पंजाब में चिंता बढ़ाते भूजल संकट के संकेत
पंजाब में कृषि बजट बढ़ाने के बावजूद इस क्षेत्र की पीड़ाएं कम नहीं हुईं। वजह, भूजल संकट लगातार बदतर होना है। हर साल जमीन से 28 मिलियन एकड़ फुट पानी निकलता है, जबकि भरपाई सिर्फ 17 मिलियन एकड़ फुट की हो पाती है। भूजल स्तर सालाना करीब आधा मीटर की खतरनाक दर से गिर रहा है। इसकी वजह ऊर्जा-पानी-खाद्य’ दुष्चक्र है। समाधान देर से धान रोपाई, विविधीकरण व व्यापक भूजल पुनर्भरण नीति है।
पंजाब के सामने बहुत भारी भूजल संकट मुंह बाये खड़ा है, जिससे इसकी सभ्यता की सततता को ही खतरा बन चला है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में उपयोग करने योग्य भूजल की आखिरी बूंद भी अगले 14 वर्षों में समाप्त हो जाएगी। वर्तमान राजनीतिक कार्यपालिका, योजनाकारों और नागरिक समाज का कर्तव्य है कि वे सुनिश्चित करें कि भूजल न केवल दुनिया के इस क्षेत्र की वर्तमान पीढ़ी के लिए बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी कायम रहे।
वैज्ञानिक डाटा से पता चलता है कि पंजाब हर साल धरती के गर्भ से 28 मिलियन एकड़ फुट पानी निकाल रहा है, जबकि वर्षा और इसकी तीन बारहमासी नदियों के माध्यम से भरपाई केवल 17 मिलियन एकड़ फुट की हो पाती है। इस असंतुलन के कारण भूजल स्तर प्रति वर्ष लगभग आधा मीटर की खतरनाक दर से और नीचे गिरता जा रहा है, जिसके चलते पंजाब रेगिस्तान बनने के करीब है।
इस अत्यधिक दोहन के सबसे मुख्य कारणों में से एक है पंजाब में ‘ऊर्जा-पानी-खाद्य’ रूपी दुष्चक्र। चूंकि सरकार किसानों को अनाज उगाने के वास्ते पानी निकालने के लिए मुफ्त में पॉवर उपलब्ध कराती है, खासकर धान के लिए, इसलिए इससे पहले कि पंजाब बंजर और नकारा भूमि में तब्दील हो जाए,इस संकट को दूर करने को व्यावहारिक उपाय करना एक अतिरिक्त जिम्मेदारी बन जाती है। इसके अलावा, यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि न केवल भूजल बहुत तेजी से गिर रहा है, बल्कि धरती की गहरी परतों से निकाले जा रहे पानी में भारी धातुएं और नाइट्रेट की मात्रा भी खतरनाक स्तर की होती है, जो इसे मनुष्यों और जानवरों के इस्तेमाल के अनुपयुक्त बनाते हैं। इसलिए, सही समय है कि सरकार स्थिति सुधारने के लिए तत्काल और जरूरी उपाय करे।
वैज्ञानिक मानसून के आगमन के साथ धान की रोपाई करने की सलाह देते हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखते हुए, सरकार को 20 जून से चरणबद्ध रोपाई कार्यक्रम लागू करवाना चाहिए। इसकी कई वजहें हैं जैसे किसान अब मुख्यतः कम अवधि वाली धान की किस्मों की खेती कर रहे हैं, जो 90-100 दिन में पककर तैयार होती हैं, जबकि 2009 से पहले लंबी अवधि वाली किस्मों की खेती की जाती थी, जो 130-140 दिन में तैयार होती थी। वहीं पंजाब देश का पहला राज्य था, जिसने 2008 में भूजल बचाने और संरक्षित करने के उद्देश्य से धान बुआई की तिथि विनियमित करने के लिए प्रगतिशील कानून बनाया था जिसके तहत धान रोपाई की तिथि 10 जून तय की गई थी, जिसे 2014 में आगे बढ़ाकर 15 जून कर दिया गया और तबसे तिथियों में मामूली हेरफेर के साथ यह तारीख जारी है।
पिछले 17 वर्षों में किसान अपनी खरीफ फसलों के उत्पादन का ‘पंजाब भू-मृदा जल संरक्षण अधिनियम 2009’ नामक इस कानून के मुताबिक समायोजन करके करते आए हैं। पंजाब कृषि विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, 2009 से पहले भूजल स्तर में वार्षिक गिरावट 75 सेमी. थी, जो अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन के कारण बाद वाली अवधि में घटकर 40 सेमी. रह गई।
