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सऊदी-पाक समझौता और भारत की फिक्र

एक बात ने भारत में पर्यवेक्षकों का ध्यान खींचा है, कि ‘दोनों में से किसी भी देश पर हुए आक्रमण को दोनों के खिलाफ आक्रमण माना जाएगा।’ इससे कुछ लोग इसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी परिस्थिति से जोड़ रहे हैं। सच...
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एक बात ने भारत में पर्यवेक्षकों का ध्यान खींचा है, कि ‘दोनों में से किसी भी देश पर हुए आक्रमण को दोनों के खिलाफ आक्रमण माना जाएगा।’ इससे कुछ लोग इसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी परिस्थिति से जोड़ रहे हैं। सच यह है कि दोनों देशों के बीच यह समझौता लंबी बातचीत का परिणाम है।

पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच बुधवार 17 सितंबर को हुए आपसी रक्षा समझौते को लेकर भारत में आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। यह भी माना जा रहा है कि बेशक यह समझौता पश्चिम एशिया के बदलते हालात में काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन यह भारत के खिलाफ नहीं है। और वस्तुतः पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच साठ के दशक से चली आ रही अनौपचारिक रक्षा-साझेदारी औपचारिक हो गई है। इसके साथ ही इन दोनों देशों के अमेरिका, इस्राइल और चीन के अलावा ईरान और तुर्की के साथ रिश्तों की पेचीदगियों को समझने की जरूरत भी होगी। साथ ही हाल में क़तर पर हुए इस्राइली हमले के बाद की गतिविधियों पर भी नज़र डालनी होगी।

इस समझौते के बारे में अभी तक ज्यादा विवरण सामने नहीं आए हैं, लेकिन इसमें कही गई एक बात ने भारत में पर्यवेक्षकों का ध्यान खींचा है, कि ‘दोनों में से किसी भी देश पर हुआ आक्रमण को दोनों के खिलाफ आक्रमण माना जाएगा।’ इससे कुछ लोग इसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी परिस्थिति से जोड़ रहे हैं। सच यह है कि दोनों देशों के बीच यह समझौता लंबी बातचीत का परिणाम है। संभावना इस बात की है कि यूएई और बहरीन जैसे देश भी इस समझौते में शामिल हो सकते हैं। इस समझौते के ठीक पहले इस्लामिक देशों का एक संयुक्त सैनिक-बल बनाने की दिशा में भी पहल शुरू हुई है।

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यों तो इस समझौते पर काफी समय से काम चल रहा था, लेकिन हाल ही में कतर पर हुए इस्राइल के हमले के बाद इस पर हस्ताक्षर होने से कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। इस्राइल की बढ़ती आक्रामकता और अमेरिकी रक्षा वायदे के कमजोर नज़र आने के कारण यह पहला बड़ा रक्षा समझौता है जिस पर किसी अरब देश ने किसी परमाणु-सशस्त्र राष्ट्र के साथ हस्ताक्षर किए हैं।

पूछा जा सकता है कि क्या इस समझौते के भारत की सुरक्षा से जुड़े निहितार्थ नहीं होंगे? भारत के विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने एक बयान में कहा, ‘सरकार को इस बात की जानकारी थी कि यह घटनाक्रम, जो दोनों देशों के बीच एक दीर्घकालिक समझौते को औपचारिक रूप देता है, विचाराधीन है। ज़ाहिर है कि सऊदी अरब ने भारत को इस मामले में ‘लूप’ में रखा है। बहरहाल, भारत इस घटनाक्रम के राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ-साथ क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन जरूर करेगा।

सऊदी अरब और यूएई ने भारत में अरबों डॉलर का निवेश किया है और भविष्य में भारी निवेश की संभावनाएं हैं। इसलिए यह भी स्पष्ट है कि ये देश भारत की सुरक्षा-प्राथमिकताओं को भी समझते हैं। सऊदी अरब के लिए भारत दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, और भारत के लिए सऊदी अरब पांचवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। वित्त वर्ष 2023-24 में, द्विपक्षीय व्यापार 42.98 अरब अमेरिकी डॉलर रहा, जिसमें भारतीय निर्यात 11.56 अरब अमेरिकी डॉलर और आयात 31.42 अरब अमेरिकी डॉलर रहा।

22 अप्रैल को पहलगाम हमले के दौरान प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब में थे और सऊदी-अरब ने इस घटना की तुरंत निंदा की थी। बाद में, सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री आदिल अल-जुबैर ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान अचानक पाकिस्तान का दौरा किया। सऊदी अरब ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने की ज़्यादा कड़ी आलोचना कभी नहीं की। फरवरी, 2019 में पुलवामा आतंकी हमले की निंदा की थी, लेकिन बालाकोट हमलों की निंदा नहीं की थी।

