अभी दुनिया कोविड महामारी से पूरी तरह उबरी भी नहीं है कि भारत सहित आज भी कुछ देशों में कोविड के नये मामलों की सूचना आना जारी है। इस महामारी को खत्म करने के प्रयासों के बीच एक नया स्वास्थ्य खतरा उभरा है– अनेक मुल्कों में मंकीपॉक्स का फैलाव। कुल 75 देशों में लगभग 17000 मामलों की सूचना मिली है। भारत में अब तक 4 केसों की पक्की तस्दीक हुई है।
हालांकि, मंकीपॉक्स वायरस कोविड-19 महामारी बनाने वाले नोवेल सार्स कोव-2 जैसा नहीं है। फिर भी यह उन देशों में भी तेजी से फैला है जहां इससे पहले कभी वजूद में नहीं था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलने की संभावना देखकर इसको अतंर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल घोषित करना पड़ा है। फिलहाल बीमारी का आरंभिक काल है और फैलाव के नए तौर-तरीकों को लेकर डाटा अभी भी बन रहा है। उपलब्ध डाटा और पिछले ज्ञान के आधार पर निगरानी और सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय सुझाए गए हैं। हालांकि, कोविड की तर्ज पर इस बीमारी से यात्रा इत्यादि में व्यव्ाधान बनने की संभावना फिलहाल कम है, फिर इसकी वैक्सीन पहले से बनी हुई है। इसलिए घबराने की कोई जरूरत नहीं है।
तथापि जिस आवृत्ति की यह बीमारी स्वास्थ्य खतरे के रूप में उभर रही है वह पुराने और पुनः जीवित हुए संक्रमणों का लौटना दर्शाता है, खासकर ज़ूनोटिक्स बीमारियां, जो अब दुनिया के परिदृश्य पर छाने को हैं। मंकीपॉक्स पुरानी बीमारी की वापसी है। लगभग 50 साल पहले यह मध्य और पश्चिमी अफ्रीका के करीब 12 देशों में स्थानीय महामारी के रूप में फैली थी। यही कुछ चिंता अब इसलिए बन रही है क्योंकि मौजूदा फैलाव कुछ उन देशों तक आन पहुंचा है जहां यह पहले कभी नहीं था।
मंकीपॉक्स वायरस के गुण-सूत्र चेचक जैसे हैं। इसका हालिया इतिहास चेचक वायरस से घालमेल वाला रहा है। साल 1959 में मंकी पॉक्स वायरस का पहली बार पता चला था जब प्रयोगशाला में नई दवा के परीक्षणों के लिए लंबी-पूंछ वाले मकाऊ बंदरों का उपयोग किया गया था। यह बात कोपेनहेगन स्थित प्रयोगशाला की है, जिसने सिंगापुर से बंदर आयात किए थे। उस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेचक उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया था, मेडिकल ऑफिसर-इन-चार्ज डीए हैंडरसन ने यह देखने के लिए कि कहीं इंसान से मिलते-जुलते वानरों में भी चेचक वायरस का स्रोत है या नहीं, एक सर्वे किया। यह अध्ययन करना महत्वपूर्ण था क्योंकि यदि जंगलों में वानर आदि जीवों की मार्फत चेचक का वायरस भरपूर मात्रा में व्याप्त है, तो इससे चेचक उन्मूलन कार्यक्रम को खतरा हो सकता है।
1960 और 70 के दशक में, पश्चिम की प्रयोगशालाओं में जीव-परीक्षण के लिए भारत से बंदर निर्यात किए जाते थे। हैंडरसन ने उन 26 मुख्य प्रयोगशालाओं में अध्ययन किया, जहां पर परीक्षण हेतु रखे बंदरों की खासी तादाद थी। कइयों में मंकीपॉक्स वायरस की उपस्थिति पाई गयी, लेकिन इंसानों में इनकी पैठ हुई नहीं पाई गयी। लेडरले प्रयोगशाला ने लगभग 8000 बंदरों पर काम किया और रीसस प्रजाति के कुछ बंदरों में मंकीपॉक्स वायरस की उपस्थिति पाई गयी, जो भारत से गए थे। अमेरिका की एक दवा कंपनी वईथ लैबोरेट्री ने भी पाया कि भारत से प्राप्त बंदरों में मंकीपॉक्स वायरस हैं।