रिपोर्टों के अनुसार, पंजाब के तीनों जलाशयों - भाखड़ा बांध, रणजीत सागर बांध और पोंग बांध - में जल स्तर पिछले वर्षों की तुलना में सामान्य से 52 फीसदी कम रहा। पंजाब को धान की खेती के लिए प्रमुख तौर पर इन जलाशयों से लगभग 14.50 एमएएफ पानी मिलता है। इस बार गर्मी के मौसम में सिंचाई के लिए नहरी पानी कम उपलब्ध होने के अनुमान थे, ऐसे में धान की फसल के लिए भूजल पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है। एक किलो धान पैदा करने के लिए लगभग 4000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, इसलिए किसान नहरी पानी की आपूर्ति में कमी को भूजल निकालकर पूरा करता है। सामान्य से अधिक तापमान और लू लंबी चलने का पूर्वानुमान हो, तो जून या उससे पहले रोपे गए धान को गर्मी के प्रभाव से बचाने के लिए बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अतएव धान की रोपाई को जून के आखिरी सप्ताह (मानसून के आगमन के करीब तक) टालना बेहतर है।
जून के अंत में रोपा गया धान अक्तूबर की शुरुआत में पक जाता है, इस समय कटाई के लिए परिस्थितियां अनुकूल होती हैं। जबकि अगेती रोपाई करने से सितंबर के महीने में, मानसून के अंतिम चरण में, कटाई करनी पड़ती है, जिससे धान के दाने बारिश, तेज़ हवाओं और उच्च आर्द्रता के संपर्क में आते हैं। परिणामस्वरूप किसानों को नमी युक्त धान बेचने संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वैसे भी केंद्र सरकार ने धान खरीद का संचालन एक अक्तूूबर से ही अनिवार्य कर दिया है।
दरअसल, पूसा 44 किस्म और इसकी विभिन्न वैरायटी (पीली पूसा और डोगर पूसा) न केवल अपनी लंबी अवधि के कारण पानी की अधिक खपत करती हैं, बल्कि भारी मात्रा में पराली पैैदा करने के कारण प्रदूषण भी बढ़ाने वाली हैं। पंजाब सरकार को किसानों को पहले से सलाह देकर और राज्य खरीद एजेंसियों को उपरोक्त किस्म के अनाज की खरीद न करने का निर्देश देकर इसकी खेती पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
पंजाब हर साल अपनी रिचार्ज जल राशि से लगभग 11 एमएएफ अधिक भूजल निकाल रहा है, जिसकी गैरटिकाऊ निकासी दर 165 फीसदी है, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सुरक्षित सीमा 75 प्रतिशत है। इसलिए, राज्य को मानक निकासी दर से अधिक निकाले जल की पुनःपूर्ति बढ़ाने के लिए व्यापक भूजल पुनर्भरण नीति तैयार और लागू करनी चाहिए। सक्रिय सार्वजनिक भागीदारी के साथ कृत्रिम व प्राकृतिक पुनर्भरण तकनीकों के संयोजन को लागू करना चाहिए।
फसल विविधीकरण को बढ़ावा दिया जाए। पंजाब में खरीफ सीजन में कभी कपास और मक्का प्रमुख फसलें होती थीं। हालांकि, इन फसलों के प्रतिकूल उत्पादन और खऱीद व्यवस्था ने किसानों को धान की ओर रुख करने के लिए मजबूर किया, जिसके उत्पादन में जोखिम न केवल कम है, बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी में उठाए जाने की भी गारंटी है। नतीजतन, धान के तहत रकबा 1990 में 50 लाख एकड़ से बढ़कर पिछले साल 80 लाख एकड़ हो गया, जिससे भूजल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ा। बीस लाख एकड़ पर वैकल्पिक खरीफ फसलों को प्रोत्साहित करने से भूजल संतुलन काफी हद तक बहाल किया जा सकता है। शुरुआत में सरकार को उन 11 ब्लॉकों में वैकल्पिक फसलों को अनिवार्य करना चाहिए जहां भूजल निकासी मात्रा रिचार्ज दर की बनिस्बत 300 फीसदी के भयावह स्तर से अधिक है।
पंजाब में खेती एक चौराहे पर है। कृषि के लिए आवंटित 14524 करोड़ रुपये के वार्षिक बजट के बावजूद, इस क्षेत्र की पीड़ाएं कम नहीं हुईं, और भूजल संकट लगातार बदतर हो रहा है। तत्काल नीतिगत बदलाव और ठोस कार्रवाई के बिना पंजाब की कृषि अर्थव्यवस्था और पर्यावरणीय स्थिरता गंभीरतम खतरे में है। कार्रवाई करने का समय तुरंत और इसी पल से है।
लेखक पंजाब कृषि विभाग के पूर्व सचिव हैं।