेज-यूनिवर्सिटियों से पढ़कर निकला नया युवा वर्ग है जो मंद पड़ी अर्थव्यवस्था के चलते बेरोजगार होने को मजबूर है। मीडिया बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दे नहीं उठा रहा। सोशल मीडिया शरारतपूर्ण संदेश फैलाने का मंच बनकर रह गया है।
और कुछ नहीं तो अगले दशक तक ही सही, किंतु बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन की योजना बनती दिखाई नहीं दे रही। सार्वजनिक और निजी क्षेत्र, दोनों ने अनिश्चितकाल तक अपने तंबू समेट लिए हैं। रही सही जो उम्मीद बाकी थी उस पर कोरोना महामारी ने झाड़ू फेर दिया है। कोरोना के पंजे ने केवल झटके में ही हमारे शहरों और गांवों को कामगारों से खाली कर दिया, उद्योग-धंधे बंद हो गए यानी पूरा देश, अर्थव्यवस्था, सरकार ठप होकर रह गई। चहुंओर पसरा सन्नाटा हमारे खामोश डर का द्योतक है और प्रार्थानाओं का भी। विपक्षी दल महज मूकदर्शक बने हुए हैं बल्कि उनको मेरा सुझाव है कि महामारी खत्म होने के बाद भी मुंह पर बंधी पट्टी बरकरार रखें।
मुझे केवल इतनी उम्मीद बाकी है सरकार और विपक्ष मिलकर बैठे और कम से कम मौजूदा समस्या से निपटने हेतु गंभीरता से विमर्श करें और संभव हो तो हल निकालें। अगर, हताशा बढ़ती गई और अराजकता बनने के कारक जारी रहे, तो कोई नहीं जानता यह असहज खामोशी कब टूट जाए और अंततः सड़कों पर नारे गूंजने लगें। ईश्वर करे हम अपने युवा सरमाए को पथभ्रष्ट होने से रोक पाएं। चुप्पी का खोल टूटना चाहिए और लोगों को अपनी बात कहने दें, सरकार और विपक्ष अपनी बताएं, संपादक और एंकर इस बारे में बात करें, युवाओं को अपनी बात कहने दें। आइए सब मिलकर खामोशी की जहरीली जकड़न और डर को तोड़ डालें, एक-दूसरे से खुलकर संवाद करें। हमारी सभी समस्याओं के हल के लिए आपसी बातचीत पहला कदम होगा। लोगों को चुप कराने की बजाय सरकार उन्हें अपनी बात कहने को प्रोत्साहित करे। आखिर में कहूंगा, हम अपने युवा को एक बेहतर जिंदगी का मौका दे पाएं।
लेखक यूपीएससी के अध्यक्ष,
मणिपुर के राज्यपाल और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।