हैंडरसन का अध्ययन 1968 में प्रकाशित हुआ, यह भारतीय बंदरों में मंकीपॉक्स की उपस्थिति का महत्वपूर्ण संकेतक है। इस अध्ययन का निष्कर्ष था ‘शायद इंसानों में बंदरों की अपेक्षा मंकीपॉक्स वायरस के प्रति अधिक प्रतिरोधात्मक क्षमता है।’ लेकिन यह परिणाम गलत सिद्ध हुआ, इंसानों में मंकीपॉक्स का पहला मामला 1970 के दशक में अफ्रीका के कांगो में पाया गया, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य वहां पर चेचक उन्मूलन कार्यक्रम के सिलसिले में थे। उस इलाके में बंदर का मांस स्थानीय लोगों में एक विशिष्ट व्यंजन है। इस बीमारी से ग्रस्त देशों से इतर पहला मामला वर्ष 2003 में अमेरिका से सूचित हुआ।
दरअसल, जानवरों में तरह-तरह के पैथोजन और वायरस का भंडार होता है। कई बार यह वायरस दूसरी प्रजातियों में पैठ बनाते हैं और इंसानों में भी घर कर लेते हैं। पिछले कुछ सालों में हमने अनेकानेक ज़ूनोटिक बीमारियां जैसे कि एवियन इन्फ्लुएंज़ा, सार्स, पैंडेमिक इन्फ्लुएंजा एच1एन1, एमइआरएस-कोव, इबोला और सार्स कोव-2 का फैलाव मानवों में होते देखा है। यहां तक कि आम तौर पर कुत्तों के काटने से इंसानों में होने वाली रैबीज भी एक ज़ूनोटिक बीमारी है। इंसान-जानवर-पर्यावरणीय कारणों से हुए घालमेल से वायरस बीमारी का रूप धर लेते हैं और खाद्य वस्तुओं तक में पैठ बना सकते हैं। इंसान और जानवर के बीच बढ़ती निकटता के पीछे एक बड़ी वजह वन-कटाव और मांसाहार में वृद्धि के अलावा वन्य जीवों को पालतू बनाना है। पिछले कुछ सालों में भारतीयों में भी जंगलों में पाए जाने वाले दुर्लभ पशु-पक्षियों को घर में बतौर पालतू रखने की रुचि बढ़ी है। कई जगहों पर इंसान और उसके पशुधन के आसपास बंदर और कुत्ते काफी नजदीकियों में रहते हैं। यात्रा, बदलती भोजन रुचियां और पशु-मांस के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि से नए संक्रमण वाहकों का खतरा बढ़ने लगा है।
ज़ूनोटिक बीमारियों की रोकथाम और सीमित करने के लिए यह जरूरी है कि इंसान और पशु संक्रामकों के लिए साझा रुख अपनाया जाये, जिसे ‘एकीकृत स्वास्थ्य’ कहा जाता है। इसका मतलब है कि पशु एवं मानव स्वास्थ्य, भोजन आपूर्ति, वन्यजीवन इत्यादि से संबंधित विभिन्न विषयों पर समन्वय बनाकर साथ काम करें। मनुष्य, पशुधन और वन्य जीवों में पल रहे संक्रमण वायरस की निगरानी लगातार करने की जरूरत है। पिछले कुछ सालों में ‘एकीकृत स्वास्थ्य’ के क्रियान्वयन हेतु अनेकानेक अंतर-क्षेत्रीय समितियां, योजनाएं और तंत्र बनाए गए हैं।
राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र ने तमाम सूबों और केंद्रशासित प्रदेशों को राज्य और जिलास्तरीय ज़ूनोटिक कमेटियां बनाने के निर्देश जारी कर रखे हैं, किंतु सभी राज्यों के पास इसके लिए यथेष्ट तंत्र नहीं है। जहां कहीं पैनल हैं भी, वहां जब बात निगरानी और निरीक्षण जैसे कामों की आए, तो पशु-पालन, वन और वन्य-जीवन विभागों के बीच आपसी समन्वय को सीध में लाने की कमी है। विभिन्न स्तरों पर तकनीकी सामर्थ्य की भी कमी है। उत्तर-पूरब के सीमांत प्रदेशों में अंतर-सीमा पैथोजन की आमद की संभावना पर निगरानी बनाना जरूरी है। इसके अलावा, नये मानव-संक्रमण वायरसों के लिए बनाए गए ‘एकीकृत व्याधि’ निगरानी कार्यक्रम को आगे सुदृढ़ करना आवश्यक है।
वन और वन्य जीव क्षेत्रों के एकदम पास रहने वाली बड़ी इंसानी आबादी और उसके पशुधन के चलते भारत ज़ूनोटिक बीमारियों के लिए बड़ा संभावित अड्डा है। कोविड महामारी और अब मंकीपॉक्स का प्रकोप इंसानों और पशुओं के स्वास्थ्य पर लगातार मंडराते खतरे की चेतावनी है, इसके लिए ‘एकीकृत स्वास्थ्य’ की हकीकत जमीन पर उतारने के लिए आवश्यक तकनीकी कार्यबल और नीतियों का संचालन बेहतर बनाने की जरूरत है।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के स्तंभकार हैं।