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ड्रेस कोड के नाम पर बंदिशों का सिलसिला

क्षमा शर्मा हाल ही में चीन में कर्मचारियों के लिए एडवाइजरी जारी की गई है। इसमें कहा गया है कि सभी को ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जो ‘चीन की स्पिरिट’ के अनुकूल हों। महिलाएं गहरे गले के कपड़े या जो...
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क्षमा शर्मा

हाल ही में चीन में कर्मचारियों के लिए एडवाइजरी जारी की गई है। इसमें कहा गया है कि सभी को ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जो ‘चीन की स्पिरिट’ के अनुकूल हों। महिलाएं गहरे गले के कपड़े या जो उनके अंगों को दिखाते हों, न पहनें। गहरे रंगों से भी परहेज करें। कहा जाता है कि चीनी महिलाओं को सजने-संवरने का बहुत शौक है। उन्हें फैशनेबल कपड़े पहनना भी बहुत पसंद है। लेकिन अब सरकार ‘चीनी स्पिरिट’ के नाम पर इसे रोक रही है। पुरुषों से भी कहा गया है कि उनके लिए आदर्श कपड़े कोट-पैंट हैं। जो ऐसा नहीं करेगा उस पर भारी-भरकम जुर्माना लगेगा। जेल भी जाना पड़ सकता है। चीन के बारे में यह खबर पढ़कर थोड़ा-सा आश्चर्य हुआ। और हो भी क्यों न। यह देश तो अपने आपको समाजवादी कहता है। समाजवादी मूल्यों का वाहक और दावेदार कहलाता है। ऐसे में अपने यहां के लोगों, खास तौर से महिलाओं पर इस तरह के प्रतिबंध क्या इन मूल्यों के विपरीत नहीं। कहा तो यही जाता है न कि समाजवादी समाज में इस तरह की कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए, लेकिन देख हम कुछ और रहे हैं। जहां सरकार तमाम प्रतिगामी मूल्य लागू करने पर तुली है, वहां इन बातों का काफी विरोध भी हो रहा है। लोग पूछ रहे हैं कि हम आखिर अफगानिस्तान और ईरान से किस तरह अलग हैं।

अफगानिस्तान में तालिबान ने आकर औरतों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लागू किए हैं। यहां तक कि उनके स्कूल-कालेज जाने पर भी रोक लगा दी है। विश्व भर में इन प्रतिबंधों की काफी आलोचना भी हुई है। ईरान में एक वर्ष से हिजाब विरोधी आंदोलन चल रहा है। महिलाओं के साथ-साथ इसमें पुरुषों ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया है। महिलाएं उन पर लगाए गए तरह-तरह के सरकारी प्रतिबंधों का विरोध कर रही हैं। बहुतों को सजा भी दी गई है। जिस महिला माशा अमीनी की मृत्यु के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ था, उसकी मौत को एक वर्ष पूरा हो गया है। वहां की मारल पुलिस की कस्टडी में उसकी मृत्यु हुई थी। उसे इस्लामिक ड्रेस कोड के उल्लंघन के आरोप में पकड़ा गया था। कहा गया था कि उसने हिजाब नहीं पहना हुआ था। तब औरतों ने जोरदार आंदोलन चलाया था। उन्होंने कहा था कि महिलाओं को जीवन और आजादी चाहिए। तब ईरान ने तमाम तरह के दंड देकर इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश की थी। विश्व भर में इस बात पर ईरान की निंदा हुई थी। अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तथा अन्य देशों ने ईरान पर तरह-तरह के प्रतिबंध भी लगाए थे। उन्हें अब और बढ़ा दिया गया है। इस दौर में ईरान में तरह-तरह की कविताएं, कहानियां भी लिखी गईं, जो हिजाब के विरोध और महिलाओं के आंदोलन के समर्थन में थीं। वहां की शायरा शाहरुख हैदर की लम्बी कविता की कुछ पंक्तियां देखिए- मैं एक औरत हूं, अपनी तमाम पाबंदी के बाद भी औरत हूं। क्या मेरी पैदाइश में कोई गलती थी, या वह जगह गलत थी जहां मैं बड़ी हुई। मेरा जिस्म, मेरा वजूद, एक आला लिबास वाले मर्द की सोच और अरबी जबान के चंद झांसे के नाम बिका हुआ है। यह एक ऐसी लम्बी कविता है जिसमें वहां की औरतों के जीवन की तकलीफ बयान की गई है। जिसे पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

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अब जब इस आंदोलन का एक वर्ष पूरा हुआ है तो इस अवसर पर अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि वह और उनका देश ईरान के बहादुर लोगों के साथ खड़ा है। जो बाइडेन कुछ भी कहते रहें, धर्म के नाम पर औरतों की आजादी पर तरह-तरह से प्रतिबंध लगाने वाली सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या औरतों के विरोध के कारण ईरानी सरकार ने कुछ ढील दी है या अफगानिस्तान में औरतों को कुछ अधिकार मिले हैं। दोनों का जवाब न में है। और अब चीन की बारी है। आगे न जाने कितने देश ऐसी हरकतों में शामिल होने वाले हैं।

दूसरी तरफ तुर्किए है। कमाल पाशा को वहां तरह-तरह के सुधारों के लिए जाना जाता है। वहां लम्बे अरसे तक सरकार की तरफ से हिजाब पहनने पर प्रतिबंध रहा है। लेकिन अब वहां की महिलाएं हिजाब पहनने की मांग करती हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि औरतों को प्रताड़ित करने, उन्हें दोयम दर्जे की नागरिकता सौंपने के लिए तरह-तरह के उपाय कट्टरपंथी सरकारों द्वारा किए जाते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि दुनियाभर के स्त्रीवादियों द्वारा ईरान की औरतों के पक्ष में बहुत कम आवाजें सुनाई दीं। अपने यहां तो लगभग खामोशी ही छाई रही। इसे दूसरे देश का सांस्कृतिक मामला बताकर चुप्पी साध ली गई।

लगभग इसी समय पर भारत के कर्नाटक में हिजाब समर्थक आंदोलन चलाया गया था। इसे हमारे यहां बहुत से प्रगतिशील तक ने निजी च्वाइस का मामला बताकर चुप्पी साध ली थी। जबकि कर्नाटक में किसी सरकार ने हिजाब पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। यह वहां के एक स्कूल की यूनिफार्म से जुड़ा मामला था। यह देखकर और भी हैरत हुई थी कि वे लोग जो लगातार घूंघट और पर्दा प्रथा का विरोध करते आए हैं, वे भी किसी न किसी बहाने इधर-उधर हो लिए थे।

यह विरोधाभास क्यों। ईरान, अफगानिस्तान या तुर्किए के मसले में सरकारें जिस बात पर भी रोक लगाती हैं, लोगों में उसकी तीखी प्रतिक्रिया होती है। और इसी प्रतिक्रिया स्वरूप विरोध जन्म लेता है। लोग भूल जाते हैं कि हो सकता है कि सरकार की तरफ से की गई बातों में उनका कुछ भला छिपा हो। जैसा कि तुर्किए का उदाहरण। मगर सरकारी हस्तक्षेप लोगों को पसंद नहीं आता और वह किसी न किसी रूप में विरोध के रूप में फूटता है।

चीन का मामला इसलिए भी ज्यादा गौर करने लायक है कि आखिर वहां की सरकार को यह क्यों सूझा कि लोगों की वेशभूषा पर अंकुश लगाया जाए। यों बहुत-सी कम्पनियां अपने यहां ड्रेस कोड रखती हैं। लेकिन वह निजी मामला होता है, किसी सरकार का आदेश नहीं। चीनी सरकार को यह क्यों लगा कि लोगों के कपड़े ‘चीनी स्पिरिट’ को खत्म कर रहे हैं। क्या चीन की आत्मा सिर्फ कपड़ों में रहती है और क्या कपड़ों से किसी संस्कृति का विनाश हो जाता है। इस तरह की रोक-टोक ऐसे समाज में कहां तक जायज है जो सबकी बराबरी की बात कहता है। हालांकि चीन के संदर्भ में यह बात मात्र सैद्धांतिक ही कही जाती है। वर्ना तो वहां लोगों को मामूली अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं। छोटे-छोटे बच्चे तक उन भयावह उद्योगों में काम करते हैं जो जानलेवा हैं। किसी पूंजीवादी देश में भी ऐसा नहीं है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि चीन में पुत्रों से बहुत मोह है। हर दम्पति चाहता है कि उसके लड़कियां नहीं, पुत्र ही हों। ऐसे में किस बात का समाजवाद। लोगों की और सबकी बराबरी की बात। लेनिन ने भले ही कहा हो कि औरतों का जीवन सुधारना हो तो उन्हें रसोई से निकालो। लेकिन चीन में मार्क्सवाद के सिद्धांत के नाम पर स्त्री-पुरुषों को तरह-तरह के ड्रेस कोड में बांधने की कवायद की जा रही है।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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