इसके साथ ही यूएई ने भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों को ठीक कराने की कई बार कोशिशें कीं और पाकिस्तान सरकार ‘यू-टर्न’ करती रही। सबसे ताज़ा प्रकरण 2022-23 का है। पहले खबर आई कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने यूएई के चैनल अल अरबिया के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि हम कश्मीर समेत सभी मुद्दों पर पीएम नरेंद्र मोदी के साथ गंभीर बातचीत करना चाहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के साथ तीन-तीन युद्ध लड़कर पाकिस्तान ने सबक सीख लिया है। इससे गरीबी, बेरोजगारी और परेशानी के सिवा हमें कुछ नहीं मिला। अब हम शांति चाहते हैं।

उसके फौरन बाद मंगलवार 17 जनवरी, 2023 को पाकिस्तान के सरकारी टीवी चैनल पर साक्षात्कार के प्रसारण के फौरन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया कि पीएम के बयान को गलत संदर्भ में लिया गया। बातचीत तभी हो सकती है, जब भारत अगस्त, 2019 के फैसले को वापस ले। शरीफ ने अरब चैनल पर कहा था कि दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू कराने में संयुक्त अरब अमीरात महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जिसके भारत के साथ बेहतर संबंध हैं। माना जाता है कि दोनों देशों ने फरवरी, 2021 में नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी रोकने के लिए सन‍् 2003 के समझौते को पुख्ता तरीके से लागू करने की जो घोषणा की थी, उसके पीछे भी यूएई की भूमिका थी। यह बात उन्हीं दिनों अमीरात के वॉशिंगटन स्थित राजदूत युसुफ अल ओतैबा ने कही थी। क्या वजह है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों को बार-बार यू-टर्न लेना पड़ता है?

दूसरी तरफ हमें सऊदी-पाकिस्तान रिश्तों की पृष्ठभूमि को भी समझना होगा। 1960 के दशक के अंत में, यमन में मिस्र के युद्ध को लेकर चिंताओं के बीच, पाकिस्तानी सैनिक सऊदी अरब गए थे। 1979 में मक्का की ग्रैंड मस्जिद पर कब्ज़ा हुआ था, तब पाकिस्तान के विशेष बलों ने सऊदी सैनिकों की मदद की थी, इसके साथ ही सैन्य सहयोग और गहरा हो गया। वर्ष 1982 में, दोनों पक्षों ने एक द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग समझौते के माध्यम से सुरक्षा संबंधों को संस्थागत रूप दिया, जिससे सऊदी अरब की धरती पर पाकिस्तानी प्रशिक्षण, सलाहकार सहायता और तैनाती संभव हुई।

सऊदी अरब पाकिस्तान निर्मित हथियारों का एक प्रमुख खरीदार है, और पाकिस्तानी कर्मियों ने सऊदी वायु सेना को प्रशिक्षित किया है। दूसरी तरफ पाकिस्तान जब भी आर्थिक-संकट से घिरा है सऊदी अरब ने उसकी मदद की है। अब कहा जा रहा है कि पाकिस्तान अब सऊदी अरब के पैसे से अमेरिकी हथियार खरीद सकेगा, जिसे ट्रंप प्रशासन बेचने को तैयार है। हाल में राष्ट्रपति ट्रंप ने जब पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर को लंच पर बुलाया, तब स्पष्ट था कि अमेरिका इस इलाके में पाकिस्तान की भूमिका देख रहा है।

कहना मुश्किल है कि सऊदी-पाकिस्तान समझौते के पीछे अमेरिकी सहमति है या नहीं। पहली नज़र में यह इस्राइल-विरोधी समझौता है। सऊदी अरब को इस्राइल के अलावा ईरान, यमन के हूती मिलीशिया और दूसरे खतरों से सुरक्षा उपलब्ध कराता है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में लंबे अनुभव वाले पूर्व अमेरिकी डिप्लोमेट ज़लमयखलीलज़ाद ने इस समझौते पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह ‘खतरनाक समय’ में हुआ है। पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार और डिलीवरी सिस्टम हैं, जो इस्राइल सहित पूरे पश्चिम एशिया पर प्रहार कर सकते हैं। देखना होगा कि क्या पाकिस्तान एक तरफ चीन से और दूसरी तरफ अमेरिका से रिश्ते गांठ रहा है? सबकी निगाहें अफगानिस्तान पर भी हैं, जहां अमेरिका चाहता है कि अफगानिस्तान का तालिबानी शासन बगराम हवाई अड्डा उसे दे दे।

लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।

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