सुरेश सेठ
सर्दी शुरू हो गयी है। सोचा था धीरे-धीरे आएगी लेकिन मध्य नवंबर से तो यह अकस्मात मारक-सी हो गयी। मौसम के भविष्यवक्ता हरकत में आ गये। कह रहे हैं, इस बार बहुत कड़ाके की सर्दी पड़ेगी।
चिकित्सा विशारदों ने फरमा दिया। सावधानी रखी नहीं। मास्क और दस्तानों को अपना कवच नहीं बनाया। लगा था कोरोना वायरस से पैदा महामारी दब रही है। बिना औषधि ही पंजाब से, हरियाणा से, दिल्ली से लौट रही है। संक्रमण के आंकड़े घट रहे हैं, रिकवरी रेट बढ़ रहा है, मृत्युदर भी निम्नतम हो गयी। लेकिन यह क्या हुआ? उत्सव माह बीतने को आया। बुझा-बुझा-सा व्यवसाय, उद्यम रहा, मन्दी की जिंदगी बढ़ती रही। पंजाब और हरियाणा के किसान खेतों में पराली जलाते रहे। ग्रीन दीवाली मनाने के आदेश और पटाखों पर प्रतिबंध के बावजूद पटाखे चले। वायु प्रदूषण और जुड़ा। आंकड़ा शास्त्री बता रहे हैं, दबता हुआ कोरोना अपनी दूसरी लहर के साथ पंजाब और हरियाणा के घर आंगनों में दस्तक देगा। पंजाब की चिन्ता बढ़ी है। संक्रमण के आंकड़े बढ़े, मृत्युदर भी कम नहीं हो रही। इधर हरियाणा का तेवर बढ़ते संक्रमण और उसके साथ बढ़ती रिकवरी दर का है।
दिल्ली की बात छोड़ो। वहां तो कोविड महामारी की तीसरी लहर लौट आयी लगती है। उच्च न्यायालय इस प्रकोप का संज्ञान ले रहा है। एहतियात की कमी इस लौटती लहर का कारण बतायी जा रही है। सरकारों को इसका सामना करने का सजग आदेश मिला है।
उपचार यहां है, अमेिरका से एक आवाज उठी। फाइजर कंपनी के साथ जर्मनी के बायोटैक दंपति भी जुड़े। जांच परीक्षणों में नब्बे प्रतिशत सफलता मिलने की घोषणा भी हो गयी। उधर रूस की स्पूतनिक पांच का भी वैक्सीन उपचार के अपने परीक्षणों में सफलता की घोषणा करने लगा। भारत के दोनों के साथ आपूर्ति समझौते हैं। फिर हमारा दवा बनाने का मूलभूत ढांचा अव्वल नंबर है। अभी दवा की दुनिया में चीनी आधिपत्य के कारण निस्तेज पड़ा था। अब भारत सहित चार देशों के ‘क्वाड’ समझौते से चीनी बहिष्कार के नारे के साथ हरकत पा गया।
फिर भी दहशतजदा लोग दिलासा चाहते हैं। कब तक सावधानी का मास्क अपने अस्तित्व पर ओढ़े रहें? सामान्य जीवन में लौट जाने का अवसर कब मिलेगा? लहर दुनिया के कुछ देशों में लौटकर आयी है, वहां फिर लाॅकडाउन लग गया। योजना आयोग का पंचवर्षीय योजनाओं के सहारे विकास क्रम पटरी से उतरा हुआ है। योजना आयोग को सफेद हाथी कह तड़ीपार कर दिया गया था। अब उसकी जगह नीति आयोग लौट आया है। विकास तो करना ही है। कैसे, किस रास्ते और विकास अवधि की कैसी योजनाओं के साथ? अभी किंकर्तव्यविमूड़ता में डूबे हैं नीतिवान।
लेकिन कोविड की लड़ाई के पूर्णबन्दी के चार चरणों को क्रमश: खुलती अपूर्णबन्दी के चार चरण भी राहत न दे सके। अर्थतन्त्र की गति के हिचकोलों के बारे में रिजर्व बैंक की नयी रपट आ गयी। इसमें दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर को प्राप्त कर लेना दूर की कौड़ी लगता है। फिलहाल तो इस वर्ष की दूसरी आर्थिक तिमाही में आठ या नौ प्रतिशत की विकास दर में गिरावट है। सकल घरेलू उत्पादन तेईस प्रतिशत घट गया है। स्वत: स्फूर्त हो जाने के सपनों को आकाश कुसुम मान लो। हां, अगले आर्थिक वर्ष में डूबी आर्थिकता उभर आयेगी। अंतर्राष्ट्रीय आंकड़ा संस्थान और अपने संस्थान इस दिशा में जादुई चमत्कार हो जाने की उम्मीद बंधाते हैं। लेकिन इस उम्मीद पर बुनियादी उद्योगों की विकास दर की गिरावट एक तुषारापात बन कर गिरी है।
