दुर्गा प्रसाद अग्रवाल
राजस्थान कॉलेज शिक्षा सेवा में लगभग 36 वर्षों के इस कार्यकाल में अंतिम 32 माह को छोड़कर, जब मैं निदेशालय कॉलेज शिक्षा में संयुक्त निदेशक के पद पर रहा, सारा समय विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत रहा। इस दौरान मुझे लगभग बीस प्राचार्यों के साथ काम करने का अवसर मिला। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो उनमें से एक स्वर्गीय महेश कुमार भार्गव मुझे कुछ ज्यादा ही याद आते हैं। वे 1978 से 1981 तक राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में मेरे प्राचार्य रहे। मार्च, 2000 में मैं राजकीय महाविद्यालय सिरोही का प्राचार्य बना तो एक क्षण को मैं उस कुर्सी पर बैठते हुए झिझका, जिस पर कभी एमके भार्गव जैसे प्राचार्य बैठ चुके थे। भार्गव साहब की बेटी मंजरी भार्गव भी हमारे ही कॉलेज में इतिहास की प्राध्यापिका थीं। मंजरी तैराकी की अर्जुन पुरस्कार विजेता भी थी। मुझे भार्गव साहब का एक प्रसंग याद आ रहा है। वह सर्दी की रात थी। हम खाना खाकर रजाई में घुस चुके थे। कोई आठेक बजे घर की घंटी बजी। बाहर आया तो देखा भार्गव साहब खड़े हैं।
मैं उनसे भीतर आने को कहता, उससे पहले विमला, मेरी पत्नी भी बाहर आ गईं। भार्गव साहब बोले, ‘उमा (उनकी पत्नी) कार में हैं। वे यहां मिसेज़ अग्रवाल के पास रुकेंगी, और डीपी, तुम मेरे साथ चलो।’ मैं कपड़े बदल कर आया तो श्रीमती भार्गव कार से निकल कर मेरे घर में आ गईं और मैं कार में जा बैठा। कार कॉलेज के सामने रुकी। उन दिनों किसी मुद्दे पर छात्र हड़ताल पर थे और वे रात को भी कॉलेज के बाहर धरना दिये हुए थे। दस-पंद्रह विद्यार्थी ठंड में सिकुड़ते हुए धरने पर जमे हुए थे। भार्गव साहब ने उनसे कहा कि तुम बेशक अपना धरना ज़ारी रखो, लेकिन मुझे यह फिक्र है कि कहीं ठंड के मारे बीमार न पड़ जाओ। वे वापस अपनी कार की तरफ मुड़े। उसके बाद उनकी कार रुकी एक टेंट हाउस के सामने। उन्होंने आदेश दिया कि पंद्रह-बीस गद्दे और रजाइयां कॉलेज के बाहर पहुंचा दिये जाएं। रास्ते में वे मुझसे बोले, ‘डीपी, हैं तो ये अपने ही बच्चे। हम इनको बीमार पड़ता कैसे देख सकते हैं?’ अगली सुबह जब मैं कॉलेज पहुंचा तो पाया कि विद्यार्थी अपना धरना ख़त्म कर चुके थे। ऐसे बड़े मन वाले प्राचार्य को मैं कैसे भूल सकता हूं।
साभार : डीपी अग्रवाल डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम