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आजादी और समानता के लिए दी शहादत

उधम सिंह शहीदी दिवस

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अरुण कुमार कैहरबा

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अनेक क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं से भरा हुआ है, जो देश को आजाद करवाने के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। उन्हीं में से एक थे शहीद उधम सिंह जिनकी देशप्रेम की भावना, क्रांतिकारी सोच, साहस और शहादत बेमिसाल है। उधम सिंह ने जलियांवाला बाग के नृशंस हत्याकांड का बदला लेने के लिए दुश्मन के देश में पहुंच कर अपना संकल्प पूरा करके शहादत दी। वे साम्राज्यवादी लूट, शोषण के प्रति आक्रोश से भरे थे और सामाजिक बदलाव के लिए साम्राज्यवादी शासन को समाप्त कर देना चाहते थे। समानता-न्याय आधारित समाज उनका सपना था।

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उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर, 1889 में पंजाब के संगरूर के तहत सुनाम में हुआ था। उनके पिता टहल सिंह व मां हरनाम कौर थी। टहल सिंह रेलवे में फाटकमैन की नौकरी के साथ ही खेती भी करते थे। जन्म के समय उधम सिंह का नाम शेर सिंह रखा था। शेर सिंह जब तीन साल का था तब मां का देहांत हो गया। शेर सिंह के एक बड़े भाई भी थे- साधु सिंह। एक दिन शेर सिंह पर भेड़ियेे ने हमला कर दिया । इस घटना ने पिता को भयभीत कर दिया। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और दोनों बच्चों को साथ लेकर अमृतसर की ओर चल दिए।

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साल 1907 में शेर सिंह जब आठ साल का था, अमृतसर जाते हुए पिता टहल सिंह की बीमारी से मृत्यु हो गई। हालांकि पिता ने मृत्यु से पहले एक व्यक्ति चंचल सिंह को शेर सिंह व साधु सिंह की जिम्मेदारी सौंप दी थी। चंचल सिंह के कहने पर दोनों को अमृतसर के सेंट्रल सिख अनाथालय में दाखिल मिला। अनाथालय में ही शेर सिंह को उधे सिंह और बड़े भाई साधु सिंह को मुक्ता सिंह नाम से जाना जाने लगा। यहां उधम सिंह ने करीब दस साल बिताए व मैकेनिक का काम सीखा। उधम सिंह धार्मिक-राजनीतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेने लगे। साल 1917 में उधम सिंह के बड़े भाई साधु सिंह का भी देहांत हो गया।

13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में इकट्ठे हुए हजारों निहत्थे लोगों पर अंग्रेजों ने जनरल डायर के नेतृत्व में गोलियां बरसा दी। जान बचाने के लिए बड़ी संख्या में लोग कुंए में कूद गए। सैकड़ों लाशें कुंए से निकली। इस नृशंस हत्याकांड के बारे में सुनकर उधम सिंह का खून खौल गया। उन्होंने इस घटना का बदला लेने का संकल्प किया। वह क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। साल 1927 में अमृतसर में पुलिस ने उधम सिंह से पिस्तौल और गदर पार्टी का साहित्य बरामद किया। उन्हें पांच साल की सजा दी गई।

उधम सिंह ने जीवन में समय-समय पर अपने कई नाम रखे। 20 मार्च, 1933 को लाहौर से 34 साल की आयु में शेर सिंह ने नए उधम सिंह नाम से अपना पासपोर्ट बनवाया। तभी से वे उधम सिंह के तौर पर जाने जाने लगे और आजादी की लड़ाई में यही नाम उनकी पहचान बन गया। उधम सिंह अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका होते हुए 1934 में ब्रिटेन पहुंचे। वहां अलग-अलग जगह रहकर मोटर-मिस्त्री, कारपेंटर व ड्राइवर के रूप में अनेक कार्य किए। वहीं फिल्मों में भी काम किया।

जलियांवाला हत्याकांड के 21 साल बाद लंदन स्थित कैक्सटन हॉल में 13 मार्च, 1940 को आयोजित एक समारोह में उधम सिंह को बदला लेने का मौका मिला। जलियांवाला बाग में गोलियां चलवाने वाला जनरल डायर तो बीमारी के कारण पहले ही मर चुका था। हत्याकांड के समय पंजाब का गवर्नर माइकल ओडवायर था, जिसे समारोह में आना था। उधम सिंह किताब के बीच में पिस्तौल छुपाकर ले गया। वहां उधम सिंह ने गोलियां चलाई व ओडवायर की मौके पर ही मौत हो गई। वहीं गिरफ्तारी के बाद पुलिस को दिए बयान में उधम सिंह ने अपना नाम मोहम्मद सिंह आजाद बताया। कुछ लेखकों ने यह नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद बताया है। अपने बयान में उधम सिंह ने भारत में ब्रिटिश सम्राज्य की शोषणकारी नीतियों के प्रति विरोध व्यक्त किया। मुकदमे में उधम सिंह को माइकल ओडवायर की हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई, 1940 को उधम सिंह को वहीं पेंटनविले जेल में फांसी दी गई व जेल परिसर में ही दफना दिया गया था। मरने के 34 साल बाद 19 जुलाई, 1974 को शहीद उधम सिंह की मिट्टी भारत में लाई गई।

उधम सिंह इंकलाब और मोहब्बत की भावना से सराबोर थे। गदर पार्टी के शहीद करतार सिंह सराभा और शहीदे आजम भगत सिंह उसके प्रेरणास्रोत थे। उधम सिंह क्रांतिकारियों के विचारों से प्रभावित होने, अध्ययन और घुमक्कड़ी की वजह से दुनिया में हुए परिवर्तनों से वाकिफ थे। मोहम्मद सिंह आजाद उधम सिंह का सबसे पसंदीदा नाम था जिसमें सभी धर्म-सम्प्रदायों की एकता का उनका दर्शन समाया है। शहीदी दिवस पर उन्हें याद करने का मतलब उनके जीवन और विचारों से प्रेरणा लेना होना चाहिए।

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