एेसे माहौल में कोरोना टीके के मिल जाने की घोषणा एक उम्मीद बन जाती है। शर्त यही है कि अगले बरस के प्रारंभ में ही जन-जन तक मास्क और दस्तानों के साथ सुरक्षा का यह अभेद्य कवच पहुंच जाये लेकिन क्यों लोगों के अन्तस में पैठे मिर्जा गालिब जैसे कहने लगते हैं ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती।’ एेसा अवसाद क्यों? सेहत मंत्री हर्षवर्धन ने फरमा दिया कि अगले साल के जुलाई मास तक टीका आमजन तक पहुंच जायेगा।
देश के फार्मा उद्योग और सीरम कंपनी ने फरमाया कि टीके के बंटने की वितरण व्यवस्था को बनाने के लिए अस्सी हजार करोड़ रुपये की लागत आयेगी। सरकारी प्रकोष्ठों से एक बयान आया कि पचास हजार करोड़ रुपये का इंतजाम हमने कर भी लिया लेकिन बीच में चुनावी राजनीति में दलीय प्रतिद्वंद्विता के एजेंडे आ गये। बिहार चुनाव तो हो गये। अंतिम परिणामों में कांटे की टक्कर के बावजूद वही पुराने शहसवार सत्ता की कुंजी संभालते नजर आ रहे हैं। इन्हें कैसे याद दिलायें कि आपने जन साधारण में कोरोना का टीका मुफ्त बांटने का एेलान किया था। अब पश्चिम बंगाल में चुनाव युद्ध की मोर्चाबन्दी होने लगी। कुछ उपचुनाव हो गये, पंजाब को भी चौदह महीनों के बाद चुनावी रणसमर में कूदना है। रणभेरी बज गयी। जाहिर है मुफ्त कोरोना का टीका और लाखों लोगों को नया रोजगार देने के वादे चुनाव एजेंडों का शीर्ष बनेंगे। लेकिन कब ये नीचे उतर कर धरती का सत्य बनेंगे, प्रतीक्षा हो रही है।
इस बीच उत्सव उपहार के रूप में, आर्थिक उपहार के रूप में आत्मनिर्भर भारत 3-0 की तीसरी अनुकम्पा किस्त की घोषणा हो गयी। दो लाख पैंसठ हजार करोड़ रुपया बंटेगा। बेघरों के लिए नये घर बनाने की राहत और कंपनियों के लिए पंद्रह हजार मासिक पाने वाले कर्मचारियों तक के लिए ईपीएफ में अंशदान अब नियोक्ता नहीं, सरकार देगी, इसका बड़ा आकर्षण है।
उम्मीद है कि इनसे नये-पुराने बेकारों को रोजगार मिलेगा। जिंदगी पुन: सामान्य हो सकेगी। लेकिन इससे पहले दो आर्थिक पैकेजों और रिजर्व बैंक की सहज होती मौद्रिक साख नीति भी तो आर्थिक स्थिति सामान्य नहीं कर सकी। अभी तक कुल 29.67 लाख करोड़ रुपये की आर्थिक राहत दे दी है। लेकिन लघु-मध्यम उद्योगों से सज्जित ग्रामीण भारत का नया चित्र उभरकर नहीं आया?
अभी भी दवाई नहीं, तब तक कोरोना प्रकोप से बचने के लिए एहतियात में ढिलाई नहीं की चेतावनी जिंदगी के सामान्य होने के रास्ते में खड़ी है। कोरोना की दवाई मिलने की उम्मीद ने आम लोगों को संतोष दे दिया, लेकिन वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की तीसरी आर्थिक अनुकम्पा में कोरोना उपचार विकास के लिए मात्र नौ हजार करोड़ रुपया क्यों रखा गया? सुना था जरूरत तो कम से कम अस्सी हजार करोड़ रुपये की है। निश्चय ही कोविड महामारी से देश की मन्दीग्रस्त परिस्थितियों को वापस विकास की लय पकड़नी है। देश के अर्थतन्त्र को स्वत: स्फूर्त हो जाने का लक्ष्य पाना है।
असल सफर आम यात्री को खुद ही तय करना है। कामगारों काे काम देने वाले लघु और मध्यम उद्योगों का पथ। कार्पोरेट संस्कृति तो कुछ व्यावसायिक घरानों का घर भरने के साथ त्वरित विकास की दर दे देती है लेकिन असल विकास उस ग्रामीण भारत के पुनर्जन्म में छिपा है, जिसने कोविड महामारी के अन्यतम प्रहार से संत्रस्त भारत को अभी तक अकाल पीड़ित नहीं होने दिया।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।