अनिल गुप्ता
भारतीय दर्शन जीवन के क्षणभंगुर होने की बात सदियों से करता आया है। आखिर जीवन क्या है? सिर्फ जन्म और मृत्यु के बीच का एक फासला ही तो है। दुनिया में अमरत्व किसी को नहीं मिला है। देवाताओं को भी धरा से अपने लक्षित काम पूरे करके इंद्रलोक को लौटना पड़ा है। तो ऐसे में इंसान की क्या बिसात! जीवन तमाम तरह की आशंकाओं और क्षणभंगुरताओं का समुच्चय है। जीवन की प्रत्याशा को लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन एक बात तय है दुनिया उसी को याद करती है जो समाज के लिये त्याग करके जाता है। अपने लिये जीने और धन संपदा जुटाने वाले व्यक्ति को उसकी संतानें भी कुछ पीढ़ियों के बाद भूल जाती हैं। लेकिन सेवा के संकल्प वाले व्यक्ति सदियों तक याद किये जाते हैं।
एक चौंकाने वाला आंकड़ा पिछले दिनों सामने आया जिसने हर किसी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित किया। वह आंकड़ा यह कि हर रोज रात को सोने वाले हजारों लोग अगली सुबह का सूरज नहीं देख पाते। कितना क्षणिक व क्षणभंगुर है जीवन? फिर भी हम संकीर्णताओं में फंसे जोड़ने में लगे रहते हैं। कोशिश होती है कि सात पीढ़ियों के लिये सुख-सुविधाओं का जुगाड़ कर जायें। ब्रिटेन में भारतीय मूल के चर्चित अरबपति लक्ष्मी नारायण मित्तल कहते हैं कि पैसे का मतलब महज सौ-हजार तक ही होता है उसके बाद तो यह संपदा केवल अंकों की गिनती है। निस्संदेह, पैसा तो वही उपयोगी है जिसका आप उपभोग कर पाते हैं। यदि आप खरबपति हैं और उच्च रक्तचाप, हृदयरोग व मधुमेह जैसी बीमारियों से ग्रस्त हैं तो आप न तो नमक खा पायेंगे और न मीठा। हर लजीज व्यंजन खाने के बाद हृदय रोग का डर सताएगा। इस बात को दुनियाभर के अरबपतियों ने भी महसूस किया है। दुनिया के चोटी के धन्नासेठों मसलन अमेरिका के बिल गेट्स व बफेट तक ने अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा समाज के गरीब तबके के कल्याण के लिये दिया है। भारत में अजीम प्रेमजी अपनी आय में से बड़ी धनराशि सामाजिक उत्थान व शिक्षा के संवर्धन में खर्च करते हैं। पिछले दिनों भारत के नये धन कुबेर गौतम शांतिलाल अडानी ने अपने साठवें जन्मदिन पर शिक्षा व अन्य सामाजिक कार्यों के लिये साठ हजार करोड़ देने की बात कही थी। निस्संदेह, उनकी आय के मुकाबले दिया जाने वाला धन उनके लिये ज्यादा नहीं है लेकिन लाखों लोगों की जिंदगियां इससे बदल सकती हैं, उनके जीवन में खुशियां आ सकती हैं।
ऐसा नहीं है कि दान व सामाजिक कार्यों के लिये बड़े धनाढ्य लोग ही पहल कर सकते हैं। जरूरत तो ईमानदार कोशिश की है। देश में कारोबार व वाणिज्य में दुनिया में परचम लहराने वाले वैश्य समाज ने सदियों से सामाजिक कार्यों में अग्रणी भूमिका निभाई है। आजादी के पहले और बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों में कुएं, बावड़ी, सराय व धर्मशालाओं के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका रही है। ऐसे ही तमाम धार्मिक स्थलों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कालांतर तमाम तरह के धार्मिक आयोजनों, शोभायात्राओं, मंदिरों के जीर्णोद्धार, रामलीलाओं व रावण दहन में बड़ा चंदा इसी वर्ग से आता रहा है। कई सामाजिक संस्थाएं उनके चंदे पर जीवित रहती रही हैं। मंदिरों में पुजारियों की जीविका उनके योगदान से समृद्ध होती रही है।
दरअसल, जरूरी नहीं कि आपके पास बहुत पैसा हो। जरूरत है बड़ी सोच की और ईमानदार पहल की। सामाजीकरण अपने आप में एक दवा है जिसका लाभ मदद पाने वाले को भी है और जो सेवा करता है उसको भी। कई बार किसी व्यक्ति को बड़े आर्थिक लाभ से उतना सुकून व खुशी नहीं मिलती, जितनी किसी की मदद से मिलती है। दरअसल, हम समाज में छोटी-छोटी खुशियां बांट सकते हैं। जरूरी नहीं, आर्थिक रूप से बल्कि कई तरह से मदद कर सकते हैं। घर में आपके लिये अनुपयोगी चीजें छांटकर बांट सकते हैं। किसी मेधावी बच्चे की पढ़ाई में मदद कर सकते हैं। बीमार को उपचार में सहयोग कर सकते हैं।
वास्तव में हम यदि अपनी विलासिता को त्यागकर किसी की जरूरत पूरी कर सकें तो किसी के जीवन में बड़ा बदलाव आ सकता है। हमारे घर में काफी सामान ऐसा पड़ा होता है जो हमने वर्षों तक प्रयोग नहीं किया। वह सामान किसी के लिये सुख का वाहक बन सकता है। दरअसल, कुदरत ने हर व्यक्ति की आवश्यकताओं का सामान दुनिया में दिया है। उसका असमान वितरण ही समस्या पैदा करता है। जब यह असमानता ज्यादा बढ़ जाती है तो सामाजिक असंतोष की वाहक बनती है। इसके अलावा समाज में सेवा व मदद करने का व्यक्ति के स्वास्थ्य से भी सीधा रिश्ता है। जो व्यक्ति सामाजिक होता है, संवेदनशील होता है। जो लोगों के सुख-दुख में शामिल होता है वह तनावमुक्त होता है। उसका रक्तचाप संतुलित व हृदय स्वस्थ होता है। सकारात्मकता उसके शरीर में स्वास्थ्यवर्धक हार्मोन्स का रिसाव करती है। उससे व्यक्ति स्वस्थ होता है और उसकी उम्र अधिक होती है। सही मायनों में सेवा का संकल्प हमें तनावमुक्त रखता है।
हमें कोरोना संकट ने दुख तो बहुत दिये, लेकिन उसने हमें सबक भी बहुत दिये। हमने देखा कि करोड़पतियों को भी उपचार उपलब्ध नहीं हो पाया। या फिर उनकी देखरेख करने उनके खून के रिश्तों के लोग भी नहीं आये। लेकिन कई मामले ऐसे आये कि अनजान लोगों ने सैकड़ों लोगों की मदद, संक्रमितों के उपचार व अंतिम संस्कार में की। समाज तो लोगों के मिलने व सहयोग करने से ही बनता है।