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दो वर्ष छोटी शोले

ब्लॉग चर्चा

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इस समय उम्र में हमसे दो वर्ष छोटी फिल्म ‘शोले’ की चर्चा चारों तरफ बनी हुई है। इसका कारण सभी को ज्ञात है। ‘शोले’ हमारी भी पसंदीदा फिल्मों में से एक है। बहुत साल पहले मित्र पुनीत ने एक दिन फोन करके कहा कि ‘कुमारेन्द्र फिल्मों पर लिखना शुरू करो।’ उन्होंने आगे कहा कि ‘साहित्य और फिल्मों का साथ हमेशा से रहा है, इस पर काम करना, लिखना शुरू करो।’ हमने अपने परिचित अंदाज में हंसते हुए कहा कि ‘यार तुम लिख तो रहे हो, हमें काहे परेशान करते हो। हम लिखने लगे तो तुम्हारा नाम कट जायेगा।’ पुनीत भी अपनी शैली में हंसे और बोले कि ‘आप जैसे मित्र के लिए नाम कटता हो तो कट जाए।’

बहरहाल, पुनीत पूरी तन्मयता से इस क्षेत्र में लगे रहे। उनका नाम है, हम तो बीच में जुगाली जैसा कुछ-कुछ करने लगते हैं और यदा-कदा मिलती वाह-वाह से ही प्रसन्न हो लेते हैं। आश्चर्य करने वाली बात आप सबको बता दें कि महाविद्यालय में एमए के विद्यार्थियों को एक प्रश्न-पत्र के रूप में सिनेमा पर ज्ञान हम ही देते हैं।

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खैर, दो-चार पंक्तियां शोले पर... वो ये कि अभी तक की तमाम सारी देखी-अनदेखी फिल्मों के बीच यही एकमात्र फिल्म ऐसी लगी, जिसमें सभी पात्र अमरत्व पा गए। इन पात्रों ने भले एक-दो संवाद बोले, भले दो-चार मिनट को परदे पर आये मगर अमर हो गए। ‘सूरमा भोपाली हम ऐसे ही नहीं हैं।’ ‘हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं।’ ‘हमने आपका नमक खाया है सरदार।’ ‘होली कब है?’ ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती?’ ऐसे बहुत से संवादों के बीच सांभा, मौसी, कालिया, अहमद, रहीम चाचा सहित बहुत सारे किरदार आज भी हम सबके दिलों में बसे हुए हैं। शुरुआती असफलता के बाद भी हताशा में न घिरकर फिल्म चलती रही और फिर रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बनाती रही।

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इस सफलता के बीच ‘शोले’ के हिस्से में एक अजब तरह की असफलता भी आई। वह, यह कि फिल्म फेयर की लगभग सभी केटेगरी में नॉमिनेट होने पर भी जबरदस्त सफलता के बाद भी मात्र एक पुरस्कार (एडिटिंग का) ही प्राप्त कर सकी। इस फिल्म की सफलता से एक बात सीखने लायक है कि असफलता से निराश नहीं होना है, लगातार आगे बढ़ते रहना है। दूसरे यह कि जबरदस्त सफलता भी सम्मान-पुरस्कार दिलवाने का पैमाना नहीं है।

साभार : कुमारेंद्र डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

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